न्याय के कटघरे में अन्याय
६ सितम्बर २०१४अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार संस्था एमनेस्टी इंटरनेशनल के मुताबिक भारत की सभी जेलों में इस वक्त 40 लाख कैदी हैं. इनमे से दो तिहाई सुनवाई का इंतजार कर रहे हैं. कई आरोपी तो सुनवाई के बिना ही जेल में सालों से कैद हैं. भारत की दंड प्रक्रिया संहिता में साफ कहा गया है कि बिना सुनवाई के कैदी, अगर दोष साबित होने पर दी जाने वाली सजा की आधी या पूरी अवधि जेल में काट दे, तो उसे हर हालत में रिहा किया जाना चाहिए. लेकिन आम तौर पर इसे अमल में नहीं लाया जाता.
शुक्रवार को मुख्य न्यायाधीश आरएम लोढ़ा ने देश के सभी स्थानीय जजों और मजिस्ट्रेटों को दंड प्रक्रिया संहिता के इस नियम का पालन करने का आदेश दिया, "न्यायिक अधिकारियों को दोषी साबित होने पर दी जाने वाली सजा की पूरी या आधी अवधि काटने वाले कैदियों की पहचान करनी होगी. इस प्रक्रिया को पूरा करने के बाद उन्हें जेल में ही अंडरट्रायल कैदियों की रिहाई का आदेश जारी करना चाहिए." अभी यह साफ नहीं हुआ है कि इसका फायदा कितने कैदियों को होगा.
एमनेस्टी इंटरनेशलन के मुताबिक भारत की जेलों में बहुत मामूली अपराधों के आरोप में हजारों लोग बंद है, ये सब सुनवाई का इंतजार कर रहे हैं. संस्थान की रिसर्च मैनजर दिव्या अय्यर ने सुप्रीम कोर्ट के आदेश का स्वागत किया है, "सुप्रीम कोर्ट का आदेश मनोबल बढ़ाने वाला और स्वागत योग्य है. भारत में तीन में से दो कैदी अंडरट्रायल हैं. बहुत ही ज्यादा लोगों को सुनवाई से पहले ही हिरासत में लेने से हिरासत में लिए गए शख्स की साफ और तेज सुनवाई के अधिकार का उल्लंघन होता है, इसकी वजह से जेलें भी खचाखच भरी हैं."
भारत में अदालतों पर काम का भारी बोझ है. आधिकारिक आंकड़ों के मुताबिक 2012 के अंत तक तीन करोड़ मुकदमे लंबित पड़े हैं. जब तक अदालत में उनके मुकदमे की सुनवाई नहीं हो जाती तब तक आरोपियों को जेल में ही रहना पड़ता है. इसी इंतजार में अक्सर कई साल लग जाते हैं.
सुनवाई से पहले ही जेल में बंद कैदियों में से 46 फीसदी 18 से 30 साल के युवा हैं. 2,000 से ज्यादा ऐसे कैदी हैं जो बिना सुनवाई के पांच साल की कैद काट चुके हैं. इनमें से ज्यादातर कैदी आर्थिक रूप से पिछड़े परिवारों से आते हैं. मानावाधिकार कार्यकर्ताओं ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले का स्वागत किया है लेकिन यह उम्मीद भी जताई है कि सरकार इस समस्या से निपटने के लिए कुछ बुनियादी कदम उठाएगी. नई दिल्ली के एशियन सेंटर ऑफ ह्यूमन राइट्स के निदेशक सुहास चकमा कहते हैं, "जेल में यातना भुगतने वाले ऐसे लोगों को सरकार को मुआवजा भी देना चाहिए."
आम तौर पर आपराधिक मामले में सबसे बड़ी जिम्मेदारी पुलिस की होती है. अगर वो पुख्ता जांच करे और बढ़िया सबूत जुटाए तो अदालती कार्रवाई भी तेज होती है. लेकिन भारत में पुलिस कर्मचारियों की कमी और राजनीतिक दखल से दबी हुई है. अक्सर अदालतों में पुलिस की जांच पर ही सवाल उठते हैं और पुलिस सिर्फ मीयाद ही मांगती रह जाती है. इसका नतीजा आरोपी कैदी बनकर भुगतता है.
ओएसजे/एएम (एएफपी)