सैन्य संगठन नाटो ने अमेरिका को अपना समर्थन दिखाते हुए रूस से पारदर्शिता बरतने की अपील की है. अमेरिका का दावा है कि रूस का क्रूज मिसाइल सिस्टम दोनों देशों के बीच तय की गई साल 1987 की संधि का उल्लंघन करती है.
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सैन्य संगठन नाटो में शामिल देशों ने रूस के क्रूज मिसाइल सिस्टम को लेकर अपनी चिंता जाहिर की है. इस क्रूज मिसाइल सिस्टम को तैयार करने से लेकर इसकी तैनाती तक अमेरिका लगातार सवाल उठाता रहा है. सदस्य देशों को डर सता रहा है कि कही यह मिसाइल सिस्टम शीत युद्ध के दौर में रूस और अमेरिका के बीच हुए समझौते ना तोड़ दे. नाटो का यह बयान अमेरिका के समर्थन में आया है.
अमेरिका के मुताबिक रूस एक ऐसा क्रूज मिसाइल सिस्टम तैयार कर रहा है जो इसकी परमाणु क्षमता में इजाफा करता है. साथ ही यह मिसाइल सिस्टम साल 1987 में तय इंटरमीडिएट-रेंज न्यूक्लियर फोर्स (आईएनएफ) संधि को भी तोड़ता है. नाटो ने रूस से इन चिंताओं को दूर करने कि अपील की है. साथ ही अमेरिका के साथ तकनीकी रूप से एक सक्रिय और पारदर्शी वार्ता प्रक्रिया में शामिल होने को कहा है. वहीं रूस ने आईएनएफ संधि के उल्लंघन से इनकार किया है.
आईएनएफ संधि, अमेरिका और रूस पर जमीनी स्तर पर मिसाइल तैनाती को लेकर प्रतिबंध लगाती है. लेकिन इस संधि में समुद्र से जुड़े लॉन्च शामिल नहीं है.
दुनिया भर की सेनाओं के पास सोवियत संघ के हथियार
सोवियत संघ भले ही सालों पहले खत्म हो गया, लेकिन उसके इंजीनियरों के बनाये और युद्धों में इस्तेमाल किये गए हथियार आज भी दुनियाभर की सेनाएं इस्तेमाल कर रही हैं.
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मिखाईल कलाश्निकोव की राइफल
30 राउंड वाली एके 47 दुनिया की सबसे ज्यादा पहचानी जाने वाली राइफल है. सोवियत इंजीनियर मिखाईल कलाश्निकोव ने यह ऑटोमैटिक राइफल दूसरे विश्वयुद्ध के बाद बनाई थी. सस्ती और भरोसे लायक होने की वजह से यह राइफल कई सेनाओं में बहुत जल्दी लोकप्रिय हुई. आज की तारीख में कई गुरिल्ला समूह और आपराधिक गिरोहों समेत दुनिया भर की कई सेनाएं इस बंदूक को इस्तेमाल कर रही हैं.
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बंदूक जो पहुंची अंतरिक्ष
9 एमएम की मार्कोव पिस्तौल का इस्तेमाल 1951 में हुआ. यह पिस्तौल सोवियत सेना, पुलिस और विशेष बल में प्रयोग की जाती थी. यहां तक कि सोवयत के अंतरिक्ष यात्री इसे अपनी खास किट में रख कर स्पेस की यात्रा पर गए. ये पिस्तौल उन्हें इसलिए दी गयी थी कि अगर वे किसी मुसीबत में फंस जायें तो इसका इस्तेमाल कर सकें
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अब भी उड़ रहा है मिग-29
मिग-29 1980 के शुरुआती सालों में बनना शुरू हुआ और इसकी गतिशीलता और चुस्ती की वजह से इसे खूब तारीफें मिलीं. हालांकि नाटो फाईटर्स और सुखोई ने अब इसे पीछे कर दिया है, लेकिन इसके कई विमान अब भी युद्धों में इस्तेमाल हो रहे हैं. रूसी वायुसेना सीरिया में इस्लामिक स्टेट को निशाना बनाने के लिए मिग-29 का इस्तेमाल कर रही है.
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द्वितीय विश्व युद्ध से अब तक
रेड आर्मी ने द्वितीय विश्व युद्ध में जर्मन सैनिकों के खिलाफ विनाशकारी प्रभाव के लिए कत्युशास ट्रक का इस्तेमाल किया था. इन आर्मी ट्रकों में कई रॉकेट लॉन्चर जुड़े हुए थे. ये ट्रक काफी सस्ते थे और इन्हें आसानी से कहीं भी ले जाया जा सकता था. इन ट्रकों को आज भी इस्तेमाल में लाया जा रहा है. ईरान-इराक युद्ध, लेबनान युद्ध, सीरियाई गृह युद्ध समेत कई लडाइयों में अब भी कई सेनाएं इसका इस्तेमाल कर रही हैं.
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विशालकाय एस-300 वायु रक्षा तंत्र
साल 2016 में रूस ने ईरान को उन्नत हवाई रक्षा प्रणाली बेची थी. शीत युद्ध-युग संस्करण के एस-300 150 किलोमीटर दूर तक वार कर सकते थे. इसके नए संस्करणों को और सक्षम बनाया गया है, जो 400 किलोमीटर दूर तक वार कर सकते हैं. भारत और चीन दोनों एडवांस एस-300 को खरीदने का विचार कर रहे हैं.
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ड्रैगुनोव स्नाईपर राइफल
ड्रैगुनोव स्नाईपर राइफल सोवियत आर्मी में पहली बार 1963 में इस्तेमाल होना शुरू हुई थीं. तब से अब तक ये दुनिया भर के कई देशों में जा चुकी हैं. इन राइफलों का कथित तौर पर वियतनाम में अमेरिकी सैनिकों के खिलाफ इस्तेमाल किया गया था. 2015 में कुछ तस्वीरें सामने आई थीं, जिसमें इस्लामिक स्टेट की सेना के पास ड्रैगुनोव स्नाईपर राइफल दिख रही थीं.
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टी -34, एक युग का प्रतीक
रेड आर्मी की जर्मनी पर जीत के श्रेय का एक बड़ा हिस्सा टी-34 के नाम जाता है. टी-34 का लड़ाईयों में पहली बार 1941 में इस्तेमाल किया गया था. युद्ध में आजमाई गयी टी-34 तोपें बाद में दुनियाभर में सबसे ज्यादा बनाए जाने वाले टैंक साबित हुए. रूसी सेना अब भी इस तोप को विजय दिवस परेड में सबसे आगे खड़ा कर इसे सम्मान देती है.
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नाटो का ये रुख रूस और पश्चिमी देशों के बीच रिश्तों को और भी प्रभावित कर सकता है. क्रीमिया पर रूस के रुख और अमेरिकी चुनावों में रूस के शामिल होने जैसी खबरों ने पहले ही दोनों पक्षों के बीच रिश्तों में तनाव पैदा कर दिया है. हालांकि रूस ने अमेरिकी चुनावों में अपनी किसी भी भूमिका से इनकार किया है. नाटो का यह बयान, रूस और अमेरिका की बैठक के ठीक पहले आया है. रूस और अमेरिका दोनों ही पक्ष जेनेवा में इस संधि की 30वीं सालगिरह के मौके पर बैठक करेंगे. रूस के विदेश मंत्रालय ने कुछ दिन पहले एक बयान में कहा था कि, रूस अमेरिका के साथ संधि से जुड़े मसले पर बातचीत करने के लिए तैयार है.
तैयार हो रहा है रूस का सबसे बड़ा पुल
केर्च खाड़ी पर पुल बनाना असंभव माना जाता था. लेकिन रूस ने इसे मुमकिन कर दिया है. उसने रूस को सीधे क्रीमिया प्रायद्वीप से जोड़ दिया है.
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यूक्रेन का बायपास
जमीन के रास्ते रूस क्रीमिया तक नहीं पहुंच सकता. वहां जाने का रास्ता यूक्रेन से होकर गुजरता है. लेकिन 2014 में क्रीमिया को यूक्रेन से अलग करने के बाद दोनों देशों के रिश्ते खट्टे हो गए. अब रूस समंदर पर एक विशाल पुल बांध रहा है, ताकि वह बिना यूक्रेन गये सीधे क्रीमिया तक पहुंच जाए.
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प्रोजेक्ट पर पुतिन की नजर
इतने बड़े ढांचे का टेक्निकल इंस्पेक्शन सिर्फ हवा से ही हो सकता है. पुल के काम पर खुद रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन नजर रख रहे हैं. निर्माण पूरा होने के बाद इस पुल से हर दिन 40,000 गाड़ियां और 47 ट्रेनें गुजरा करेंगी.
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जूडो टीचर को जिम्मेदारी
रूस की कंपनी एसजीएम 2015 से इस प्रोजेक्ट पर काम कर रही है. कंपनी के मालिकों में से एक अरकाडी रोटेनबर्ग, पुतिन के जूडो टीचर रह चुके हैं. उन्हें आज रूसी राष्ट्रपति के सबसे भरोसेमंद लोगों में गिना जाता है. इसी कंपनी ने सोची विंटर ओलंपिक्स के दौरान भी निर्माण कार्य किये.
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काले सागर का गेटवे
इस पुल के नीचे से गुजरने के बाद ही कोई जहाज काले सागर से ओजोव सागर तक पहुंच पाएगा. ओजोव सागर में ही डॉन नदी का मुहाना है. डॉन नदी के जलमार्ग के जरिये जहाज रूस की सबसे बड़ी नदी वोल्गा तक पहुंच सकते हैं.
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हाई ड्यूटी ब्रिज
इन स्तंभों को भविष्य में हजारों ट्रकों और ट्रेनों का वजन बर्दाश्त करना होगा. दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान जर्मन सेना ने भी केर्च खाड़ी पर पुल बनाने की कोशिश की थी, लेकिन कड़ाके की सर्दी और बर्फ ने उस पुल को बर्बाद कर दिया.
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आखिरी टच की तैयारी
ट्रकों, कारों और बसों के लिए यह पुल 2018 में खुल जाएगा. 2019 में इसे रेलवे के लिए भी खोल दिया जाएगा. इस पुल के जरिये गाड़ियां रूस से सीधे क्रीमिया पहुंचेगी.
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ताकत और हुनर का प्रतीक
निर्माण पूरा होने के बाद यह रूस का सबसे विशाल पुल होगा. इस पुल का काम बहुत तेजी से आगे बढ़ा. रूस के सामने साफ लक्ष्य था कि यूक्रेन से क्रीमिया को अलग करने के बाद जल्द जल्द से प्रायद्वीप तक सीधे पहुंचने का रास्ता बनाना जाए.