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नियति बनती बाढ़, मूक दर्शक सरकार

प्रभाकर, कोलकाता२६ जुलाई २०१६

भारी बरसात के बाद उत्तरी भारत बाढ़ की चपेट में हैं. असम और अरुणाचल की हालत ज्यादा खराब है. लाखों लोग बाढ़ से प्रभावित हैं. फसल और संचार संपर्क को बहुत नुकसान पहुंचा है.

Indien Überschwemmung
तस्वीर: UNI

बाढ़ देश की नियति बनती जा रही है. हर साल झुलसाने वाली गर्मी के दौरान पूरे देश में मानसून और बरसात के लिए तमाम पूजा-पाठ और यज्ञ किए जाते हैं. मानसून आने पर केंद्र व राज्य सरकारें भी बाढ़ से निपटने के लिए तैयार होने का दावा करती है. लेकिन दरअसल होता कुछ नहीं. मानसून का पहला दौर ही सरकारी दावों की पोल खोलते हुए कई राज्यों को बाढ़ में डुबो देता है. उसके बाद सरकार नुकसान का आकलन करने और जख्मों को सहलाने में जुट जाती है.

बाढ़ का कहर

इस साल भी जिस मानसून का बेसब्री से इंतजार था उसने आते ही कहर ढा दिया है. उत्तराखंड से लेकर असम और अरुणाचल प्रदेश समेत विभिन्न राज्यों में मानसून के पहले झटके से ही कयामत आ गई है. इन राज्यों में बाढ़ के चलते अब तक लगभग दो सौ से ज्यादा लोगों की मौत हो चुकी है और लाखों की संपत्ति नष्ट हो गई है. दुनिया भर में मशहूर काजीरंगा नेशनल पार्क में पानी भरने की वजह से गैंडे समेत दूसरे जानवर पलायन के प्रयास में शिकारियों के हत्थे चढ़ने लगे हैं. उत्तराखंड में लगातार भारी बारिश के चलते राज्य की तमाम नदियों का जलस्तर खतरे के निशान को पार कर गया है. पहाड़ी मिट्टी के नरम होकर जगह छोड़ने के कारण कई मकान ढह गए और सड़कें टूट गई हैं. राज्य में बरसात के सीजन में जमीन धंसने से होने वाली मौतें और नुकसान आम है. तीन साल पहले केदारनाथ में हुई भारी तबाही के निशान अब तक धुंधले नहीं पड़े हैं. लेकिन लगता है सरकार ने उस भयावह हादसे से कोई सबक नहीं सीखा है.

तस्वीर: Reuters/R.De Chowdhuri

इस साल मानसून की पहली मार मध्यप्रदेश और उत्तराखंड को ही झेलनी पड़ी. उसके बाद अब असम और अरुणाचल प्रदेश भी इसकी चपेट में हैं. पश्चिम बंगाल के विभिन्न इलाकों में भी नदियों का जलस्तर खतरे के निशान के पास पहुंच गया है. खासकर उत्तर बंगाल के कई शहर तो पानी में डूब गए हैं. असम के 14 जिलों के कोई साढ़े छह लाख लोग बाढ़ की चपेट में हैं. कई जिलों में राहत व बचाव कार्यों में सेना की मदद ली जा रही है. अरुणाचल प्रदेश के पहाड़ी इलाकों में भी भारी बारिश के चलते बाढ़ की हालत पैदा हो गई है. असम की ज्यादातर नदियां अरुणाचल प्रदेश से ही निकलती है. वहां लगातार भारी बारिश की वजह से यह नदियां असम के मैदानी इलाकों में पहुंच कर कहर बरपाने लगती हैं. अपने एक सींग वाले गैंडों के लिए पूरी दुनिया में मशहूर काजीरंगा नेशनल पार्क भी बाढ़ की चपेट में हैं. ज्यादातर इलाके में पानी भर जाने की वजह से गैंडे समेत दूसरे जानवर जान बचाने के लिए सुरक्षित जगहों पर भाग रहे हैं. इस दौरान कभी वे पार्क के बीचोबीच गुजरने वाले हाइवे पर वाहनों की चपेट में आ जाते हैं तो कभी मौके की ताक में बैठे शिकारियों के हत्थे चढ़ जाते हैं.

हर साल बाढ़ लेकिन उपाय नहीं

देश के कुछ इलाके तो ऐसे हैं जहां हर साल बाढ़ आना लगभग तय होता है. यह बात राज्य सरकारें भी जानती हैं और केंद्र सरकार भी. कहने को तमाम राज्यों में आपदा प्रबंधन बल का गठन कर दिया गया है. लेकिन उसकी भूमिका बाढ़ से हुई तबाही के बाद शुरू होती है. अब तक किसी भी सरकार ने ऐसी किसी ठोस बाढ़ नियंत्रण योजना बनाने की पहल नहीं की है जिससे बाढ़ आने से पहले ही हर साल डूबने वाले इलाके से लोगों और जानवरों को निकाल कर सुरक्षित स्थानों तक पहुंचाया जा सके.

यह सही है कि फसलों को होने वाला नुकसान नहीं बचाया जा सकता. लेकिन कम से कम इंसानों और जानवरों की बेशकीमती जानें तो बचाई ही जा सकती हैं. देश के विभिन्न हिस्सों में बाढ़ से होने वाले जान-माल के सालाना नुकसान को न्यूनतम करने के लिए कोई कारगर बाढ़ नियंत्रण योजना नहीं बन सकी है. ऐसी कुछ योजनाएं कागजों पर जरूर बनीं लेकिन व्यावहारिक रूप से उनसे कोई फायदा नहीं होता. मिसाल के तौर पर वर्ष 1953 में एक राष्ट्रीय बाढ़ नियंत्रण कार्यक्रम शुरू किया गया था. इस पर अब तक अरबों रुपए खर्च करने के बावजूद अब तक नतीजा ढाक के तीन पात ही रहा है.

उपाय

बाढ़ नियंत्रण विशेषज्ञों का कहना है कि बाढ़ पर पूरी तरह नियंत्रण तो संभव नहीं है. लेकिन बाढ़ प्रबंधन के जरिए इससे होने वाले नुकसान को काफी हद तक कम जरूर किया जा सकता है. असम में बाढ़ नियंत्रण के विशेषज्ञ जतिन बरुआ कहते हैं, "सरकारों को एक एकीकृत योजना के तहत बाढ़ प्रभावित इलाकों में आधारभूत ढांचा को मजबूत करने पर जोर देना चाहिए. इसके तहत सड़कों, ब्रिज और तटबंधों पर खास ध्यान देना जरूरी है." विशेषज्ञों का कहना है कि आम तौर पर तटबंध टूटने से कई इलाकों में बाढ़ विनाशकारी साबित होती है. ऐसे में तटबंधों को चौड़ा और मजबूत बनाना जरूरी है. एक अन्य विशेषज्ञ नीरेन मंडल कहते हैं, "तेजी से घटते वन भी बाढ़ की विभीषिका बढ़ाने में सहायक होते हैं. सरकार को वन क्षेत्र बढ़ाने और पेड़ों की अंधाधुंध कटाई पर अंकुश लगाना चाहिए." वह कहते हैं कि खासकर अरुणाचल प्रदेश और उत्तराखंड जैसे राज्यों में तेजी से साफ होते जंगल और बड़े बांधों का निर्माण भी बाढ़ को भयावह बना रहा है. इसी वजह से वहां जमीन धंसने से होने वाला नुकासन भी साल दर साल बढ़ रहा है. पश्चिम बंगाल के पर्वतीय पर्यटन केंद्र दार्जिलिंग में भी इसी सप्ताह एक सात मंजिली इमारत गिरने से आठ लोगों की मौत हो गई.

पहाड़ी इलाको में तेजी से खड़े होते कंक्रीट के जंगल को नियंत्रित कर बाढ़ और भूस्खलन से होने वाला नुकसान काफी हद तक कम किया जा सकता है. विशेषज्ञों की मांग है कि भूस्खलन के प्रति संवेदनशील इलाकों में किसी स्थायी निर्माण की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए. इसके लिए जरूरत पड़ने पर मौजूदा कानूनों में संशोधन किया जाना चाहिए. अरुणाचल प्रदेश में बीते कुछ वर्षों के दौरान पनबिजली परियोजनाओं के लिए बड़े पैमाने पर बांधों की मंजूरी दी गई है. उसके बाद खासकर वहां और पड़ोसी असम में बाढ़ की विनाशलीला तेज हुई है. महज बिजली पाने के लिए बिना सोचे-समझे बांध बना कर लाखों लोगों के जान-माल को दांव पर लगाना कोई बुद्धिमानी नहीं है.

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