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नेपाल में बढ़ता बायोगैस का चलन

१७ नवम्बर २०११

नेपाल में एक शांत क्रांति हो रही है. लोग धीरे धीरे लकड़ी को जलाने की बजाए ग्रीन और साफ सुथरे ईंधन की ओर बढ़ रहे हैं. बायोगैस उनके घर का अभिन्न हिस्सा बनता जा रहा है. हालांकि अभी यह गरीब परिवारों के लिए एक महंगा सपना है.

नेपाल के घने जंगल में लकड़ियों की तलाश एक थका देने वाला काम है. हवा में नमी है और तापमान 35 डिग्री सेल्सियस. इस गर्मी में लकड़ियां चुनने का काम आसान नहीं है. और इसमें कई घंटे लगते हैं. साल भर खाना बनाने के लिए कम से कम साढ़े चार टन लकड़ी लगती है. लकड़ियां चुनने वाली मुन्नी माया तमांग बताती हैं, "जंगल में लकड़ियां चुनना आसान नहीं क्योंकि इसके लिए खास परमिशन लेनी होती है.. अगर आप बिना परमिशन के लकड़ियां चुनते पकड़े गए तो जुर्माना होता है. और वे दफ्तर ले जाते हैं. यहां जंगली जानवर भी हैं. जैसे गेंडे और बाघ. इसलिए जंगल में बहुत सावधान रहना पड़ता है."

दिन भर गर्मी में तपने के बाद 39 साल की तमांग अपने गांव बदेरनी लौटती हैं. उनके पास जमीन का एक छोटा सा टुकड़ा है जिस पर धान उगाया जाता है. परिवार में पांच बच्चों को मिला कर कुल दस लोग हैं. ये पत्तियां चार भैंसों को खिलाई जाएंगी. उनकी छोटी सी झोंपड़ी में सिर्फ एक कमरा है और टॉयलेट भी नहीं है. मुन्नी घर के भीतर बने चूल्हे पर खाना पकाती हैं, जो खाना बनाते समय धुएं से भर जाता है. "यहां बहुत धुआं होता है जो सेहत के लिए अच्छा नहीं है. इससे आंख को नुकसान होता है. आंख में दवा डालनी पड़ती है."

तस्वीर: DW-TV

बिलकुल अलग

कुछ ही दूरी पर कुमाल परिवार रहता है. ये भी अपने खेत के चावल और सब्जियों पर निर्भर हैं. लेकिन इनके हालात अलग हैं. इनके घर में टॉयलेट है. तीन साल से बायोगैस प्लांट भी है. टॉयलेट की गंदगी बायोगैस प्लांट में चली जाती है. भैंस का गोबर भी वहां जमा होने के बाद इसमें पानी मिलाया जाता है. इस मिलावट को जमीन के नीचे 6 क्यूबिक मीटर के आकार वाले गड्ढे में डाला जाता है. फायदा यह है कि कुमाल परिवार को खाना पकाने के लिए अब लकड़ियों की जरूरत नहीं है. और यह पर्यावरण के लिए भी अच्छा है.

तस्वीर: DW/Wolfgang Bernert

बायोगैस प्रोजेक्ट

कुमाल परिवार नेपाल में प्राकृतिक विश्व वन्य जीव कोष के बायोगैस प्रोजेक्ट में शामिल है. चूंकि खाना पकाने के लिए लकड़ी की जरूरत नहीं पड़ती, इसलिए एक बायोगैस प्लांट एक साल में 4 टन कार्बन डाइ ऑक्साइड के उत्सर्जन को रोक सकता है. घरेलू बायोगैस प्लांट से पूरे परिवार का खाना बनाने लायक गैस मिल जाती है. यह गैस साफ है. इसीलिए परिवार को धुआं फांकने की जरूरत नहीं. तीन साल पहले बायोगैस प्लांट पर करीब तेरह हजार रुपये का खर्चा आता था. नेपाल की सरकार ने सब्सिडी दी. लेकिन फिर भी इस परिवार को लोन लेना पड़ा. वैसे कुमाल परिवार ने अपना लोन चुका दिया है. बायोगैस के कई फायदों में से एक यह भी है कि बायोगैस बनने के बाद जो कुछ बचता है, उसे जैविक खाद की तरह इस्तेमाल किया जा सकता है. डोल मन कुमाल इसे अपने मिर्च के पौधों में डालते हैं.

तस्वीर: DW/Wolfgang Bernert

गरीब देश

नेपाल दुनिया के सबसे गरीब देशों में है. इसकी आबादी लगभग तीन करोड़ है. आधी आबादी देश के निचले इलाकों में रहती है. उनके साथ ही भैंसें और दूसरे जानवर भी रहते हैं. ऐसे में पर्यावरण के माफिक परियोजनाओं के लिए यहां काफी संभावनाएं हैं. सरकार नेपाल में बीस लाख बायोगैस प्लांट लगाना चाहती है. घोगरेला गांव में अब 15 परिवारों के पास बायोगैस प्लांट है. इन परिवारों को बायोगैस के इस्तेमाल के बारे में बताया जा रहा है. खास कर कोई एसिड या प्लास्टिक गैस प्लांट में नहीं डालना है. उधर बदरेनी में मुन्नी माया तमांग कहती हैं कि वह बायोगैस प्लांट नहीं लगवा सकतीं, क्योंकि अब इसका खर्च और बढ़ गया है. और उनका कहना है कि लोन लिया तो उसे भी नहीं चुका पाएंगी..

ऐसे परिवारों की संख्या बढ़ रही है जो बायोगैस प्लांट लगवा सकते हैं. इस इलाके में ही लगभग छह हजार परिवार हैं. जल्द ही विश्व वन्य जीव कोष अपना प्रोजेक्ट बढ़ाने वाली है.

रिपोर्टः आभा मोंढे

संपादनः ईशा भाटिया

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