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नाम की नहीं काम की महिला सरपंच

४ जून २०१३

भारत के स्थानीय निकायों में महिलाओं को आरक्षण दिए जाने के समय घूंघट में दुबकी महिला सरपंच सिर्फ नाम की सरपंच थी और इनकी जगह काम इनके पति या बेटे करते थे लेकिन अब सब बदल गया है.

तस्वीर: Thangasami Sivanu

भारत में पंचायती राज की कामयाबी के पीछे राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी के ग्राम स्वराज की अवधारणा ही मूल आधार रही है. सत्ता की कुंजी ग्राम संसद से देश की संसद तक ले जाने के इस सफर में महिलाएं भी अब बढ़ चढ़ कर अपनी भूमिका निभा रही है. सदियों से चूल्हा चौके तक सीमित रही गांव देहात की महिलाएं अब न सिर्फ अपने गांव की तकदीर बदल रही हैं बल्कि अपनी प्रतिभा का लोहा दुनिया में भी मनवा रही हैं.

राजस्थान में प्रबंधन के गुर ग्राम सभा में अपनाने वाली युवा सरपंच छवि राजावत से लेकर मध्य प्रदेश की वंदना बहादुर मयेडा ने हवा का रुख बदल दिया है. मैनेजमेंट की पढाई करने के बाद मल्टी नेशनल कंपनी की नौकरी छोड़ सरपंच बन कर राजावत ने अपने करियर को गांव की तकदीर से जोड़ लिया दूसरी ओर गांव की मिट्टी में पली बढ़ी और ब्याही गयी वंदना ने अपने नैसर्गिक हुनर से न सिर्फ गांव की पंचायत पर सिक्का जमाया है बल्कि उनकी मेहनत का जादू संयुक्त राष्ट्र तक भी चल गया है.

झारखंड के इलाके झाबुआ में जहां विकास की धारा अब तक की तमाम सरकारें भी ठीक से नहीं चला पायी हैं, उसी झाबुआ जिले की खानखांडवी गांव में आदिवासी समुदाय की सरपंच वंदना ने महज तीन साल में तरक्की और खुशहाली की गंगा बहा कर दिखा दी है. मजे की बात तो ये है कि सरपंच बनने से पहले तक जिस वंदना ने ग्राम सभा का नाम तक नहीं सुना था और पंचायत का मतलब भी नहीं मालुम था आज वही वंदना अपने गांव के आलावा पास के तीन दूसरे गांवों का भरोसा जीत कर इनकी ग्राम सभाओं का सफलतापूर्वक संचालन कर रही है. उनकी इस कामयाबी को संयुक्त राष्ट्र ने भी मानते हुए उन्हें इस साल के अपने वर्ल्ड कैलेंडर में जगह देने के लिए चुना है.

सामान्य सी कद काठी वाली 32 साल की वंदना भारत में हजारों महिला सरपंचों के साथ उन सभी चुनी हुई महिला जन प्रतिनिधियों के लिए रोल मॉडल बन गयी हैं जो महज महिला सीट होने की वजह से अपने पति या बेटों की खातिर चुनाव में उतरती है. वंदना की उपलब्धि का डंका अज देश भर में गूंज रहा है. संसद से लेकर विधान सभाओं में उन्हें नजीर के तौर पर पेश किया जा रहा है. खुद आठवीं कक्षा तक पढ़ीं वंदना ने सरपंच बनते ही सबसे पहले गांव में स्कूल खुलवा कर सदियों से अज्ञानता के अंधेरे में डूबी भावी पीढ़ी को रोशन भविष्य की राह दिखाई. हालांकि ये राह आसान नहीं थी. स्कूल खुलवाने के लिए उन्हें दकियानूसी पुरातनपंथी समाज से लेकर अलसाए सरकारी तंत्र तक से जूझना पड़ा. वह कहती हैं कि अशिक्षा का जो दर्द उन्हें झेलना पड़ा वह आने वाली पीढ़ी को नहीं झेलना पड़ेगा. पहले जहां गांव के मासूम बचपन को तालीम के लिए तीन किलोमीटर पैदल चल कर पास के गांव जाना पड़ता था अब बच्चे अपने ही गांव में कलम दवात से दो चार हो रहे है. वंदना अब स्कूल को 12 वीं कक्षा तक करने की मुहिम में जुट गयी हैं.

इसी तरह उन्होंने अपने गांव में पानी की सर्वकालिक समस्या से भी जंग जीत ली है. बीते तीन सालों में वंदना की रहनुमाई में गांव वालों ने बिना किसी सरकारी मदद के चार तालाब बना कर पानी के संकट से गांव को हमेशा के लिए बचा लिया. इसे उनकी दूरदर्शी सोच का सबूत ही माना जायेगा कि अब इन तालाबो को साल भर पानी से लबालब रखने के लिए वह इन चारों तालाबों को एक बड़े तालाब से जोड़ने की कोशिश कर रही हैं इसमें वह जरुर सरकारी मदद ले रही हैं. वह कहती हैं की जो काम खुद से हो सके उनके लिए सरकारी मदद का इंतजार करना ठीक नहीं है.

इसी तरह जनभागीदारी के बलबूते उन्होंने आसपास के इलाके से अब तक कटे रहे अपने गांव को शहर से जोड़ने के लिए तीन सड़कें भी बना लीं. तीन बच्चों की मां वंदना घर और गांव की जिम्मेदारी बखूबी निभा रही हैं. वह हर फैसला खुद करती हैं और जहां असमंजस हो वहां ग्राम सभा से राय मशविरे भी लेती हैं. वंदना के काम करने के इस तरीके ने और महज तीन साल की उपलब्धियों के सहारे वह अपनी पंचायत में शामिल तीन गांव सभा का भरोसा जीत चुकी हैं. खान खांडवी पंचायत में दो और गांव करपतया तथा गुराडिया भी शामिल है. इन दोनों गांव की ग्राम सभाओं ने वंदना को अपना नीति निर्धारक मान कर उनकी रहनुमाई में 2600 लोगों की जिंदगी सवारने की जिम्मेदारी सौप दी है.

काफी कम समय में सिस्टम को समझने और उसे कारगर तरीके से चलाने की काबिलियत से वंदना ने सबका ध्यान अपनी ओर खींचा है. उनकी काबिलियत को परखते हुए दिल्ली स्थित संयुक्त राष्ट्र के दक्षिण एशिया कार्यालय ने उन्हें वर्ल्ड कैलेंडर के लिए चुना है. झाबुआ में संयुक्त राष्ट्र की जिला परियोजना अधिकारी अंशुल सक्सेना ने बताया की वंदना की समझ और काम करने की लगन को देखते हुए ही उन्हें इस सम्मान के लिए चुना गया है. यह कैलेंडर महिला सशक्तिकरण की थीम पर आधारित है. इसमें भारत, बांग्लादेश, नेपाल, मालदीव और भूटान की अग्रणी महिलाओं को जगह दी जाती है जो समाज में निचले तबके के उत्थान के लिए सराहनीय काम कर रही है. वंदना की यह उपलब्धि उन तमाम महिलाओं के लिए प्रेरणा का स्रोत बनेगी जो नेतृत्व की काबिलियत तो रखती है लेकिन सामाजिक बंधनों की जंजीर से खुद को मुक्त कर पाने में अब भी खुद को लाचार पा रही हैं. एक पिछड़े राज्य के अति पिछड़े इलाके से चली बदलाव की यह बयार निश्चित रूप से सदियों से अंधेरे में पड़े देश दुनिया के अन्य इलाकों को अपने प्रभाव से सराबोर करेगी.

ब्लॉगः निर्मल यादव

संपादनः निखिल रंजन

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