व्यवस्था से हैरान परेशान लोगों के लिए अदालतें न्याय के मंदिर के रुप में उम्मीद का अंतिम द्वार होते हैं. दुनिया भर में प्रचलित यह धारणा भारत में आकर तार-तार होती नजर आती है.
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आंकड़ों की बानगी देखें तो तस्वीर बिल्कुल साफ हो जाएगी. देश के 28 हाइकोर्ट में 45 लाख मामले लंबित पड़े हैं. इनमें सर्वाधिक मामले भारत के सबसे बड़े सूबे उत्तर प्रदेश को न्याय देने वाले इलाहाबाद हाइकोर्ट में हैं. साढे दस लाख मामलों के लंबित होने का आंकड़ा इंसाफ की आस को 30 साल लंबा खींचने की हकीकत बताते हुए न्यायपालिका की भयावह तस्वीर से रुबरु करा देता है. अपराध के लगातार चढ़ते ग्राफ की चिंता से जूझते इलाहाबाद हाईकोर्ट में कुल लंबित मामलों में साढ़े तीन लाख आपराधिक मामले शामिल हैं.
तथ्य यह है कि एक तरफ मुद्दई न्याय की आस में परेशान हैं वहीं मामलों के लंबित होने का लाभ खुले आम घूम रहे आपराधिक मामलों के आरोपियों को मिल रहा है. इससे इतर मामले लंबित होने के कारण देश भर में लगभग दस लाख विचाराधीन कैदी स्वयं के दोषी या निर्दोष साबित होने के इंतजार में जेल की सलाखों के पीछे रहने को अभिशप्त हैं.
भारत में महिलाओं के कानूनी अधिकार
भारत में महिलाओं के लिए ऐसे कई कानून हैं जो उन्हें सामाजिक सुरक्षा और सम्मान से जीने के लिए सुविधा देते हैं. देखें ऐसे कुछ महत्वपूर्ण कानूनी अधिकार...
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पिता की संपत्ति का अधिकार
भारत का कानून किसी महिला को अपने पिता की पुश्तैनी संपति में पूरा अधिकार देता है. अगर पिता ने खुद जमा की संपति की कोई वसीयत नहीं की है, तब उनकी मृत्यु के बाद संपत्ति में लड़की को भी उसके भाईयों और मां जितना ही हिस्सा मिलेगा. यहां तक कि शादी के बाद भी यह अधिकार बरकरार रहेगा.
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पति की संपत्ति से जुड़े हक
शादी के बाद पति की संपत्ति में तो महिला का मालिकाना हक नहीं होता लेकिन वैवाहिक विवादों की स्थिति में पति की हैसियत के हिसाब से महिला को गुजारा भत्ता मिलना चाहिए. पति की मौत के बाद या तो उसकी वसीयत के मुताबिक या फिर वसीयत ना होने की स्थिति में भी पत्नी को संपत्ति में हिस्सा मिलता है. शर्त यह है कि पति केवल अपनी खुद की अर्जित की हुई संपत्ति की ही वसीयत कर सकता है, पुश्तैनी जायदाद की नहीं.
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पति-पत्नी में ना बने तो
अगर पति-पत्नी साथ ना रहना चाहें तो पत्नी सीआरपीसी की धारा 125 के तहत अपने और बच्चों के लिए गुजारा भत्ता मांग सकती है. घरेलू हिंसा कानून के तहत भी गुजारा भत्ता की मांग की जा सकती है. अगर नौबत तलाक तक पहुंच जाए तब हिंदू मैरिज ऐक्ट की धारा 24 के तहत मुआवजा राशि तय होती है, जो कि पति के वेतन और उसकी अर्जित संपत्ति के आधार पर तय की जाती है.
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अपनी संपत्ति से जुड़े निर्णय
कोई भी महिला अपने हिस्से में आई पैतृक संपत्ति और खुद अर्जित की गई संपत्ति का जो चाहे कर सकती है. अगर महिला उसे बेचना चाहे या उसे किसी और के नाम करना चाहे तो इसमें कोई और दखल नहीं दे सकता. महिला चाहे तो उस संपत्ति से अपने बच्चो को बेदखल भी कर सकती है.
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घरेलू हिंसा से सुरक्षा
महिलाओं को अपने पिता या फिर पति के घर सुरक्षित रखने के लिए घरेलू हिंसा कानून है. आम तौर पर केवल पति के लिए इस्तेमाल किए जाने वाले इस कानून के दायरे में महिला का कोई भी घरेलू संबंधी आ सकता है. घरेलू हिंसा का मतलब है महिला के साथ किसी भी तरह की हिंसा या प्रताड़ना.
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क्या है घरेलू हिंसा
केवल मारपीट ही नहीं फिर मानसिक या आर्थिक प्रताड़ना भी घरेलू हिंसा के बराबर है. ताने मारना, गाली-गलौज करना या फिर किसी और तरह से महिला को भावनात्मक ठेस पहुंचाना अपराध है. किसी महिला को घर से निकाला जाना, उसका वेतन छीन लेना या फिर नौकरी से संबंधित दस्तावेज अपने कब्जे में ले लेना भी प्रताड़ना है, जिसके खिलाफ घरेलू हिंसा का मामला बनता है. लिव इन संबंधों में भी यह लागू होता है.
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पुलिस से जुड़े अधिकार
एक महिला की तलाशी केवल महिला पुलिसकर्मी ही ले सकती है. महिला को सूर्यास्त के बाद और सूर्योदय से पहले पुलिस हिरासत में नहीं ले सकती. बिना वारंट के गिरफ्तार की जा रही महिला को तुरंत गिरफ्तारी का कारण बताना जरूरी होता है और उसे जमानत संबंधी उसके अधिकारों के बारे में भी जानकारी दी जानी चाहिए. साथ ही गिरफ्तार महिला के निकट संबंधी को तुरंत सूचित करना पुलिस की ही जिम्मेदारी है.
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मुफ्त कानूनी मदद लेने का हक
अगर कोई महिला किसी केस में आरोपी है तो महिलाओं के लिए कानूनी मदद निःशुल्क है. वह अदालत से सरकारी खर्चे पर वकील करने का अनुरोध कर सकती है. यह केवल गरीब ही नहीं बल्कि किसी भी आर्थिक स्थिति की महिला के लिए है. पुलिस महिला की गिरफ्तारी के बाद कानूनी सहायता समिति से संपर्क करती है, जो कि महिला को मुफ्त कानूनी सलाह देने की व्यवस्था करती है.
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साफ है कि इलाहाबाद हाईकोर्ट में लंबित मामलों का जखीरा अगर व्यवस्थागत तरीके से सुलझाएं तो अंतिम अपील की सुनवाई का नंबर 30 साल बाद आएगा. कमोबेश यही तस्वीर देश के दूसरे राज्यों के हाईकोर्टों की भी है. इसमें अभी लाखों निचली अदालतों की झलक को शामिल नहीं किया गया है. मगर उच्च अदालतों की इस हालत से समूची न्याय व्यवस्था की लचरता और पक्षकारों की लाचारी का अंदाजा असानी से लगाया जा सकता है.
अब बात समस्या के उस पहलू की जो इंसाफ के तराजू का संतुलन कायम रखने की जिम्मेदारी अपने नाजुक कंधों पर निभा रहे हैं. न्याय के उच्च आसन पर विराजमान न्यायमूर्ति दलदल में तब्दील होती न्याय व्यवस्था को दुरुस्त कर पाने में खुद को लाचार पा रहे हैं. आलम यह है कि इस समस्या से एक तरफ मुद्दई परेशान हैं तो जज साहिबान मामलों के लंबित होने के बोझ तले दबे हैं. समस्या की जो स्याह तस्वीर इलाहाबाद, दिल्ली और पटना हाईकोर्ट से उभरती है इनमें कम जजों से काम चलाने की लाचारी तस्वीर की हकीकत पेश करती है. आंकड़े बताते हैं कि अकेले इलाहाबाद हाईकोर्ट में जजों के 160 पदों में से 70 पद खाली पड़े हैं. देश के सभी हाईकोर्ट में जजों के 906 पद हैं और इनमें से 265 पद खाली हैं.
प्रॉपर्टी के अजीब पचड़े
कभी कभी शहरों के बड़े प्रोजेक्ट में स्थानीय लोगों का ख्याल नहीं रखा जाता. लेकिन कुछ मामलों में बिल्डरों का ऐसे अड़ियल लोगों से पाला पड़ता है कि उन्हें ही हार माननी पड़ती है. देखें ऐसे ही कुछ प्रसिद्ध प्रॉपर्टी विवाद.
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जेल-बसेरा
उत्तरी ब्रसेल्स के हारेन जिले में एक बड़े जेल के निर्माण का प्रस्ताव आया. ऐसी कोई मेगाजेल अपने पड़ोस में ना चाहने वाले इसका विरोध कर रहे हैं. उन्होंने अगस्त 2014 से ही जेल के लिए प्रस्तावित जमीन पर डेरा डाला हुआ है. 18 हेक्टेयर जमीन में तंबुओं, झोपड़ियों के अलावा कई सामुदायिक बाग भी बस गए हैं. पुलिस के साथ कई झड़पें झेल चुके निवासी 2015 के अंत में इस पर अंतिम फैसले का इंतजार कर रहे हैं.
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वर्टिकल झुग्गी
वेनेजुएला की राजधानी काराकस शहर के बीचोबीच स्थित इस 45 मंजिलों वाली गगनचुंबी इमारत को झुग्गी मानना थोड़ा मुश्किल लगता है. दुनिया का सबसे ऊंचा यह स्लम 'टावर ऑफ डेविड' कहलाता है. 2014 में इसके निवासियों को निकाल दिया गया. एक समय इसमें करीब 3,000 लोग रहा करते थे.
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100 फीसदी टेंपेलहोफ
शीतयुद्ध के काल में बर्लिन के एयरलिफ्ट का केन्द्र रहा टेंपेलहोफ एयरपोर्ट 2008 में बंद हो गया. इसे सार्वजनिक पार्क के रूप में खोल दिया गया और लोगों ने इसे अपनी जगह मान लिया है. न्यूयॉर्क के सेंट्रल पार्क जितनी बड़ी इस खुली जगह को ऐसे ही बरकरार रखने पर मई 2014 में वोटिंग हुई. भविष्य में यहां खेलकूद या ओपेन एयर सिनेमा के निर्माण की योजना है.
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श्टुटगार्ट 21
2010 में जब श्टुटगार्ट के मुख्य रेलवे स्टेशन के पुनर्निर्माण की योजना बनी तो हजारों लोग इसके विरोध में सड़कों पर आ गए. नई हाई स्पीड ट्रेनों के लिए ट्रैक तैयार करने के लिए श्लॉसगार्टेन इलाके में आसपास के करीब 180 पेड़ों को काटना पड़ता. भारी कीमत और पर्यावरण को नुकसान के विरूद्ध होने के बावजूद 2011 में हुए रेफरेंडम में 60 फीसदी लोगों ने प्रोजेक्ट का समर्थन कर दिया.
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नेल हाउस
चीन के तेजी से विकास करते शहरों में संघर्ष के कई ऐसे मामले हैं. रॉयटर्स के अनुसार, 2008 में बीजिंग ओलंपिक की तैयारी के दौरान करीब 15 लाख लोगों को विस्थापित किया गया था. आयोजक इसे बढ़ा चढ़ाकर बताई गई संख्या कहते हैं. कई मामलों में लोगों ने मुआवजा लेने से मना कर दिया, जिसका नतीजा ऐसा नजर आता है.
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जबर्दस्ती बाहर
2016 में रियो दे जनेरो में होने वाले ग्रीष्मकालीन ओलंपिक की तैयारी में वहां भी खूब निर्माण कार्य चल रहा है. एक खास ओलंपिक पार्क बनाने के लिए गोल्फ कोर्स (तस्वीर में) के अलावा विला ओटोड्रोमा फावेल समुदाय के लोगों को विस्थापित करना पड़ा. यहां के करीब 700 निवासियों ने मुआवजा स्वीकार कर लिया लेकिन कुछ अब भी पानी और बिजली की कमी के बावजूद यहीं रह रहे हैं.
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विधि आयोग के अध्यक्ष जस्टिस एपी शाह इस समस्या के लिए सरकारी तंत्र और सियासी जमात को जिम्मेदार ठहराते हैं वहीं कानून मंत्री सदानंद गौड़ा संसाधनों के अभाव और पहले की सरकारों की लापरवाही को इसके लिए दोषी मानते हैं. आजादी के 70 सालों में लगातार बढ़ती आबादी के साथ साथ मुकदमों की लंबी होती फेहरिस्त को देखते हुए न्याय प्रणाली का भी विस्तार सामान्य प्रबंधन का हिस्सा था. इस पर बिल्कुल भी ध्यान नहीं दिया गया. उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश में हाईकोर्ट के विस्तार की मांग अब तक पूरी ना हो पाना इस बात का साफ सबूत है कि सरकारें जनता की नहीं बल्कि अपनी सियासी सहूलियत को तवज्जो देते हुए समस्या का निदान खोज रही है. नतीजतन 'न्याय आपके द्वार' महज एक सियासी जुमला बन कर रह गया है और मुकदमों के फेर में फंसे पक्षकार पीढ़ी दर पीढ़ी अदालतों की दहलीज पर दस्तक देने को मजबूर हैं.
कानून की किताबों में पहला अध्याय न्याय मिलने में देरी से बचने से जुड़ा है. एक लैटिन उक्ति पर आधारित इस अध्याय का संदेश है कि न्याय मिलने में देरी न्याय से वंचित करने के समान है. संविधान के अनुच्छेद 21 में इसे प्राण एवं दैहिक स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार का हिस्सा मानते हुए समय से न्याय देने पर पूरा जोर दिया गया है. लेकिन मौजूदा तस्वीर इसे भी कानूनी जुमला साबित करने पर तुली है.