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नैतिकता में अटका भारतीय टीवी

३ जनवरी २०१२

भारत में अगर एक तरफ सास बहू के झगड़ों वाले टीवी प्रोग्राम टीआरपी में सबसे ऊपर रहते हैं तो बिग बॉस जैसे रीयालिटी शो भी उनसे पीछे नहीं. अंग्रेजी कार्यक्रम भी दिखाए जा रहे हैं लेकिन कैंची चलने के बाद.

भारतीय टेलीविजन भारत और इंडिया का फर्क खूब समझता है. एक तरफ बालिका वधु और न आना इस देस लाडो जैसे सीरियल बनते हैं तो साथ ही शहरी युवा का भी ध्यान रखा जाता है. एमटीवी रोडीज और स्प्लिट्स विला जैसे कार्यक्रमों की दूसरे प्रोग्रामों से तुलना नहीं की जा सकती. चैनलों की कोशिश है की एक संतुलन बनाया जा सके जिससे छोटे और बड़े शहरों के लोगों पर बराबरी से ध्यान दिया जा सके. इसी को ध्यान में रखते हुए कई अंग्रेजी कार्यक्रम भी शुरू किए गए हैं. नब्बे के दशक के मशहूर फ्रेंड्स से लेकर आज के जमाने के हाऊ आई मेट योर मदर तक कई अमेरिकी धारावाहिक दिखाए जा रहे हैं. लेकिन भारत में इन्हें दिखाना इतना भी आसान नहीं. किसी भी तरह की सेंसरशिप से बचने के लिए चैनल खुद ही इन्हें सेंसर करने में लगे हैं.

तस्वीर: UNI

चैनल इस बात को खुद तय कर रहे हैं की किन दृश्यों पर दर्शक आपत्ति जता सकते हैं. इन दृश्यों को हटा कर टीवी पर दिखाया जाता है. इस कारण कई बार कहानी समझना ही मुश्किल हो जाता है. सेक्स और ड्रग्स वाले हिस्से को कार्यक्रम से पूरी तरह हटा दिया जाता है. चैनल जानते हैं की भले ही हिंदी फिल्मों में बोल्ड दृश्यों का दिखना आम सी बात हो गई है लेकिन टीवी अभी भी इन से अछूता है. इसलिए वे यहां सावधानी बरतना चाहते हैं.

कई कार्यक्रमों में सबटाइटल्स के साथ छेड़छाड़ भी की जाती है. आपत्तिजनक शब्दों की जगह अन्य शब्द लिख दिए जाते हैं या फिर उन्हें खाली छोड़ दिया जाता है. इस कारण भी कई बार कहानी समझने में दिक्कत होती है. जैसे की धारावाहिक फ्रेंड्स में जब जेनिफर एनिस्टन केक बनाते वक्त उसमें फल की जगह गलती से गाय का मांस डाल देती हैं तो सबटाइटल्स में से बीफ शब्द को हटा दिया जाता है. चैनल वालों को इस बात का डर था कि यह शब्द पढने से हिंदुओं की भावनाओं को ठेस पहुंच सकती है.

तस्वीर: AP

टीवी समीक्षक शैलजा वाजपेयी का कहना है, "भारत में यह मीडिया के लिए बहुत नाजुक वक्त है. कई चैनलों को इस बात का डर सताता है कि सरकार उन पर रोक न लगा दे, लेकिन साथ ही दर्शकों को लुभाने के लिए नए तरह के कार्यक्रमों की भी जरूरत है."

वहीं युवा इस बात से खुश हैं कि उन्हें टीवी पर अमेरिकी कार्यक्रम देखने को मिल रहे हैं भले ही उन पर काफी कैंची चल चुकी हो. 22 साल के स्टूडेंट अभिनव मोहन का कहना है, "मैंने बचपन में अपने परिवार के साथ जो प्रोग्राम देखे, मैं अब उन्हें और नहीं देखना चाहता. मुझे मनोरंजन चाहिए और हिंदी टेलीविजन में ऐसा बहुत ही कम है. भले ही उन्हें बहुत सेंसर किया जाता है लेकिन मैं फिर भी उन्हें समझ लेता हूं."

रिपोर्ट: एपी/ईशा भाटिया

सम्पादन: ए जमाल

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