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नेटजनो को जोडूं

७ अक्टूबर २०१३

दूरदर्शन पर प्रसारित मंथन में पिछड़े देश मोरक्को और विकसित देश जर्मनी की 'अर्बन गार्डनिंग' से संबंधित दोनों रिपोर्ट बहुत ही आकर्षक, शिक्षाप्रद और हम जैसे गरीब किसानों के लिए प्रेरणादायक लगी.

+++CC/Peter Blanchard+++ 12.Mai 2012, geladen am 07.05.2013 http://www.flickr.com/photos/peterblanchard/7180721049/ Quelle: http://creativecommons.org/licenses/by/2.0/deed.de Corporate agriculture on the experimental farm, your tax dollars at work. Ironically, note the much greener field beyond the sprayed one. Maybe the dandelions know something we don't (they've been here 350 million years longer, and will probably out-survive our shenanigans). Nearby, the relatively tiny organic gardens remain unfunded and largely ignored by the government. Agriculture Canada has been called an "owned" department, implying that their decisions are directed, one way or another, by corporate interests, lobbying and disinformation. Controlling and selling monoculture and its related chemicals is highly profitable, and so gives industry a big voice. Whither public interest, healthy food and sustainability? Corporate agriculture: where squeaking out an extra percentage point of short-term profitability is valued above all other considerations, such as fossil fuel dependency, soil sustainability, disaster resiliency, biodiversity, small business, family farms, climate change, healthy rural communities, local food, seed saving. It's all about maximizing corporate profit through the centralization and control of food production. Food as a factory product. Nature in a box. I look forward to the day when Monsanto and the like need to hold bake sales to raise funds — while farmers and gardeners are thriving in an honest, democratic economy. Canada certainly isn't there yet.
तस्वीर: CC/Peter Blanchard

बाढ़,सूखे जैसे प्राकृतिक आपदा हमें भी झेलना पड़ती है. मोरक्को के किसानों के द्वारा की जा रही खेती के तरीके मुझे उपयोगी लगे. इसी प्रकार जर्मनी के शहरों में बागवानी के जरिये 10 देशों की अलग-अलग संस्कृति के लोगों को एक साथ जोड़ने का काम भी दिलचस्प और सार्थक लगा. अंत में तुर्क कला की खूबसूरती कुछ नमूनों ने मन मोह लिया, लेकिन आश्चर्य भी हुआ कि विज्ञान और पर्यावरण से संबंधित कार्यक्रम में कला और संस्कृति से जुड़ी जानकारी कैसे आ गई? आज मंथन कुछ समय पहले समाप्त कर दिया गया. एकाध रिपोर्ट और दिखलानी थी. जलवायु परिवर्तन के इस कठिन दौर में हम दर्शकों और पाठकों के लिए डीडब्ल्यू का लोकप्रिय टीवी शो 'मंथन' सिर्फ ज्ञान और प्रेरणा का स्रोत ही नहीं, उपयोगी भी बनता जा रहा है. कृपया 'मंथन' की सार्थकता और उपयोगिता बनायें रखें. इस कठिन दौर में जलवायु परिवर्तन को रोकने में सामान्य जनता की भूमिका और उनके काम धंधों एवं रहन-सहन के तौर तरीकों में सुधार लाने के बारे में भी जानकारी देते रहें.

चुन्नीलाल कैवर्त, जिला बिलासपुर, छत्तीसगढ़

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तस्वीर: DW

मैं डीडब्ल्यू हिन्दी रेडियो प्रसारण का प्रचार करने के लिए कार्यक्रम की सूची अपने खर्च से छ्पवाकर श्रोता मित्रों में बांटा करता था, आज फेसबुक पर वैसा ही कुछ कर रहा हूं. मेरा हमेशा से यही शौक रहा है कि डीडब्ल्यू की निशुल्क जानकारी सभी लोगों तक पहुंचे. 1991 मई माह का वह दिन मुझे याद है जब मैं अपने पिता जी से पैसा मांगकर पोस्ट कार्ड खरीदा था और उस पर जीवन का पहला पत्र डीडब्ल्यू हिन्दी को लिखा था. उस समय मैं अकेला था लेकिन आज मेरे साथ बहुत दोस्त हो चुके है. हमेशा किसी न किसी का फोन आता है. डीडब्ल्यू से जुड़ी बातें बताता हूं तो बहुत अच्छा लगता है. मुझे उमीद है यह सिलसिला कभी बन्द होने वाला नहीं है. आज कल मेरा प्रयास यही है कि नेटजनो को जोडें. मै तो नेट के जरिए आपसे जुडा साथ ही आज बहुत अधिक श्रोता मित्रों को भी साथ ले लिया और सभी बहुत खुश हैं. उसमें से बहुत ने प्रश्नोलोजी में भाग लेकर इनाम भी पाया है. आज भी डीडब्ल्यू हिन्दी फेसबुक पर जोडने का काम जोरों पर है.

मोहम्मद असलम,आलमी रेडियो लिस्नर्स क्लब, अमिलो, आज़मगढ, उत्तर प्रदेश

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मंथन में स्क्रूजर की सवारी - ज्ञान-विज्ञान से जुड़ा डॉयचे वेले का साप्ताहिक कार्यक्रम मंथन जो दूरदर्शन के सहयोग से प्रस्तुत किया जाता है, बेजोड़ होता है. यद्यपि इसे दूरदर्शन पर देख पाना मेरे लिए संभव नहीं हो पाता है क्योंकि उस दिन भी हमारे कार्यालय खुले रहते हैं लेकिन मौका मिलने पर यूट्यूब पर इस शानदार प्रोग्राम को देखे बिना नहीं रहता. सचमुच लाजवाब प्रस्तुति रहती है. पिछले दिनों प्रस्तुत इंटरनेट सिक्योरिटी पर अनवर जमाल और महेश झा की गुफ्तगूं ने ज्ञान बढ़ाया तो दूसरी ओर विज्ञापनों में रोबोट के इस्तेमाल की जानकारी ने भौंचक्का कर दिया. इस कार्यक्रम की प्रस्तुति इतनी उम्दा है कि गूढ़ विषय में भी रोचकता और दिलचस्पी बढ़ जाती है. मेरा एक सुझाव है कृपया मंथन का 'एंड्रॉइड एप' बनाएं ताकि इस बेहतरीन प्रोग्राम को स्मार्टफोन के जरिए अपनी सुविधानुसार आसानी से सुना व देखा जा सके. यूट्यूब पर प्रोग्राम की भीड़ से अपने मनचाहे एपिसोड का छांटने और देखने की अपेक्षा थोड़ी आसानी हो जाएगी.

तस्वीर: Reuters

रवि श्रीवास्तव, इण्टरनेशनल फ्रेण्डस क्लब, इलाहाबाद

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मंथन प्रोग्राम लोकप्रियता के शिखर पर पहुंच गया है. मंथन प्रोग्राम मुझे बहुत ही अच्छा लगता है. निखिलजी की आवाज़ में रिपोर्ट प्रस्तुति बहुत ही बढ़िया है. पूरी टीम इस प्रोग्राम के जरिये हमें नई जानकारियों से जोडती है इसके लिए मैं शुक्रगुजार हूं. आपके दर्शकों को जर्मनी तथा विज्ञान, पर्यावरण और तकनीक पर दुनिया में नई नई खोजों पर जानकारियां बहुत ही पसंद आ रही है. आपकी मंथन क्विज ने तो फेसबुक यूजरों का जोश कई गुना बढ़ा दिया, जिससे DW हिन्दी का परिवार 1 लाख से ऊपर पंहुच गया. मुझे आपके पुराने श्रोताओ से बात करने एवं उनकी प्रतिक्रिया जानने का अवसर भी मिला. मंथन प्रोग्राम का समय रविवार को सुबह या रात में हो तो इसे लाइक करने वाले दर्शक बढ़ेगे. पर कोई बात नहीं है हम तो आपके फैन बन गए है इसे किसी न किसी तरह देख ही लेते है.

मनोज कुमार यादव, मुबारकपुर, आजमगढ़ , उत्तर प्रदेश

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'खुद की खोज में भारत' शृंखला में चित्र दीर्घा और उपयोगी रिपोर्टें पढ़ने को मिल रही है. अपने आपकी खोज में लगे भारत की विहंगम तस्वीर अभी धुंधली-सी ही है. बरसों पहले आजादी के बाद देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने भी 'डिस्कवरी ऑफ इंडिया' के जरिए अपना विजन रख उसी दिशा में कदम बढ़ाने का असफल प्रयास किया था. केवल स्वप्नदृष्टा बन आसमान पर नजर रखने के चक्कर में सतही स्तर पर डगमगा गए. परिणाम यह हुआ कि आज आजादी के इतने बरसों बाद भी भारत अपनी ही खोज-तलाश में जुटा हुआ है. उम्मीद है कि 2014 के आम चुनाव भारत के इतिहास में मील का पत्थर साबित होंगे. इसकी झलक इन दिनों दिखाई भी देने लगी है. सचमुच अब भारत करवट बदल रहा है. समय आ गया है कि अब भारत अंतरराष्ट्रीय बिरदारी में अपने आपको मजबूती के साथ स्थापित करे. अभी नहीं तो फिर कभी नहीं.

माधव शर्मा, एसएनके स्कूल, राजकोट, गुजरात

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संकलनः विनोद चड्ढा

संपादनः आभा मोंढे

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