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पड़ोसियों को भरोसा देने की चुनौती

२६ जून २०१४

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने शपथग्रहण के लिए सार्क देशों के राज्याध्यक्षों को आमंत्रित करके पड़ोसियों को जो संदेश दिया था, उस पर अमल हो रहा है. उनकी भूटान यात्रा के बाद अब विदेश मंत्री बांग्लादेश का दौरा कर रही हैं.

तस्वीर: AP

प्रधानमंत्री बनने के बाद नरेंद्र मोदी ने अपनी पहली विदेश यात्रा के लिए भूटान को चुना जो भारत का घनिष्ठतम मित्र है. हालांकि वहां भूटान को नेपाल कहने की उनकी गलती से काफी असमंजस वाली स्थिति पैदा हो गई थी क्योंकि भूटान और नेपाल के रिश्ते तनावरहित नहीं हैं, फिर भी इसे उनकी अनुभवहीनता मानकर नजरंदाज कर दिया गया था. लेकिन अब विदेशमंत्री सुषमा स्वराज बांग्लादेश की यात्रा पर हैं. ढाका जाने से पहले उन्होंने पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी से फोन पर बात भी की और देशवासियों के साथ-साथ बांग्लादेश को भी यह संदेश देने की कोशिश की कि कोई भी समझौता करते समय पश्चिम बंगाल की राय को ध्यान में रखा जाएगा.

भारत और बांग्लादेश के आपसी रिश्तों का इतिहास बहुत उलझा हुआ है. इस समय सत्तारूढ़ अवामी लीग के साथ हमेशा उसके बेहतर संबंध रहे हैं लेकिन विपक्षी बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी (बीएनपी) के साथ उसका हमेशा से छत्तीस का आंकड़ा रहा है. 1975 से लेकर 1996 तक और फिर 2001 से लेकर 2006 तक का दौर भारत-बांग्लादेश संबंधों के इतिहास में बहुत खराब रहा है क्योंकि सेना और बीएनपी के जमात-ए-इस्लामी और हरकत-उल-जिहाद इस्लामी जैसे कट्टरपंथी और आतंकवादी संगठनों के साथ घनिष्ठ रिश्ते थे. लेकिन 2009 में शेख हसीना के सत्ता में आने के बाद से स्थिति बदली है.

मोदी और भूटान के राजातस्वीर: Getty Images

इस बदली हुई स्थिति में उम्मीद की जा रही थी कि दोनों देशों के बीच संबंधों में भारी सुधार होगा, लेकिन इस उम्मीद पर पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और उनकी यूपीए सरकार में अपेक्षित इच्छाशक्ति के अभाव ने पानी फेर दिया क्योंकि भारत बांग्लादेश के साथ किए वादे पूरे करने में विफल रहा. इससे स्वयं शेख हसीना के लिए अपने देश में राजनीतिक मुश्किलें पैदा हुईं. ममता बनर्जी के विरोध के कारण भारत ने तीस्ता नदी के जल के बंटवारे संबंधी समझौते पर हस्ताक्षर नहीं किए और इस तरह मनमोहन सिंह की सरकार ने एक राज्य के दबाव के कारण विदेशनीति को प्रभावित होने दिया.

यही नहीं, बांग्लादेशी कंपनियों को भारत के बाजार तक पहुंचने की सुविधा देने के बारे में तत्कालीन वित्तमंत्री प्रणब मुखर्जी ने कई वर्ष पहले जो वादा किया था, उसे भी ठंडे बस्ते में डाल दिया गया. यदि इस यात्रा के दौरान सुषमा स्वराज बांग्लादेश को केवल इन दो मुद्दों पर भी मजबूत आश्वासन दे सकें और मोदी सरकार इन पर अमल करने में चुस्ती-फुर्ती दिखा सके, तो भारत-बांग्लादेश संबंधों में एक नया और मधुर अध्याय शुरू होने की आशा की जा सकती है.

एक तीसरा और बेहद महत्वपूर्ण मुद्दा है लैंड बार्डर एग्रीमेंट (एलबीए) यानि भूमि सीमा समझौते का. यह जानकर आश्चर्य होता है कि 1974 में भारत की तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और बांग्लादेश के तत्कालीन राष्ट्रपति शेख मुजीबुर्रहमान के बीच सीमाविवाद को हल करने पर सहमति बन गई थी. यूपीए सरकार को इस समझौते पर अमल करने के लिए संविधान में संशोधन करने की जरूरत थी और इसके लिए उसे भारतीय जनता पार्टी सहित विपक्ष के सहयोग की जरूरत थी. लेकिन इसे तृणमूल कांग्रेस के अलावा भाजपा की पश्चिम बंगाल और असम राज्य इकाइयों के विरोध का सामना भी करना पड़ा. भारत और बांग्लादेश के बीच 4000 किलोमीटर लंबी सीमा है और बांग्लादेशियों की गैरकानूनी घुसपैठ भारत के लिए राजनीतिक, आर्थिक और सामरिक, तीनों अर्थों में काफी बड़ी समस्या है.

प्रणब मुखर्जी और शेख हसीनातस्वीर: DW/Swapan

एलबीए के तहत दोनों देशों के बीच 162 भूखंडों का आदान-प्रदान होना है. यदि नरेंद्र मोदी की सरकार ने भाजपा के पुराने विरोध को भूलकर यह समझौता करने के प्रति गंभीरता दिखाई, तो इससे बांग्लादेश को भारत की मंशा के बारे में आश्वस्ति होगी. साथ ही सुषमा स्वराज को बांग्लादेश को चार किलोमीटर लंबे टेटुलिया कॉरिडॉर को खोलने के लिए मनाने के लिए नैतिक अधिकार भी प्राप्त हो जाएगा. यदि यह कॉरिडॉर खुल जाए, तो उत्तर-पूर्व भारत और शेष देश के बीच की दूरी में 85 किलोमीटर की कमी आ सकती है.

व्यापार के लिए आवश्यक ढांचागत सुविधाएं एक दूसरा महत्वपूर्ण क्षेत्र है जिसमें दोनों देशों के बीच बहुत कुछ होने की संभावना है. यह ध्यान में रखने की भी जरूरत है कि पूर्व विदेशमंत्री प्रणब मुखर्जी ने बांग्लादेश को यह आश्वासन दिया था कि यदि वह आतंकवाद पर नकेल डाले तो भारत उसके साथ हर तरह का सहयोग करने को राजी है. शेख हसीना की सरकार ने यह कर दिखाया है और अब गेंद भारत के पाले में है.

नेपाल, श्रीलंका और पाकिस्तान, सभी के साथ हमारे संबंध तनावपूर्ण हैं. श्रीलंका के मामले में तमिलनाडु की राजनीतिक पार्टियों को हस्तक्षेप की इजाजत देना राष्ट्रहित के साथ समझौता करना होगा. आशा है मोदी सरकार सभी पड़ोसी देशों को इस बारे में भरोसा दिला सकेगी कि विशाल देश होने का बावजूद भारत उन पर हावी होने की कोशिश नहीं करेगा.

ब्लॉग: कुलदीप कुमार

संपादन: महेश झा

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