पटरी से उतरती ट्वाय ट्रेन
२१ अप्रैल २०१०पश्चिम बंगाल के दार्जिलिंग जिले में न्यू जलपाईगुड़ी से दार्जिलिंग के बीच चलने वाली ट्वाय ट्रेन शुरू से ही दुनिया भर के सैलानियों और फिल्मकारों के आकर्षण का केंद्र रही है. इसके आकर्षण और खासियत को ध्यान में रखते हुए ही यूनेस्को ने इसे वर्ल्ड हेरिटेज की सूची में शुमार किया है. आराधना से परिणीता तक न जाने कितनी हिंदी फिल्मों के सदाबहार गाने इस ट्रेन में ही फिल्माए गए हैं.
लेकिन अब बीते दो वर्षों से पहाड़ियों में होने वाले राजनीतिक आंदोलन और जमीन धंसने की बढ़ती घटनाओं की वजह से यह ट्रेन अब पटरी से उतरती नज़र आ रही है. इन्हीं वजहों से बीते दो वर्षों के दौरान कोई दो सौ दिन इस ट्रेन की आवाजाही ठप रही. अपना 129 साल पुराना इतिहास समेटे यह ट्रेन फिलहाल अपने गौरवशाली अतीत और अनिश्चित भविष्य के बीच झूल रही है.
रेलवे ने इस ट्रेन का आकर्षण बरकरार रखने के लिए इसमें पारंपरिक स्टीम इंजन की जगह डीजल इंजन और आपस में जुड़े कोच लगाए हैं. इस ट्रेन का संचालन करने वाली दार्जिलिंग हिमालय रेलवे यानी डीएचआर के निदेशक सुब्रत नाथ कहते हैं कि हमने इसमें आपस में जुड़े कोच लगाने का फैसला किया है ताकि यात्री आराम से एक से दूसरे डिब्बे में जा सकें. वे बताते हैं कि यह दूसरी ऐसी पर्वतीय ट्रेन है जिसमें ऐसे कोच लगाए जाएंगे.
जब-तब ट्वाय ट्रेन का संचालन बंद होने की वजह से दूर-दराज से आने वाले पर्यटकों को अक्सर निराशा का सामना करना पड़ता है. मुंबई से आए सुधीर वर्मा कहते हैं, "मैं सपरिवार इस ट्रेन की सवारी के मंसूबे लेकर आया था. लेकिन ट्रेन के बंद होने की वजह से मैं निराश हूं. अब कहीं और जाऊंगा."
ईस्ट हिमालयन ट्रेवल एंड टूर ऐपरेटर्स के अध्यक्ष राज बसु कहते हैं, "पहले इस सीजन में अब तक काफी बुकिंग हो जाती थी. लेकिन इस साल ऐसा नहीं हुआ है. लोग डरे रहते हैं कि पता नहीं कब यह ट्रेन बंद हो जाए."
इस ट्रेन के अक्सर बंद होने की वजह से रेलवे को भी भारी नुकसान उठाना पड़ता है. डीएचआर के निदेशक सुब्रत नाथ कहते हैं कि इस ट्रेन से रोजाना 50 हजार रुपए की आय होती है. यानी महीने में 15 लाख. "अगर साल में यह ट्रेन तीन महीने बंद रही तो हमें लगभग 45 लाख का नुकसान उठाना पड़ता है."
पटरी पर दौड़ती इस विरासत को बचाने के तमाम उपाय अब तक बेअसर ही साबित हुए हैं. अगर इस दिशा में कोई ठोस पहल नहीं की गई तो यह धरोहर अपना लंबा इतिहास समेट कर जल्दी ही इतिहास के पन्नों में सिमट जाएगी.
रिपोर्ट: प्रभाकर, दार्जिलिंग
संपादन: महेश झा