जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी छात्र संघ के अध्यक्ष कन्हैया कुमार को गुरूवार शाम तिहाड़ जेल से बेहद नाटकीय अंदाज में रिहा किया गया. कन्हैया तिहाड़ से निकल जेएनयू पहुंचा है.
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करीब तीन हफ्ते बाद कन्हैया कुमार की रिहाई हो गयी. कहीं कोई हिंसक गतिविधि ना हो, इसका ध्यान रखते हुए दिल्ली पुलिस और तिहाड़ जेल के अधिकारियों ने खूब सुरक्षा के बीच कन्हैया को जेल से निकाला. इस दौरान तिहाड़ जेल के तीन गेटों पर सुरक्षा कड़ी की गयी. तीनों ही गेटों पर मीडिया कन्हैया के इंतजार में खड़ी रही लेकिन पुलिस ने मीडिया को खबर दिए बिना उसे तिहाड़ के रिहायशी कॉम्प्लेक्स से बाहर निकाला. कन्हैया को छोड़ने के लिए पुलिस की तीन गाड़ियां भेजी गयीं. जेएनयू के छात्रों को उम्मीद है कि गुरूवार रात कन्हैया कैम्पस में स्पीच देगा.
कन्हैया कुमार को 12 फरवरी को जेएनयू से गिरफ्तार किया गया था. उस पर देशद्रोही नारे लगाने का आरोप है. हाईकोर्ट ने कहा है कि यह साबित नहीं किया जा सका है कि कन्हैया इस तरह की गतिविधि में शामिल था लेकिन फिलहाल उसे छह महीने की अंतरिम जमानत दी गयी है और जांच अधिकारियों के साथ सहयोग करने को कहा गया है. हाईकोर्ट का फैसला भी कम नाटकीय नहीं रहा है. जज प्रतिभा रानी ने फैसले की शुरुआत उपकार फिल्म के गाने "मेरे देश की धरती सोना उगले, उगले हीरे मोती" से की.
दिल्ली में अलर्ट
बुधवार को हाईकोर्ट का फैसला आने के बाद दिल्ली पुलिस ने चेतावनी दी है कि शहर में कई जगहों पर हिंसा भड़क सकती है. दिल्ली पुलिस ने ट्रैफिक पुलिस और पीसीआर को आगाह किया है कि जेएनयू और दिल्ली यूनिवर्सिटी के अंदर और आसपास के इलाकों में आइसा और एबीवीपी के बीच हिंसक प्रदर्शन होने की आशंका है. पुलिस नोटिस में लिखा गया है, "बेल मिलने पर हो सकता है कि कन्हैया जंतर मंतर, जेएनयू और डीयू में बड़ी संख्या में अपने समर्थकों को ले कर जाए. इनमें अधिकतर आइसा और एआइएसएफ छात्र संगठनों के होने की उम्मीद है और कुछ राजनीतिक दलों से जुड़े लोगों की उपस्थिति भी हो सकती है."
इसमें आगे लिखा है कि ऐसा मुमकिन है कि एबीवीपी और अन्य दक्षिणपंथी पार्टियां या फिर कुछ नेता इस तरह की रैलियों को रोकने की कोशिश करें और इसका नतीजा हिंसक हो, "स्थिति की संवेदनशीलता और मामले की गंभीरता को देखते हुए, कड़ी सुरक्षा और उपयुक्त संख्या में स्थानीय पुलिस और महिला पुलिसकर्मियों का मौजूद होना जरूरी है."
दिल्ली पुलिस ने पहली बार यह नोटिस तब जारी किया था जब उसने हाईकोर्ट में कन्हैया की जमानत के खिलाफ अर्जी दी थी. इसके बाद बुधवार को अदालत के फैसले के बाद इसे फिर से जारी किया गया.
राजद्रोह के मायने, दायरे और इतिहास
भारत में राजद्रोह के नाम पर हुई गिरफ्तारियों से इसकी परिभाषा और इससे जुड़े कानून की ओर ध्यान खिंचा है. आइए देखें कि भारतीय कानून व्यवस्था में राजद्रोह का इतिहास कैसा रहा है.
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भारतीय दंड संहिता यानि आईपीसी के सेक्शन 124-A के अंतर्गत किसी पर राजद्रोह का आरोप लग सकता है. ब्रिटिश औपनिवेशिक काल की सरकार ने 19वीं और 20वीं सदी में राष्ट्रवादी असंतोष को दबाने के लिए यह कानून बनाए थे. खुद ब्रिटेन ने अपने देश में राजद्रोह कानून को 2010 में समाप्त कर दिया.
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सेक्शन 124-A के अनुसार जो भी मौखिक या लिखित, इशारों में या स्पष्ट रूप से दिखाकर, या किसी भी अन्य तरीके से ऐसे शब्दों का प्रयोग करता है, जो भारत में विधि द्वारा स्थापित सरकार के लिए घृणा या अवमानना, उत्तेजना या असंतोष पैदा करने का प्रयास करे, उसे दोषी सिद्ध होने पर उम्रकैद और जुर्माना या 3 साल की कैद और जुर्माना या केवल जुर्माने की सजा दी जा सकती है.
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"देश विरोधी" नारे और भाषण देने के आरोप में हाल ही में दिल्ली की जेएनयू के छात्रों, दिल्ली विश्वविद्यालय के पूर्व प्रोफेसर एसएआर गिलानी से पहले कार्टूनिस्ट असीम त्रिवेदी, लेखिका और सामाजिक कार्यकर्ता अरुंधती रॉय, चिकित्सक और एक्टिविस्ट बिनायक सेन जैसे कई लोगों पर राजद्रोह का आरोप लगा.
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सन 1837 में लॉर्ड टीबी मैकॉले की अध्यक्षता वाले पहले विधि आयोग ने भारतीय दंड संहिता तैयार की थी. सन 1870 में ब्रिटिश औपनिवेशिक प्रशासन ने सेक्शन 124-A को आईपीसी के छठे अध्याय में जोड़ा. 19वीं और 20वीं सदी के प्रारम्भ में इसका इस्तेमाल ज्यादातर प्रमुख भारतीय राष्ट्रवादियों और स्वतंत्रता सेनानियों के लेखन और भाषणों के खिलाफ हुआ.
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पहला मामला 1891 में अखबार निकालने वाले संपादक जोगेन्द्र चंद्र बोस का सामने आता है. बाल गंगाधर तिलक से लेकर महात्मा गांधी तक पर इस सेक्शन के अंतर्गत ट्रायल चले. पत्रिका में छपे अपने तीन लेखों के मामले में ट्रायल झेल रहे महात्मा गांधी ने कहा था, "सेक्शन 124-A, जिसके अंतर्गत मुझ पर आरोप लगा है, आईपीसी के राजनीतिक वर्गों के बीच नागरिकों की स्वतंत्रता को दबाने के लिए रचे गए कानूनों का राजकुमार है."
सन 1947 में ब्रिटिश शासन से आजादी मिलने के बाद से ही मानव अधिकार संगठन आवाजें उठाते रहे हैं कि इस कानून का गलत इस्तेमाल अपने राजनीतिक विरोधियों के खिलाफ किए जाने का खतरा है. सत्ताधारी सरकार की शांतिपूर्ण आलोचना को रोकना देश में भाषा की स्वतंत्रता को ठेस पहुंचा सकता है.
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सन 1962 के एक उल्लेखनीय 'केदार नाथ सिंह बनाम बिहार सरकार' मामले में भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने कानून की संवैधानिकता को बरकरार रखने का निर्णय लिया था. हालांकि अदालत ने ऐसे भाषणों या लेखनों के बीच साफ अंतर किया था जो “लोगों को हिंसा करने के लिए उकसाने वाले या सार्वजनिक अव्यवस्था पैदा करने की प्रवृत्ति वाले हों.”
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आलोचक कहते आए हैं कि देश की निचली अदालतें सुप्रीम कोर्ट के फैसले को नजरअंदाज करती आई हैं और राज्य सरकारों ने समय समय पर मनमाने ढंग से इस कानून का गलत इस्तेमाल किया है. भविष्य में इसके दुरुपयोग को रोकने के लिए कुछ लोग केंद्र सरकार से सेक्शन 124-A की साफ, सटीक व्याख्या करवाने, तो कुछ इसे पूरी तरह समाप्त किए जाने की मांग कर रहे हैं.