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निजी क्षेत्र में आरक्षण का औचित्य

२४ मार्च २०१६

भारत में अब निजी क्षेत्र में भी आरक्षण की मांगें उठने लगी हैं. कुलदीप कुमार का कहना है कि नवउदारवादी नीतियों के चलते सरकारी क्षेत्र में रोजगार के सिकुड़ते अवसरों के कारण यह मांग अचित है.

Indien Demonstration von Studenten in Rohtak Haryana
तस्वीर: Imago

रामविलास पासवान पहले भी निजी क्षेत्र की कंपनियों में अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिए आरक्षण की मांग उठाते रहे हैं, लेकिन इस बार उन्होंने उसे नक्सलवाद की समस्या से जोड़ कर सबको चौंका दिया है. पासवान का कहना है कि इन दलित जातियों को निजी क्षेत्र में आरक्षण देने से नक्सलवाद की समस्या का समाधान हो सकता है. पासवान ने कहा है कि इन की जमीनें छीन ली जाती हैं. उनके गर्भ में छिपे सोने और कोयले का उत्खनन करके उन्हें निकाल लिया जाता है और इन लोगों को भगा दिया जाता है. मजबूर होकर ये लोग गलत राह अपनाते हैं. इसलिए इन्हें निजी क्षेत्र में भी आरक्षण दिया जाना चाहिए.

पासवान स्वयं दलित हैं लेकिन दलित वोटों के आधार पर चुनाव जीतने के अलावा उनके राजनीतिक जीवन में ऐसी कोई घटना दर्ज नहीं है जिससे पता चलता हो कि उन्होंने दलितों के उत्थान के लिए कुछ किया. वह दशकों से केंद्रीय मंत्रिमंडल में रहते आ रहे हैं लेकिन किसी भी सरकार से उन्होंने दलितों के पक्ष में कोई नीति नहीं बनवाई. यह विचित्र विडंबना है कि वह सरकार की उन नीतियों की आलोचना करने और उन्हें बदलने की मांग करने के बजाय जिनके कारण आर्थिक विकास के नाम पर ग्रामीणों और आदिवासियों को उनकी जमीनों से बेदखल किया जाता है, निजी क्षेत्र में आरक्षण की मांग कर रहे हैं. उनकी यह बात सही है की उत्पीड़न, दमन और प्राकृतिक संसाधनों के छिनने के कारण ही भोले-भाले आदिवासी और ग्रामीण हथियारबंद प्रतिरोध का रास्ता पकड़ते हैं और हिंसा के माध्यम से सामाजिक-राजनीतिक परिवर्तन करने की मुहिम में जुट जाते हैं, लेकिन क्या इसका समाधान सरकार की नीतियों में बदलाव में निहित है या आरक्षण के झुनझुने में?

रोहतक में जाटों का आंदोलनतस्वीर: Imago

इस प्रश्न का युक्तिसंगत जवाब यह होगा कि समाधान के लिए दोनों ही जरूरी है. जब तक केंद्र और राज्य सरकारें आर्थिक विकास के वर्तमान मॉडल के स्थान पर कोई अन्य वैकल्पिक मॉडल नहीं अपनातीं, जब तक ग्रामीण किसानों और आदिवासियों को उनकी जमीनों और रोजी-रोटी के जरिये से वंचित किया जाना जारी रहता है और जब तक प्रशासन-पुलिस का इस्तेमाल शोषित-उत्पीड़ितों को और अधिक दबाने के लिए किया जाता है, तब तक लोगों को हिंसा का रास्ता अपनाने से नहीं रोका जा सकता. इसके साथ ही यह भी सही है कि नव-उदारवादी आर्थिक नीतियों के कारण केंद्र और राज्य सरकारें सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रम बंद करती जा रही हैं. शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में भी निजीकरण को बढ़ावा दिया जा रहा है. दूसरे शब्दों में कहें तो सरकारी नौकरियां कम होती जा रही हैं और निजी क्षेत्र में बढ़ती जा रही हैं. ऐसे में दलितों और आदिवासियों को केवल सरकारी नौकरियों में आरक्षण देने का अर्थ है उनके रोजगार के अवसरों में वृद्धि के बजाय कटौती, और यह उनके साथ अन्याय है. इस स्थिति में उन्हें आरक्षण के कारण मिलने वाले लाभ में लगातार कमी आ रही है. इसलिए संतुलन बनाने के लिए सरकार को निजी क्षेत्र में आरक्षण की सुविधा देने के लिए आवश्यक कानून बनाने होंगे.

गुजरात में पटेल आंदोलन के नेता हार्दिकतस्वीर: Getty Images/AFP/S. Panthaky

यदि ये कानून बन भी गए, तो भी निजी क्षेत्र द्वारा उन पर अमल करवाना इतना आसान नहीं होगा. पिछले कई दशकों का इतिहास गवाह है कि पत्रकारों के वेतन और अन्य सुविधाओं को तय करने के लिए केंद्र सरकार द्वारा गठित आयोगों की सिफारिशें सरकार द्वारा मान लिए जाने के बाद भी अखबारों और टेलीविजन चैनलों के मालिक उन पर अमल नहीं करते. अक्सर देखा गया है कि नए आयोग की सिफ़ारिशें आने तक भी पिछले आयोग की सिफारिशें लागू नहीं हुईं. इसलिए निजी क्षेत्र की नौकरियों में दलितों और आदिवासियों के लिए आरक्षण की व्यवस्था करने के लिए बेहद मजबूत इच्छाशक्ति की जरूरत होगी. रामविलास पासवान केंद्र सरकार में मंत्री हैं. उन्हें चाहिए कि वह अपनी सरकार को इसके लिए तैयार करें. लेकिन उनके इस दावे पर भरोसा करना कठिन है कि निजी क्षेत्र में आरक्षण द्वारा नक्सलवाद की समस्या का समाधान निकल सकता है.

ब्लॉग: कुलदीप कुमार

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