गंगा यमुना की सफाई में भारत की सरकारें अरबों रुपये उड़ा चुकी हैं. लेकिन जमीन पर असली काम तो रामनाथ जैसे लोग करते हैं. लाइम लाइट से दूर रहने वाले ये लोग प्लास्टिक जैसे दानव से रोज लड़ते हैं.
विज्ञापन
पिछले 25 साल से रामनाथ की सुबह दिल्ली में बने यमुना नदी पर बंधे पुल के नीचे गुजर रही है. हर सुबह रामनाथ नदी किनारे बनी अपनी झोपड़ी से निकल कर यमुना के काले और गंदे पानी में जाते हैं. कभी उनका मछली पकड़ना होता था लेकिन आज रामनाथ मछली की जगह कचरा बीनते हैं. वह यहां कचरा जमा करते हैं. 40 साल के रामनाथ कहते हैं, "हमारे पास यही एक काम है. हम कचरे के ढेर से प्लास्टिक की बोतलें, बैग और इलेक्ट्रॉनिक्स छांटते हैं." रामनाथ की ही तरह हजारों कचरा बीनने वाले राजधानी दिल्ली में यमुना के किनारे रहते हैं. ये नदी किनारे इकट्ठा होने वाले कचरे के ढेर से रिसाइकिल होने वाले कचरे को ढूंढते हैं. इससे बमुश्किल इन्हें दिनभर में 150 से 250 रुपये मिल जाते हैं.
रामनाथ खुद को कोई पर्यावरणविद नहीं समझते, बल्कि वह नई दिल्ली में रहने वाले उन चंद लोगों में से एक है जो नदियों को प्लास्टिक के दलदल से बचाने की कोशिश में जुटे हैं. कुछ इसी तरह का काम 9वीं कक्षा में पढ़ने वाला छात्र आदित्य मुखर्जी भी कर रहा है. इस छात्र ने आसपास के महंगे और बड़े रेस्तरां को प्लास्टिक के स्ट्रा का इस्तेमाल न करने के लिए मना लिया है.
सरकारी आंकड़ों के मुताबिक दिल्ली और इससे सटे इलाके रोजाना तकरीबन 17 हजार टन कचरा पैदा होता हैं. इसके लिए बड़े डपिंग ग्राउंड की जरूरत है. दिल्ली में कूड़े का ढेर अब करीब 50 मीटर ऊंचे हो चुके हैं. पिछले साल कचरे के इन पहाड़ों के गिरने से दो लोगों की मौत हो गई थी. पर्यावरण कार्यकर्ता चित्रा मुखर्जी कहती हैं, "आज हम जिन वस्तुओं का इस्तेमाल अपने आराम के लिए कर रहे हैं उन्हें गलने में सालों लग जाते हैं." चित्रा मानती हैं कि प्लास्टिक से निजात पाने के लिए संयुक्त कदम उठाने चाहिए. जिसमें अधिकारी, शोधाकर्ता, पर्यावरणविद सभी शामिल हो सकें.
रामनाथ की ही तरह अमरदीप बर्धन भी प्लास्टिक इस्तेमाल को कम करने में जुटे हैं. अमरदीप को लगता है कि वह कुछ बदलाव ला सकते हैं. इनकी कंपनी प्रकृति, दक्षिण भारत में मिलने वाले ताड़ के पेड़ की पत्तियों से प्लेट और कटोरियां बनाती है. कागज की प्लेटों की तरह लगने वाली यह प्लेट सात से दस दिन में घुल जाती हैं. कंपनी ऐसे किसी ताड़ के पेड़ों की खेती नहीं कर रही है बल्कि पत्तियों के जमीन पर गिरने का इंतजार करती है.
अमरदीप कहते हैं, "इस पूरी प्रक्रिया में हम पर्यावरण को कोई नुकसान नहीं पहुंचा रहे हैं. बल्कि हम कचरे से कुछ बना रहे हैं जिसे लोग पंसद करते हैं." अमरदीप ने बताया कि पहले उनका कारोबार अमेरिका और यूरोप के बाजारों में किए जाने वाले निर्यात पर निर्भर था लेकिन अब भारत में ये बाजार बढ़ रहा है. खासकर युवाओं के बीच जो कीमत की बजाय क्वालिटी को तवज्जो देते हैं.
दुनिया का हाल
दुनिया हर साल 80 लाख टन प्लास्टिक कचरा महासागरों में फेंक रही है. इसका मतलब है हर मिनट करीब एक ट्रक प्लास्टिक कचरा समंदर में फेंका जा रहा है. ओशियन कंजर्वेंसी रिपोर्ट के मुताबिक इस कचरे का आधा हिस्सा पांच एशियाई देश, चीन, इंडोनेशिया, फिलिपींस, थाइलैंड और वियतनाम से आता है. ये सभी देश एशिया की तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्थाओं में शामिल हैं. यहां दुनिया का सबसे अधिक तैयार प्लास्टिक, इस्तेमाल के बाद बतौर कूड़ा फेंका जाता है. इंडोनेशिया में गैरलाभकारी संस्था ग्रीनपीस के साथ काम करने वाले अधिकारी कहते हैं कि दुनिया इस वक्त प्लास्टिक प्रदूषण के संकट से गुजर रही है, जहां सब कचरा नदी और महासागरों में डाला जा रहा है. थाइलैंड में एक व्हेल मछली की मौत के लिए उसके पेट में मिले 80 प्लास्टिक बैग को जिम्मेदार माना गया था. प्लास्टिक का ये असर समुद्रों में रहने वाले कछुओं और अन्य जीवों पर भी असर डाल रहे हैं.
प्लास्टिक की जगह ये चीजें करें इस्तेमाल
जब प्लास्टिक लोगों की जिंदगियों का हिस्सा बना, तो सिर्फ उसके फायदों पर ही सबका ध्यान गया, इस पर नहीं कि यह कमाल का आविष्कार भविष्य के लिए कितना खतरनाक साबित हो सकता है. अब प्लास्टिक को अलविदा कहने का वक्त आ गया है.
प्लास्टिक को अपनी जिंदगी से निकालने में सबसे अहम कदम तो यही है कि इसकी दीवानगी को छोड़ा जाए. प्लास्टिक की जगह कपड़े के थैले का इस्तेमाल किया जा सकता है. इन जनाब की तरह प्लास्टिक की स्ट्रॉ को मुंह में फंसाने की शर्त लगाने की जगह कुछ बेहतर भी सोचा जा सकता है. मैर्को हॉर्ट ने 259 स्ट्रॉ को मुंह में रखने का रिकॉर्ड बनाया था.
तस्वीर: AP
खा जाओ
यूरोपीय संघ सिंगल यूज प्लास्टिक पर रोक लगाने पर विचार कर रहा है. ऐसे में प्लास्टिक की स्ट्रॉ, कप, चम्मच इत्यादि बाजार से गायब हो जाएंगे. इनके विकल्प पहले ही खोजे जा चुके हैं. जैसे कि जर्मनी की कंपनी वाइजफूड ने ऐसे स्ट्रॉ बनाए हैं जिन्हें इस्तेमाल करने के बाद खाया जा सकता है. ये सेब का रस निकालने के बाद बच गए गूदे से तैयार की जाती हैं.
तस्वीर: Wisefood
आलू वाला चम्मच
एक दिन में कुल कितने प्लास्टिक के चम्मच और कांटे इस्तेमाल होते हैं, इसके कोई आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं लेकिन इतना जरूर है कि दुनिया भर में कूड़ेदान इनसे भरे रहते हैं. भारत की कंपनी बेकरीज ने ज्वार से छुरी-चम्मच बनाए हैं. स्ट्रॉ की तरह इन्हें भी आप खा सकते हैं. ऐसा ही कुछ अमेरिकी कंपनी स्पड वेयर्स ने भी किया है. इनके चम्मच आलू के स्टार्च से बने हैं.
तस्वीर: picture-alliance/dpa/M. Scholz
चोकर वाली प्लेट
जिस थाली में खाएं, उसी को खा भी जाएं! पोलैंड की कंपनी बायोट्रेम ने चोकर से प्लेटें तैयार की हैं. अगर आपका इन्हें खाने का मन ना भी हो, तो कोई बात नहीं. इन प्लेटों को डिकंपोज होने में महज तीस दिन का वक्त लगता है. खाने की दूसरी चीजों की तरह ये भी नष्ट हो जाती हैं. और इन प्लेटों का ना सही तो पत्तल का इस्तेमाल तो कर ही सकते हैं.
तस्वीर: picture-alliance/dpa/A. Reszko
कप और ग्लास
अकेले यूरोप में हर साल 500 अरब प्लास्टिक के कप और ग्लास का इस्तेमाल किया जाता है. नए कानून के आने के बाद इन सब पर रोक लग जाएगी. इनके बदले कागज या गत्ते के बने ग्लास का इस्तेमाल किया जा सकता है. जर्मनी की एक कंपनी घास के इस्तेमाल से भी इन्हें बना रही है. तो वहीं बांस से भी ऑर्गेनिक ग्लास बनाए जा रहे हैं.
तस्वीर: picture-alliance/empics/D. Thompson
घोल कर पी जाओ
इंडोनेशिया की एक कंपनी अवनी ने ऐसे थैले तैयार किए हैं जो देखने में बिलकुल प्लास्टिक की पन्नियों जैसे ही नजर आते हैं. लेकिन दरअसल ये कॉर्नस्टार्च से बने हैं. इस्तेमाल के बाद अगर इन्हें इधर उधर कहीं फेंक भी दिया जाए तो भी कोई बात नहीं क्योंकि ये पानी में घुल जाते हैं. कंपनी का दावा है कि इन्हें घोल कर पिया भी जा सकता है.
तस्वीर: Avani-Eco
अपना अपना ग्लास
भाग दौड़ की दुनिया में बैठ कर चाय कॉफी पीने की फुरसत सब लोगों के पास नहीं है. ऐसे में रास्ते में किसी कैफे से कॉफी का ग्लास उठाया, जब खत्म हुई तो कहीं फेंक दिया. इसे रोका जाए, इसके लिए बर्लिन में ऐसा प्रोजेक्ट चलाया जा रह है जिसके तहत लोग एक कैफे से ग्लास लें और जब चाहें अपनी सहूलियत के अनुसार किसी दूसरे कैफे में उसे लौटा दें.
तस्वीर: justswapit
क्या जरूरत है?
ये छोटे से ईयर बड समुद्र में पहुंच कर जीवों को भारी नुकसान पहुंचाते हैं. समुद्री जीव इसे खाना समझ कर खा जाते हैं. यूरोपीय संघ इन पर भी रोक लगाने के बारे में सोच रहा है. इन्हें बांस या कागज से बनाने पर भी विचार चल रहा है. लेकिन पर्यावरणविद पूछते हैं कि इनकी जरूरत ही क्या है. लोग नहाने के बाद अपना तौलिया भी तो इस्तेमाल कर सकते हैं.
तस्वीर: picture alliance/dpa/Wildlife Photographer of the Year /J. Hofman
विशेषज्ञ प्लास्टिक प्रदूषण को दुनिया के लिए बड़ा खतरा मानते हैं. इसमें एक है माइक्रोप्लास्टिक. पांच मिलीमीटर से कम परिधि वाले प्लास्टिक के कणों को माइक्रोप्लास्टिक कहा जाता है. प्लास्टिक के ये बारीक कण हर जगह मौजूद हैं. जिसे इंसान रोजाना किसी न किसी ढंग से ले रहा है. वैज्ञानिक अब तक माइक्रोप्लास्टिक के पूरे असर को समझ नहीं सके हैं. कंजर्वेंसी रिपोर्ट के मुताबिक अगर कचरा फेंकने में यही तेजी बनी रही तो साल 2025 तक दुनिया के समंदरों में 25 करोड़ टन प्लास्टिक कचरा जमा हो जाएगा. इसका मतलब है कि साल 2050 तक महासागरों में मछलियों से ज्यादा प्लास्टिक का कचरा होगा.
दम घोंट रहा है माइक्रोप्लास्टिक
इंसान प्लास्टिक से बुरी तरह घिर चुका है. वह प्लास्टिक खा रहा है, पी भी रहा है और पहन भी रहा है. देखिये कहां कहां मौजूद है अतिसूक्ष्म यानि माइक्रोप्लास्टिक.
तस्वीर: picture alliance/JOKER/A. Stein
रोज सुबह मुंह में
पांच मिलीमीटर से कम परिधि वाले प्लास्टिक के कणों को माइक्रोप्लास्टिक कहा जाता है. प्लास्टिक के ये बारीक कण हर जगह मौजूद हैं. सुबह सुबह टूथपेस्ट के साथ ही माइक्रोप्लास्टिक सीधे इंसान के मुंह में पहुंचता है.
तस्वीर: picture-alliance/dpa/S. Sauer
कॉस्मेटिक्स में
मेकअप के सामान, क्रीम, क्लीनजिंग मिल्क और टोनर में भी माइक्रोप्लास्टिक मौजूद होता है. घर के सीवेज सिस्टम से बहता हुआ यह माइक्रोप्लास्टिक नदियों और सागरों तक पहुंचता है.
तस्वीर: picture-alliance/empics/Y. Mok
मछलियों में
पानी में घुला माइक्रोप्लास्टिक मछलियों के पेट तक पहुंचता है. मछलियों के साथ ही दूसरे सी खाने में भी माइक्रोप्लास्टिक मिल रहा है. 2017 की एक रिपोर्ट के मुताबिक इंडोनेशिया और कैलिफोर्निया की 25 फीसदी समुद्री मछलियों में प्लास्टिक मिला. आहार चक्र के जरिए यह इंसान तक पहुंचता है.
तस्वीर: picture-alliance/dpa/Anka Agency International
नमक में
दुनिया में ज्यादातर नमक की सप्लाई समुद्री पानी से होती है. समुद्रों में बुरी तरह प्लास्टिक घुल चुका है. हर साल 1.2 करोड़ टन प्लास्टिक महासागरों तक पहुंच रहा है. नमक के साथ यह माइक्रोप्लास्टिक हर किसी की रसोई तक पहुंचता है.
तस्वीर: picture alliance/Bildagentur-online/Tetra
पीने के पानी में
दुनिया भर में नल के जरिए सप्लाई होने वाले पीने के पानी के 80 फीसदी नमूनों में माइक्रोप्लास्टिक मिला है. वैज्ञानिकों के मुताबिक नल के पानी में प्लास्टिक का इस कदर मिलना बताता है कि प्लास्टिक हर जगह घुस चुका है. इसी पानी का इस्तेमाल खाना बनाने और मवेशियों की प्यास बुझाने के लिए भी किया जाता है.
तस्वीर: Imago/Westend61
कपड़ों में
सिथेंटिक टेक्सटाइल से बने कपड़ों को जब भी धोया जाता है, तब उनसे काफी ज्यादा माइक्रोप्लास्टिक निकलता है. रिसर्च में पता चला है कि छह किलोग्राम कपड़ों को धोने पर 7,00,000 से ज्यादा माइक्रोप्लास्टिक फाइबर निकलते हैं. महासागरों में 35 फीसदी माइक्रोप्लास्टिक सिथेंटिक टेक्साटाइल से ही पहुंचता है.
तस्वीर: Imago/Mint Images
शहद में भी
पानी और जलीय जीवों के साथ ही वैज्ञानिकों को शहद जैसी चीजों में भी माइक्रोप्लास्टिक मिला है. हाल ही यूरोपीय संघ के प्लास्टिक के खिलाफ बनाई गई रणनीति में यह बात साफ कही गई कि शहद में माइक्रोप्लास्टिक की अच्छी खासी मात्रा मौजूद है.
तस्वीर: Colourbox
टायर बने मुसीबत
पर्यावरण में सबसे ज्यादा माइक्रोप्लास्टिक टायरों के जरिये घुलता है. सड़क पर घिसते टायर बहुत ही बारीक माइक्रोप्लास्टिक छोड़ते हैं. पानी और हवा के संपर्क में आते ही यह हर जगह पहुंच जाता है. (रिपोर्ट: इरेने बानोस रुइज/ओएसजे)