आर्यन खान 18 दिनों से जेल में बंद हैं और उनके अलावा तीन लाख से भी ज्यादा ऐसे कैदी भारतीय जेलों में सालों से बंद हैं, जिनका आज तक जुर्म साबित भी नहीं हुआ. भारतीय न्याय व्यवस्था आधारभूत सुधारों के लिए तरस रही है.
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भारत में हम अक्सर अखबारों के पहले पन्ने और टीवी के चीखते फॉन्ट वाली खबरों में सिमटे रह जाते हैं. इनके चक्कर में वो खबरें हमारे ध्यान से ओझल ही रह जाती हैं जो बीच के पन्नों में हैं. टीवी तक तो ये खबरें पहुंच ही नहीं पातीं. लेकिन आज दो अलग अलग खबरों ने इस फासले को मिटा दिया है.
स्पॉटलाइट को हड़प लेने वाली खबर और टॉर्च लाइट से ढूंढ कर निकाली जाने वाली खबर दोनों एक ही समस्या का नतीजा हैं. 18 दिनों से बिना जुर्म साबित हुए जेल में बंद आर्यन खान की जमानत याचिका पर आज फिर सुनवाई होनी है, ये खबर तो आपको बिना ढूंढे ही मिल गई होगी, लेकिन छोटे अक्षरों में और कम लाइनों में छपी एक खबर और थी.
एक हिमशैल की नोक
तीन साल से बिना अपराध साबित हुए जेल में बंद गौतम नवलखा को अब जेल के ऐसे इलाके में डाल दिया गया है जहां उन्हें 16 घंटे तो एक कोठरी में ही रहना पड़ता है और बाकी के आठ घंटों में भी वो बस एक गलियारे में टहल भर सकते हैं. बॉलीवुड प्रेमियों के लिए आर्यन खान हेडलाइन हैं और एक्टिविस्टों के लिए गौतम नवलखा.
लेकिन ये दोनों सुर्खियां दरअसल एक ऐसे हिमशैल की सिर्फ नोक मात्र के बराबर हैं जिनके नीचे एक पहाड़ जैसी समस्या छुपी हुई है. वो समस्या है भारत में जांच एजेंसियों और कुल मिला कर पूरी न्याय व्यवस्था की आजादी के अधिकार के प्रति उदासीनता.
आर्यन और गौतम के मामले अपवाद नहीं हैं. भारत की जेलों में इस समय जितने कैदी बंद हैं उनमें से 70 प्रतिशत ऐसे ही हैं जिनका अभी तक दोष साबित नहीं हो पाया है. तीन लाख से भी ज्यादा ऐसे कैदियों में 74.08 प्रतिशत यानी करीब 2.44 लाख कैदी एक साल से जेल में बंद हैं.
जमानत ही नियम
इनके अलावा 13.35 प्रतिशत यानि करीब 44,000 कैदी एक साल से ज्यादा से, 6.79 प्रतिशत यानी करीब 22,000 कैदी दो साल से ज्यादा से, 4.25 प्रतिशत यानी करीब 14,000 कैदी तीन साल से ज्यादा से और 1.52 प्रतिशत यानी करीब 5,000 कैदी पांच साल से भी ज्यादा से जेल में बंद हैं.
और यह संख्या हर साल बढ़ती ही जा रही है. विडंबना यह है कि सुप्रीम कोर्ट तक कई बार कह चुका है कि जमानत ही नियम होना चाहिए और जेल अपवाद. अनुच्छेद 21 के तहत भारत का संविधान तक बिना किसी लाग-लपेट के कहता है कि निजी स्वतंत्रता हर नागरिक का मौलिक अधिकार है.
फिर कैसे हमने ऐसा तंत्र खड़ा कर दिया है जो व्यक्ति का अपराध सिद्ध किए बिना उसे सलाखों के पीछे भेजने से जरा भी नहीं हिचकिचाता? ना हमारी जांच एजेंसियां पेशेवर तरीके से पुख्ता सबूत जुटाकर अपराध ही साबित कर पाती हैं, ना हमारी अदालतें पेशेवर जांच और पुख्ता सबूत के अभाव में व्यक्ति को जेल में ना भेजने का फैसला देने की हिम्मत कर पाती हैं.
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ब्लैकस्टोन का अनुपात
17वीं शताब्दी में इंग्लैंड के कानूनविद विलियम ब्लैकस्टोन ने एक विचार दिया था जो बाद में लगभग पूरी दुनिया में आधुनिक न्याय व्यवस्था के लिए एक पथ-प्रदर्शक बन गया. उन्होंने कहा था, "एक भी मासूम को कष्ट नहीं होना चाहिए, भले ही 10 अपराधी बच कर क्यों ना निकल जाएं." सोच कर देखिए हम इस अवधारणा से कितनी दूर आ गए हैं.
छोटी मोटी चोरी से लेकर ड्रग्स और आतंकवाद तक के मामलों में लोगों पर आरोप लगाए जाते हैं और फिर जुर्म साबित होने से पहले उन्हें जेल में डाल दिया जाता है. कई मामले ऐसे हैं जिनमें सालों बाद भी उन लोगों के अपराध साबित नहीं हो पाए और उनके जीवन के कई अमूल्य साल छीन लेने के बाद उन्हें बरी कर दिया गया.
ऐसे कई लोगों ने बरी होने के बाद यह पूछा है कि बताइए अब इस विच्छिन्न आजादी का मैं क्या करूं? ऐसे लोगों के जिन लम्हों, सपनों, खुशियों, जिम्मेदारियों आदि को छीन लिया गया उन्हें वापस लौटाना असंभव है. अक्सर ऐसे मामलों में दोषी अधिकारियों को सजा भी नहीं होती, जिसकी वजह से हमारा तंत्र ऐसी गलती दोहराने से झिझकता भी नहीं है.
नतीजा यह कि गिरफ्तारी, जेल और अन्याय का यह सिलसिला अनवरत चलता रहता है. आखिर कब और कैसे बदलेगी हमारी व्यवस्था?
बढ़ती जा रही है जेलों में विचाराधीन कैदियों की संख्या
एनसीआरबी के ताजा आंकड़े दिखाते हैं कि देश की जेलों में ऐसे कैदियों की संख्या हर साल बढ़ती जा रही है जिनके खिलाफ आरोपों पर सुनवाई अभी चल ही रही है. जानिए और क्या बताते हैं ताजा आंकड़े.
तस्वीर: UNI
कितनी जेलें
2019 में देश में कुल 1,350 जेलें थीं, जिनमें सबसे ज्यादा (144) राजस्थान में थीं. दिल्ली में सबसे ज्यादा (14) केंद्रीय जेलें हैं. कम से कम छह राज्यों/केंद्र शासित प्रदेशों में एक भी केंद्रीय जेल नहीं है.
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जेलों में भीड़
इतनी जेलें भी बंदियों की बढ़ती संख्या के लिए काफी नहीं हैं. ऑक्यूपेंसी दर 2018 में 117.6 प्रतिशत से बढ़ कर 2019 में 118.5 प्रतिशत हो गई. सबसे ज्यादा ऊंची दर जिला जेलों (129.7 प्रतिशत) है. राज्यों में सबसे ऊंची दर दिल्ली में है (174.9 प्रतिशत).
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महिला जेलों का अभाव
'पूरे देश में सिर्फ 31 महिला जेलें हैं और वो भी सिर्फ 15 राज्यों/केंद्रीय शासित प्रदेशों में हैं. देश की सभी जेलों में कुल 4,78,600 कैदी हैं, जिनमें 19,913 महिलाएं हैं.
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कर्मचारियों का भी अभाव
2019 में जेल स्टाफ की स्वीकृत संख्या थी 87,599 लेकिन वास्तविक संख्या थी सिर्फ 60,787. सबसे बड़ा अभाव प्रोबेशन अधिकारी, कल्याण अधिकारी, मनोवैज्ञानिक, मनोचिकित्सक आदि जैसे सुधार कर्मियों का था.
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कैदियों पर खर्च
2019 में देश में कैदियों पर कुल 2060.96 करोड़ रुपए खर्च किए गए, जो कि जेलों के कुल खर्च का 34.59 प्रतिशत था. इसमें से 47.9 प्रतिशत (986.18 करोड़ रुपए) भोजन पर खर्च किए गए, 4.3 प्रतिशत (89.48 करोड़ रुपए) चिकित्सा संबंधी खर्च पर, 1.0 प्रतिशत (20.27 करोड़ रुपए) कल्याणकारी गतिविधियों पर, 1.1 प्रतिशत (22.56 करोड़ रुपए) कपड़ों पर और 1.2 प्रतिशत (24.20 करोड़ रुपए) शिक्षा और ट्रेनिंग पर किया गया.
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70 प्रतिशत कैदियों के मामले विचाराधीन
2019 में देश की सभी जेलों में अपराधी साबित हो चुके कैदियों की संख्या (1,44,125) ऐसे कैदियों की संख्या से ज्यादा थी जिनके खिलाफ मामले अभी अदालतों में विचाराधीन ही हैं (3,30,487). एक साल में विचाराधीन कैदियों की संख्या में 2.15 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है. इनमें से लगभग आधे कैदी जिला जेलों में हैं और 36.7 प्रतिशत केंद्रीय जेलों में.
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न्याय के इंतजार में
विचाराधीन कैदियों में 74.08 प्रतिशत कैदी (2,44,841) एक साल तक की अवधि तक, 13.35 प्रतिशत कैदी (44,135) एक से दो साल की अवधि तक, 6.79 प्रतिशत (22,451) दो से तीन सालों तक, 4.25 प्रतिशत (14,049) तीन से पांच सालों तक और 1.52 प्रतिशत कैदी (5,011) पांच साल से भी ज्यादा अवधि से जेल में बंद थे.
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शिक्षा का स्तर
सभी कैदियों में 27.7 प्रतिशत (1,32,729) अशिक्षित थे, 41.6 प्रतिशत (1,98,872) दसवीं कक्षा तक भी नहीं पढ़े थे, 21.5 प्रतिशत (1,03,036) स्नातक के नीचे तक पढ़े थे, 6.3 प्रतिशत (30,201) स्नातक थे, 1.7 प्रतिशत 8,085 स्नातकोत्तर थे और 1.2% प्रतिशत (5,677) कैदियों के पास टेक्निकल डिप्लोमा/डिग्री थी.
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मृत्युदंड वाले कैदी
सभी कैदियों में कुल 400 कैदी ऐसे थे जिन्हें मौत की सजा सुना दी गई थी. इनमें से 121 कैदियों को 2019 में मृत्युदंड सुनाया गया था. 77,158 कैदियों (53.54 प्रतिशत) को आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई थी.
तस्वीर: AFP/STR
जेल में मृत्यु
2018 में 1,845 कैदियों के मुकाबले 2019 में 1,775 कैदियों की जेल में मृत्यु हुई. इनमें से 1,544 कैदियों की मौत प्राकृतिक कारणों से हुई. अप्राकृतिक कारणों से मरने वाले कैदियों की संख्या 10.74 प्रतिशत बढ़ कर 165 हो गई. इनमें से 116 कैदियों की मौत आत्महत्या की वजह से हुई, 20 की मौत हादसों की वजह से हुई और 10 की दूसरे कैदियों द्वारा हत्या कर दी गई. कुल 66 मामलों में मृत्यु का कारण पता नहीं चल पाया.
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पुनर्वास
2019 में कुल 1,827 कैदियों का पुनर्वास कराया गया और 2,008 कैदियों को रिहाई के बाद वित्तीय सहायता दी गई. कैदियों द्वारा कुल 846.04 करोड़ रुपए मूल्य के उत्पाद भी बनाए गए.