भारतीय ग्रामीण आबादी के लिए ये शायद सबसे कठिन दौर है. किसान न्यूनतम समर्थन मूल्य के लिए तरस रहे हैं तो मनरेगा के प्रति सरकारी उदासीनता से ग्रामीण बेरोजगार संकट में हैं.
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भारत के 90 सांसदों और 160 शिक्षाविदों, सिविल सोसायटी के सदस्यों, मानवाधिकार कार्यकर्ताओं, किसान नेताओं और संस्कृतिकर्मियों के एक समूह ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को एक चिट्ठी लिखी है. इस चिठ्ठी में ग्रामीण रोजगार की विराट परियोजना 'मनरेगा' को बंद न करने और उसकी फंडिग की किल्लत को दूर करने का आग्रह किया गया है. साथ ही कहा गया है कि सरकार को मौजूदा ग्रामीण और कृषि संकट से निपटने के लिए किए जा रहे उपायों में मनरेगा को भी शामिल करना चाहिए.
बताया जाता है कि वित्तीय वर्ष के खत्म होने से तीन महीने पहले ही पहली जनवरी को मनरेगा का 99 फीसदी फंड खत्म हो चुका है. चिट्ठी में कहा गया है कि बजट आवंटन में रुकावटें, भुगतान में देरी और मानदेय में कटौती जैसे मुद्दे इस योजना को बर्बाद कर रहे हैं और लोग संकट में हैं.
खेती किसानी से होने वाली आय में गिरावट, बढ़ती हुई गैर बराबरी और बड़े पैमाने पर बेरोजगारी ने लोगों को भारी मुसीबतों में धकेल दिया है. मनरेगा पर सत्ता अभिजात के बढ़ते हमलों की निंदा करते हुए अपील की गई है कि इस समय मनरेगा को चौतरफा हमलों से बचाए जाने की जरूरत है न कि उसकी ओर से आंख मूंद लेने की.
आरबीआई के आंकड़ों में कहा गया है कि जीडीपी प्रतिशत मे मनरेगा को मिलने वाला बजट 2010-11 में 0.51 प्रतिशत से घटकर 2017-18 में 0.38 प्रतिशत रह गया है. राष्ट्रीय सैंपल सर्वे के मुताबिक रोजगार से जुड़े 40 फीसदी परिवार अनुसूचित जाति (एससी) या अनुसूचित जनजाति (एसटी) समुदायों से हैं.
ग्रामीण महिलाओं की बढ़ी हुई भागीदारी भी मनरेगा का एक उजला पक्ष है. इस योजना के अंतर्गत समान काम के लिए समान मानदेय की व्यवस्था है. मनरेगा से आर्थिकी को एक लाभ ये भी बताया जाता है कि सौ रुपये का खर्च 400 रुपये के लाभ में तब्दील हो सकता है. लेकिन पिछले तीन चार वर्षों से देश के विभिन्न हिस्सों से मनरेगा के भुगतान में देरी या कटौती की खबरें भी मिली हैं, कहीं भ्रष्टाचार और दलालों का बोलबाला है तो कहीं 'काम नहीं है' कि तख्तियां लग चुकी हैं.
मामले का दूसरा पहलू ये है कि मनरेगा के बहाने खेती की अवहेलना हो रही है और किसानों को अपने ही घर में मजदूर बना दिया गया है. बेशक कुछ समस्याएं और मुद्दे पेंचीदा जरूर हैं. खराबी क्रियान्वयन में हो सकती है लेकिन अपनी अवधारणा में मनरेगा एक कल्याणकारी और ग्रामीण इलाकों को आत्मनिर्भर बनाने वाली योजना है. मनरेगा की संकल्पना से जुड़े ज्यां द्रेज जैसे अर्थशास्त्री भी उसमें सुधार की बात कह चुके हैं. लेकिन उसे व्यर्थ बताने वाली कॉरपोरेट और सत्ता की लॉबियां इन वर्षों में लगातार सक्रिय रही हैं जो उसे देश की आर्थिकी पर बोझ बताने की हद तक जाती हैं.
ये हैं भारतीय किसानों की मूल समस्याएं
भारत की पहचान एक कृषि प्रधान देश के रूप में रही है लेकिन देश के बहुत से किसान बेहाल हैं. इसी के चलते पिछले कुछ समय में देश में कई बार किसान आंदोलनों ने जोर पकड़ा है. एक नजर किसानों की मूल समस्याओं पर.
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भूमि पर अधिकार
देश में कृषि भूमि के मालिकाना हक को लेकर विवाद सबसे बड़ा है. असमान भूमि वितरण के खिलाफ किसान कई बार आवाज उठाते रहे हैं. जमीनों का एक बड़ा हिस्सा बड़े किसानों, महाजनों और साहूकारों के पास है जिस पर छोटे किसान काम करते हैं. ऐसे में अगर फसल अच्छी नहीं होती तो छोटे किसान कर्ज में डूब जाते हैं.
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फसल पर सही मूल्य
किसानों की एक बड़ी समस्या यह भी है कि उन्हें फसल पर सही मूल्य नहीं मिलता. वहीं किसानों को अपना माल बेचने के तमाम कागजी कार्यवाही भी पूरी करनी पड़ती है. मसलन कोई किसान सरकारी केंद्र पर किसी उत्पाद को बेचना चाहे तो उसे गांव के अधिकारी से एक कागज चाहिए होगा.ऐसे में कई बार कम पढ़े-लिखे किसान औने-पौने दामों पर अपना माल बेचने के लिए मजबूर हो जाते हैं.
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अच्छे बीज
अच्छी फसल के लिए अच्छे बीजों का होना बेहद जरूरी है. लेकिन सही वितरण तंत्र न होने के चलते छोटे किसानों की पहुंच में ये महंगे और अच्छे बीज नहीं होते हैं. इसके चलते इन्हें कोई लाभ नहीं मिलता और फसल की गुणवत्ता प्रभावित होती है.
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सिंचाई व्यवस्था
भारत में मॉनसून की सटीक भविष्यवाणी नहीं की जा सकती. इसके बावजूद देश के तमाम हिस्सों में सिंचाई व्यवस्था की उन्नत तकनीकों का प्रसार नहीं हो सका है. उदाहरण के लिए पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के क्षेत्र में सिंचाई के अच्छे इंतजाम है लेकिन देश का एक बड़ा हिस्सा ऐसा भी है जहां कृषि, मॉनसून पर निर्भर है. इसके इतर भूमिगत जल के गिरते स्तर ने भी लोगों की समस्याओं में इजाफा किया है.
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मिट्टी का क्षरण
तमाम मानवीय कारणों से इतर कुछ प्राकृतिक कारण भी किसानों और कृषि क्षेत्र की परेशानी को बढ़ा देते हैं. दरअसल उपजाऊ जमीन के बड़े इलाकों पर हवा और पानी के चलते मिट्टी का क्षरण होता है. इसके चलते मिट्टी अपनी मूल क्षमता को खो देती है और इसका असर फसल पर पड़ता है.
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मशीनीकरण का अभाव
कृषि क्षेत्र में अब मशीनों का प्रयोग होने लगा है लेकिन अब भी कुछ इलाके ऐसे हैं जहां एक बड़ा काम अब भी किसान स्वयं करते हैं. वे कृषि में पारंपरिक तरीकों का इस्तेमाल करते हैं. खासकर ऐसे मामले छोटे और सीमांत किसानों के साथ अधिक देखने को मिलते हैं. इसका असर भी कृषि उत्पादों की गुणवत्ता और लागत पर साफ नजर आता है.
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भंडारण सुविधाओं का अभाव
भारत के ग्रामीण इलाकों में अच्छे भंडारण की सुविधाओं की कमी है. ऐसे में किसानों पर जल्द से जल्द फसल का सौदा करने का दबाव होता है और कई बार किसान औने-पौने दामों में फसल का सौदा कर लेते हैं. भंडारण सुविधाओं को लेकर न्यायालय ने भी कई बार केंद्र और राज्य सरकारों को फटकार भी लगाई है लेकिन जमीनी हालात अब तक बहुत नहीं बदले हैं.
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परिवहन भी एक बाधा
भारतीय कृषि की तरक्की में एक बड़ी बाधा अच्छी परिवहन व्यवस्था की कमी भी है. आज भी देश के कई गांव और केंद्र ऐसे हैं जो बाजारों और शहरों से नहीं जुड़े हैं. वहीं कुछ सड़कों पर मौसम का भी खासा प्रभाव पड़ता है. ऐसे में, किसान स्थानीय बाजारों में ही कम मूल्य पर सामान बेच देते हैं. कृषि क्षेत्र को इस समस्या से उबारने के लिए बड़ी धनराशि के साथ-साथ मजबूत राजनीतिक प्रतिबद्धता भी चाहिए.
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पूंजी की कमी
सभी क्षेत्रों की तरह कृषि को भी पनपने के लिए पूंजी की आवश्यकता है. तकनीकी विस्तार ने पूंजी की इस आवश्यकता को और बढ़ा दिया है. लेकिन इस क्षेत्र में पूंजी की कमी बनी हुई है. छोटे किसान महाजनों, व्यापारियों से ऊंची दरों पर कर्ज लेते हैं. लेकिन पिछले कुछ सालों में किसानों ने बैंकों से भी कर्ज लेना शुरू किया है. लेेकिन हालात बहुत नहीं बदले हैं.
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मनरेगा की निराशा के बीच ग्रामीण इलाके खेती के लिहाज से भी बदहाल हैं. पैदावार के लागत मूल्य का एक सीधा सा सवाल आजाद भारत में आज तक टेढ़ा ही बना हुआ है - उत्पादन मूल्य से लेकर किसानों को दिए जाने वाले कर्ज तक एक से एक आर्थिक दुश्वारियां बताई जाने लगती हैं लेकिन न उन्हें उचित दाम मिलता है न उचित पर्यावरण. किसान को अर्थव्यवस्था में एक व्यर्थता बताने की कोशिश की जा रही है.
किसानों की कर्ज माफी के सवाल पर सरकारें और राजनीतिक दल वोट केंद्रित रणनीति बनाते बिगाड़ते हैं, बैंक कर्ज माफी पर हड़बड़ाने लगते हैं और अर्थव्यवस्था के ढह जाने का रुदन सुनाई देने लगता है. लेकिन यही कर्ज माफी जब बड़े उद्योगपतियों और कॉरपोरेट जगत के लिए होती है तो उस पर चुप्पी साध ली जाती है. एक आंकड़े के मुताबिक उद्योगपतियों का मई 2018 में खत्म होने वाली तिमाही तक करीब 10 करोड़ 17 लाख रुपये के कर्ज को एनपीए यानि सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों में फंसे कर्ज की श्रेणी में डाल दिया गया था. जबकि पूरे देश में विभिन्न राज्य सरकारों ने अब तक किसानों का करीब एक करोड़ 84 लाख रुपये का कर्ज ही माफ किया है.
इस बीच किसानों के हालात भी बदतर हुए हैं. वाणिज्य और उद्योग मंत्रालय द्वारा जारी दिसंबर के होलसेल प्राइस इंडेक्स (डब्लूपीआई) के आंकड़ों के मुताबिक, प्राथमिक खाद्य पदार्थों का डब्लूपीआई जुलाई 2018 से लगातार नकारात्मक रहा है. यानी कीमतें लगातार गिरी हैं. हाल की किसान महारैली, जुलूस और आंदोलनों के पीछे यही आक्रोश था.
हिंदी पट्टी के तीन राज्यों में बीजेपी सरकारों के पतन के पीछे भी इसी आक्रोश को एक बड़ी वजह माना गया. सरकार की प्रमुख खाद्यान्न व्यापार एजेंसी, नेफेड का कहना है कि 30 हजार करोड़ रुपये की दाल खरीदकर भी किसानों को उनकी लागत का मूल्य चुकाया नहीं जा सका है. कई दालों की कीमतें, न्यूनतम सर्मथन मूल्य से गिर गई हैं. नाफेड की मानें तो इसका कारण है बाजार में खरीद को लेकर उत्साह की कमी. बाजार नोटबंदी के बाद से कराह रहा है. किसानों पर दोतरफा मार पड़ी है. न्यूनतम समर्थन मूल्य नहीं मिल रहा है, अपना माल वो सस्ता बेचने, और अन्य चीजें महंगी खरीदने पर विवश हैं.
ऊंची और उससे भी ऊंची जीडीपी वृद्धि के लिए लालायित सरकारें, इस वास्तविकता की अनदेखी करती आई हैं कि खेती की उपज में एक फीसदी की बढ़ोत्तरी, औद्योगिक उत्पादन में 0.5 फीसदी की बढ़ोत्तरी करती है. ये निर्विवाद तथ्य है कि देश की औद्योगिक वृद्धि, ग्रामीण क्षेत्र की वृद्धि में निबद्ध है. एक बात ये भी है कि कृषि पर जो सार्वजनिक संसाधन झोंके गए हैं उनमें निवेश का हिस्सा बहुत कम है. इसलिए कृषि संकट तमाम कोशिशों और छिटपुट तात्कालिक उपायों के बावजूद बना हुआ है.
सीधे शब्दों में किसानों को मौजूदा आर्थिकी में टिके रहने की न सिर्फ जगह चाहिए बल्कि उसके लिए संसाधन और सुविधा भी चाहिए. ये उन पर दया नहीं बल्कि उनका अधिकार लौटाने की, देर आए दुरुस्त आए जैसी अक्लमंदी होगी.
बड़े देशों में ऐसा है कृषि का हाल
दुनिया में कृषि के लिए हालात अच्छे नहीं रहे. दुनिया के पांच सबसे ज्यादा खाद्यान्न पैदा करने वाले देशों में कृषि का हिस्सा लगातार घट रहा है.
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भारत
भारत में कृषि की हालत लगातार खराब होती जा रही है, हालांकि अब भी देश की अर्थव्यवस्था में कृषि की भूमिका अहम बनी हुई है. साल 2017-18 के आर्थिक सर्वेक्षण के मुताबिक देश की कुल जीडीपी में कृषि का हिस्सा लगभग 16 फीसदी का है. साथ ही करीब 49 फीसदी लोग रोजगार के लिए इस पर निर्भर करते हैं.
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चीन
चीन के नेशनल ब्यूरो ऑफ स्टैटिस्टिक्स के साल 2013 के आंकड़ों मुताबिक देश की कुल जीडीपी में 10 फीसदी हिस्सा कृषि का है. चीन को दुनिया का बड़ा मैन्युफैक्चरिंग हब माना जाता है, लेकिन पिछले एक दशक से देश की अर्थव्यवस्था में कृषि का भी बड़ा योगदान है. गेहूं, चावल और आलू के उत्पादन में चीन का दुनिया में पहला स्थान है.
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अमेरिका
अमेरिका का कृषि क्षेत्र अत्याधुनिक मशीनों से लैस है, जिसके चलते देश खादयान्न उत्पादन का बड़ा हब है. अमेरिका के कृषि मंत्रालय के आंकड़ों मुताबिक देश की कुल जीडीपी में कृषि का योगदान महज एक फीसदी है. वहीं 1.3 फीसदी लोग ही रोजगार के लिए इस निर्भर करते हैं. अमेरिका दुनिया में मक्के का सबसे बड़ा उत्पादक है. वहीं गेहूं उत्पादन में इसका दुनिया में तीसरा स्थान है.
तस्वीर: Imago
रूस
भौगोलिक कारणों के चलते रूस की कृषि क्षेत्र में अपनी सीमाएं हैं. साल 2016 के विश्व बैंक के आंकड़ों मुताबिक देश की कुल जीडीपी में कृषि क्षेत्र की हिस्सेदारी चार फीसदी है. देश की लगभग 10 फीसदी आबादी रोजगार के लिए कृषि पर निर्भर करती है. रूस दुनिया में आलू का तीसरा सबसे बड़ा उत्पादक देश है. वहीं गेंहू उगाने में इसका दुनिया में चौथा स्थान है.
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ब्राजील
दक्षिण अमेरिकी देश ब्राजील की जीडीपी में कृषि की हिस्सेदारी महज 5.6 फीसदी तो है लेकिन कृषि आधारित उद्योगों का हिस्सा तरीबन 23.5 फीसदी है. यह आंकड़े देश की प्रमुख कृषि संगठन सीएनए के हैं बीते सालों में यहां कृषि आधारित उद्योगों में बहुत तेजी आई है. ब्राजील की 15 फीसदी आबादी रोजगार के लिए कृषि पर निर्भर करती है.