ट्रंप, पुतिन, एर्दोवान, ओरबान - ये सभी ऐसे "प्रभावशाली नेता" हैं जो अपने देशों के आर्थिक प्रभुत्व का दावा करते हैं. लेकिन सच्चाई यह है कि इनके देशों की अर्थव्यवस्था पतन के रास्ते पर हैं.
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दुनिया के सभी तथाकथित प्रभावशाली नेता अपनी राजनीति को एक ही तरह से पेश करते हैं: वे जनता की मर्जी को स्वीकारते हैं और खुद की तरक्की के लिए काम करने वाले एलिट के खिलाफ हैं. अपनी इसी खासियत के चलते वे चुनाव जीतने में सफल रहे हैं.
तुर्की के राष्ट्रपति रेचेप तैयप एर्दोवान इस रणनीति को आजमाने वाले पहले नेता थे. वे खुद को "काला तुर्क" बताते थे. जनता के लिए काम करने वाला एक ऐसा व्यक्ति जो उन्हें गोरे तुर्कों से बचाएगा. यहां "गोरे तुर्क" से उनका मतलब देश के सेक्यूलर एलिट से था. आज 15 सालों बाद एर्दोवान उसी को "सच्चा तुर्क" मानते हैं जो उन्हीं के जैसी सोच रखता हो. इस बीच एर्दोवान ने अपने फायदे के लिए देश के संविधान में बदलाव किए हैं, प्रेस की स्वतंत्रता को लगभग खत्म कर दिया है और शैक्षणिक स्वतंत्रता पर भी नियंत्रित किया है. इतना ही नहीं, उन्होंने जनता के एक बड़े हिस्से में धार्मिक भावनाओं काल सरल तरीके से प्रचार भी किया है. वे यह भी बताते हैं कि एक तुर्क महिला को कितने बच्चे पैदा करने चाहिए और यह भी कि कैसे समलैंगिक होना गैरइस्लामी है. शुरुआत में इसे आम जनता के लिए राजनीति को आसान बनाने के कदमों के रूप में देखा जाता था लेकिन अब बात इतनी है कि एर्दोवान जो ठीक समझते हैं, बस वही ठीक है.
अर्थव्यवस्था को नुकसान
एर्दोवान जैसे नेता हमेशा दावा करते हैं कि वे देश की अर्थव्यवस्था को पुनर्जीवित कर देंगे और दुनिया में उनके देश का दबदबा होगा. लेकिन असल में वे करते इसका ठीक उलटा हैं. मिसाल के तौर पर तुर्की में एर्दोवान के दामाद केंद्रीय बैंक का अध्यक्ष हैं. ऐसे में अगर कभी कोई सवाल उठे भी तो आर्थिक मामलों पर आप किसी को घेर ही नहीं सकते. ठीक ऐसा ही हंगरी में भी देखा जा सकता है और रूस में भी. वैसे यह पतन चीन में भी शुरू हो गया है. वहां राष्ट्रपति शी जिनपिंग अपनी विचारधारा थोप रहे हैं. अगर वहां केंद्रीय बैंक ऐसी कंपनियों को लगातार कर्ज देते रहेंगे जिनमें सरकार की हिस्सेदारी है, तो चूक की बड़ी संभावना है.
ये प्रभावशाली नेता हमेशा ही दावा करते हैं कि उनकी राय असल में जनता की राय है. नेतागिरी का इनका तरीका हमेशा जनता की स्वतंत्रता पर भारी पड़ता है, खास कर आर्थिक स्वतंत्रता पर. अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन के प्रशंसक रहे हैं. अपने रिश्तेदारों को व्हाइट हाउस में नौकरियां दिलवाने पर ट्रंप को कभी जरा भी संकोच नहीं रहा. अपने चुनाव प्रचार के दौरान भी ट्रंप ने पुतिन और एर्दोवान के स्टाइल में भाषण दिए और साफ तौर पर इनका उन्हें फायदा भी हुआ.
अमेरिका आज भी एक लोकतंत्र है. लेकिन रूस, चीन, तुर्की और हंगरी में तो हालात अलग हैं. ऐसे देशों में आप इस दावे को खारिज कर सकते हैं कि यहां प्रभावशाली नेता अच्छा प्रदर्शन कर रहे हैं. ये सभी देश आर्थिक मोर्चे पर पतन की राह पर हैं. क्योंकि जब लोकतंत्र का पतन होता है, तब अर्थव्यवस्था भी टिकी नहीं रह सकती.
ब्लॉग: एलेक्जैंडर गोएरलाख/आईबी
एलेक्जैंडर गोएरलाख केम्ब्रिज यूनिवर्सिटी के इंस्टीट्यूट ऑन रिलिजन एंड इंटरनेशनल स्टडीज में सीनियर रिसर्च एसोसिएट हैं.
एक नजर रेचेप तैयप एर्दोवान की ताकतों पर
और ताकतवर हुए तुर्की के एर्दोवान, मिली ये शक्तियां
तुर्की में रेचेप तैयप एर्दोवान फिर पांच साल के लिए राष्ट्रपति बन गए हैं. तुर्की में पहली बार राष्ट्रपति शासन प्रणाली लागू की गई है जिसमें एर्दोवान के पास पहले से कहीं ज्यादा शक्तियां होंगी. एक नजर उनकी ताकतों पर:
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पीएम पद खत्म
तुर्की में प्रधानमंत्री पद खत्म कर दिया गया है. राष्ट्रपति ही अब कैबिनेट की नियुक्ति करेगा. साथ ही उसके पास उपराष्ट्रपति नियुक्त करने का अधिकार होगा. कितने उपराष्ट्रपति नियुक्त करने हैं, यह राष्ट्रपति को तय करना है.
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नहीं चाहिए संसद की मंजूरी
मंत्रालयों के गठन और नियमन के लिए राष्ट्रपति अध्यादेश जारी करने में सक्षम होंगे. साथ ही नौकरशाहों की नियुक्ति और उन्हें हटाने का फैसला भी राष्ट्रपति करेंगे. इसके लिए उन्हें संसद से मंजूरी लेने की जरूरत नहीं होगी.
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अध्यादेश की सीमाएं
राष्ट्रपति के ये अध्यादेश मानवाधिकार या बुनियादी स्वतंत्रताओं और मौजूदा कानूनों को खत्म करने पर लागू नहीं होंगे. अगर राष्ट्रपति के अध्यादेश कानूनों में हस्तक्षेप करते हैं तो इस स्थिति में अदालतें फैसला करेंगी.
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आलोचकों की चिंता
आलोचकों का कहना है कि कानूनी संहिता में स्पष्टता की कमी है. साथ ही देश की न्यायपालिका में निष्पक्षता की कमी झलकती है. ऐसे में, इस बात की उम्मीद नहीं है कि अदालतें स्वतंत्र हो कर फैसले दे पाएंगी.
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तो अमान्य होंगे अध्यादेश
राष्ट्रपति को कार्यकारी मामलों पर अपने अध्यादेशों के लिए संसद से मंजूरी लेने की जरूरत नहीं है. लेकिन अगर संसद ने भी उसी मुद्दे पर कोई कानून पारित कर दिया तो राष्ट्रपति का अध्यादेश फिर अमान्य हो जाएगा.
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इमरजेंसी
राष्ट्रपति देश में छह महीने तक इमरजेंसी लगा सकते हैं और इसके लिए उन्हें कैबिनेट से मंजूरी हासिल नहीं करनी होगी. इमरजेंसी के दौरान राष्ट्रपति के अध्यादेश मौलिक अधिकारों और स्वतंत्रताओं पर भी लागू होंगे.
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इमरजेंसी में संसद अहम
इरमजेंसी के दौरान जारी होने वाले राष्ट्रपति के अध्यादेशों पर तीन महीने के भीतर संसद की मंजूरी लेना जरूरी होगी. संसद की मंजूरी के बिना अध्यादेशों की वैधता नहीं होगी.
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संसद का अधिकार
राष्ट्रपति छह महीने की इमरजेंसी तो लगा सकते हैं, लेकिन इस फैसले को उसी दिन संसद के पास भेजा जाएगा. संसद के पास इमरजेंसी की अवधि कम करने, उसे बढ़ाने या फिर इस फैसले को ही रद्द करने का अधिकार होगा.
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बजट
तुर्की में नए सिस्टम के तहत राष्ट्रपति को ही बजट का मसौदा तैयार करना है. अब तक यह जिम्मेदारी संसद के पास थी. अगर संसद राष्ट्रपति की तरफ से प्रस्तावित बजट को नामंजूर करती, तो फिर पिछले साल के बजट को ही "पुनर्मूल्यन दर" के हिसाब से बढ़ाकर लागू कर दिया जाएगा.
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राष्ट्रपति का शिकंजा
सरकारी और निजी संस्थाओं पर नजर रखने वाली संस्था स्टेट सुपरवाइजरी बोर्ड को प्रशासनिक जांच शुरू करने का अधिकार होगा. यह बोर्ड राष्ट्रपति के अधीन है. ऐसे में, सैन्य बलों समेत बहुत सारे समूह सीधे तौर पर राष्ट्रपति के अधीन होंगे.
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सांसद नहीं बनेंगे मंत्री
संसद की सीटों को 550 से बढ़ाकर 600 किया जाएगा. चुनाव लड़ने के लिए न्यूनतम उम्र अब 25 से घटाकर 18 साल कर दी गई है. कोई भी सांसद मंत्री नहीं बन पाएगा. यानी अगर किसी व्यक्ति को मंत्री बनना है तो उसे पहले अपनी संसदीय सीट छोड़नी होगी.
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समय से पहले चुनाव
राष्ट्रपति के पास संसद को भंग करने का अधिकार भी होगा. लेकिन अगर यह कदम उठाया जाता है तो इससे नई संसद के लिए चुनावों के साथ साथ राष्ट्रपति चुनाव भी निर्धारित समय से पहले कराने होंगे.
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दो कार्यकाल की सीमा
राष्ट्रपति अधिकतम पांच पांच साल के दो कार्यकाल तक पद पर रह सकता है. अगर संसद राष्ट्रपति के दूसरे कार्यकाल में समय से पहले चुनाव कराने का फैसला करती है, तो मौजूदा राष्ट्रपति को अगले चुनाव में खड़े होने का अधिकार होगा.
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संसद का ताना बाना
संसद अपना स्पीकर खुद चुनेगी. इसका मतलब है कि अगर संसद में विपक्ष का बहुमत होगा तो वहां बनने वाले कानूनों में उनके नजरिए की झलक होगी. हालांकि फिलहाल संसद में भी एर्दोवान और उनके सहयोगियों का बहुमत है.