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पटरी से उतरा हुआ 'असंभव' सहस्राब्दी लक्ष्य

४ मार्च २००९

सयुंक्त राष्ट्र सहस्त्राब्दी लक्ष्यों में से एक ऐसा भी है जिसे ख़ुद सयुंक्त राष्ट्र मानता है कि उसे 2015 तक हासिल नहीं किया जा सकता और यह लक्ष्य शिशु मृत्यु दर को कम करने से जुड़ा है.

योजना आयोग के अनुसार 2015 तक लक्ष्य हासिल करना मुश्किलतस्वीर: Samir Kumar Dey

भारत के योजना आयोग के आंकडे भी इस लक्ष्य को हासिल कर पाना लगभग असंभव मानते है. भारत में छोटे बच्चों की मौत की भीषणता का अंदाजा इस तथ्य से हो सकता है कि पैदा होने से 28 दिन के अंदर यहां दुनिया में सबसे ज्यादा बच्चों की मौत हो जाती है.

एक साल की उम्र तक 1,000 बच्चों में से 58 की मौत हो जाती है जबकि सहस्त्राब्दी लक्ष्यों के मुताबिक यह संख्या 27 से ज़्यादा नहीं होनी चाहिए. इसी तरह पांच साल तक की उम्र तक के हर एक हज़ार बच्चों में से 87 बच्चे अकाल मृत्यु का शिकार होते हैं जबकि लक्ष्यों के हिसाब से यह संख्या 41 होनी चाहिए और जिस तक पहुंचना भारत जैसे देश के लिए बहुत मुश्किल दिख रहा है.

इस मामले में भारत के राज्यों के आंकड़ों में काफ़ी फर्क है और जहां केरल जैसे प्रगतिशील राज्य में यह दर देश में सबसे कम 14 है तो वहीं मध्य प्रदेश में यह सबसे ज़्यादा 76 है. गांवो में तो हालत और भी ख़राब है जहां शहरी शेत्रों की तुलना में 28 प्रतिशत ज्यादा बच्चों की मौत हो जाती है.

हर बच्चे की ज़िन्दगी के पहले कुछ हफ़्ते बहुत जोखिम भरे होते हैं और 20 प्रतिशत बच्चे तो अपने जन्म के दिन ही मृत्यु का शिकार हो जाते हैं.लाखों घरों के चिराग बुनियादी इलाज नहीं मिलने के कारण बुझ जाते हैं. पांच साल की उम्र तक पहुचने से पहले मरने वाले हर चौथे बच्चे में से एक जन्म के तीन दिनों के अन्दर ही मर जाता है.

नवजात बच्चों में आधे से ज़्यादा की संक्रमण यानी इंफ़ेक्शन के कारण मौत हो जाती है जबकि 20 प्रतिशत की मौत दम घुटने और 20 प्रतिशत की से पहले जन्म लेने के कारण मौत होती है. बाकी के 10 प्रतिशत बच्चें टेटनस, निमोनिया, पेचिश और खसरे जैसे रोगों के कारण मारे जाते हैं.

भारत में बच्चों की मौत का एक और बड़ा कारण "कुपोषण" है जिसके कारण आधे से ज़्यादा बच्चे मरते हैं. आंकडे बताते हैं कि यदि जन्म से 6 माह तक शिशुओं को माताएं स्तनपान करवाएं तो पांच साल तक की उम्र पूरी न करने वाले 16 प्रतिशत बच्चों को बचाया जा सकता है.

शिशुओं को 6 प्रकार के टीके लगा कर उन्हें टेटनस, तपेदिक, काली खांसी, पर्त्तुसिस, पोलियो और चेचक जैसी ख़तरनाक बीमारियों से बचाया जा सकता है लेकिन समस्या यह है कि राष्ट्रीय टीकाकरण कार्यक्रम होने के बावजूद भी कई बच्चें इन टीकों से वंचित रह जाते हैं. वर्ष 1998-99 में जहाँ पूरे देश में 42 प्रतिशत बच्चों को ही यह टीके लग पाए तो वहीं पांच साल बाद वर्ष 05-06 तक भी यह प्रतिशत मात्र डेढ़ प्रतिशत ही बढ़ पाया. विश्व स्वास्थ्य संगठन और यूनिसेफ ने तो भारत की पहचान उन ४७ देशों में की है जहां खसरे का प्रकोप सबसे ज़्यादा है.

तस्वीर: AP
तस्वीर: Samir Kumar Dey

विश्व के अधिकांश देश जब पोलियो से पूरी तरह मुक्त हो चुके हैं वहीं भारत के कई शहरो में आज भी "पोलियो" बार बार दस्तक देता रहता है. जागरूकता का यह आलम है कि बड़े बड़े फिल्मी सितारों को पोलियो की दवा पिलाने का आग्रह करना पड़ता है पर फिर भी कई बच्चे सामाजिक और धार्मिक कारणों से दवा नही पी पाते जिससे सुरक्षा चक्र टूट जाता हैं.

इस सहस्त्राब्दी लक्ष्य की प्राप्ति के लिए भारत सरकार ने 2005 में राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ मिशन की स्थापना भी की जो 2012 तक चलना है पर इस लक्ष्य की मॉनिटरिंग कर रही सयुंक्त राष्ट्र की विभिन्न एजेंसियां इसे पटरी से उतरा हुआ असम्भव लक्ष्य मान रही है.

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