बिहार और झारखंड के अभ्रक वाले इलाकों में 14 साल तक की उम्र के पांच हजार से ज्यादा बच्चों ने पढ़ाई बीच में ही छोड़ दी है. वे खदानों में काम करने लगे हैं. राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग के एक सर्वे से इसका पता चला है.
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बीते साल भारत में काम करने वाली एक अंतरराष्ट्रीय विकास एजेंसी टेर दे होम्स की ओर से जारी रिपोर्ट में कहा गया था कि बिहार व झारखंड की अभ्रक खदानों में 22 हजार से ज्यादा बच्चे मजदूरी कर रहे हैं. सर्वेक्षण के दौरान इन इलाकों के ज्यादा बच्चों के कुपोषण की चपेट में होने की बात भी सामने आई है. पहले भी इन खदानों में काम करने वाले बच्चों की मौतों के मामलों को छिपाने के आरोपों ने सुर्खियां बटोरी थीं. अब भी अक्सर ऐसी घटनाएं होती रहती हैं. लेकिन यह सामने नहीं आ पातीं. इनको स्थानीय स्तर पर ही दबा दिया जाता है.
भारत अभ्रक के सबसे बड़े उत्पादक देशों में से एक है. यहां झारखंड व बिहार में इसका बड़े पैमाने पर उत्पादन होता है. इसके अलावा आंध्र प्रदेश में भी इसका कुछ उत्पादन किया जाता है. इलेक्ट्रॉनिक व सौंदर्य प्रसाधनों के अलावा रंगों के उत्पादन में भी अभ्रक का इस्तेमाल किया जाता है. पर्यावरण के अनुकूल होने की वजह से हाल के वर्षों में इस खनिज की अहमियत काफी बढ़ गई है.
सर्वेक्षण रिपोर्ट
आयोग को अपने सर्वेक्षण में पता चला कि अभ्रक खदान वाले इलाकों में बच्चों के लिए मौकों की भारी कमी है. इसी वजह से बच्चे अपने परिवार की आय बढ़ाने के लिए बीच में ही पढ़ाई छोड़ कर मजदूरी करने लगते हैं. उक्त सर्वेक्षण बिहार के नवादा के अलावा झारखंड के गिरीडीह और कोडरमा जिलों में किया गया. आयोग की सर्वेक्षण रिपोर्ट में कहा गया है कि झारखंड के अभ्रक खदान वाले इलाकों में छह से 14 साल की उम्र के 4,545 बच्चे पढ़ाई छोड़ चुके हैं और स्कूल नहीं जाते. झारखंड व बिहार के अभ्रक खदान वाले इलाकों में बच्चों की शिक्षा और स्वास्थ्य संबंधी इस सर्वेक्षण के मुताबिक बिहार के नवादा जिले में स्कूल नहीं जाने वाले ऐसे बच्चों की तादाद 649 है. इन बच्चों के स्कूल नहीं जाने की वजह के बारे में आयोग ने कहा है कि पढ़ाई के प्रति दिलचस्पी नहीं होना इसका कारण है, खदान से अभ्रक के टुकड़े एकत्र करना और महात्वाकांक्षा की कमी ही इसकी प्रमुख वजह है.
सर्वेक्षण रिपोर्ट में स्थानीय अधिकारियों के हवाले कहा गया है कि इलाके के कई परिवारों का गुजारा अभ्रक के टुकड़े बेचकर होने वाली आय से ही चलता है. वहां रहने वाले ज्यादातर परिवारों को लगता है कि बच्चों को स्कूल भेजने से कोई फायदा नहीं है. इसिलए लोग स्कूल भेजने की बजाय बच्चों को अभ्रक के टुकड़े एकत्र करने के लिए खदानों में भेजने को तरजीह देते हैं. आयोग ने अपनी रिपोर्ट में अभ्रक के खनन और इस उद्योग को बाल मजदूरों से मुक्त करने की सिफारिश की है. उसने कहा है कि खनन प्रक्रिया और टुकड़े एकत्र करने से बच्चों को दूर रखा जाना चाहिए. इस उद्योग को बाल मजदूरों से मुक्त करने के लिए गैर-सरकारी संगठनों व विकास एजेंसियों को जिला और स्थानीय प्रशासन के साथ तालमेल कर ठोस कदम उठाने होंगे. रिपोर्ट में बच्चों से अभ्रक के टुकड़े खरीदने वालों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई की भी सिफारिश की है.
बाल मजदूरी में सबसे आगे हैं ये देश
बाल मजदूरी में सबसे आगे हैं ये देश
तमाम कानून और नियमों के बावजूद बाल मजूदरी आज भी कई मुल्कों में बड़ी समस्या बनी हुई है. वैश्विक जोखिमों जैसे विषयों पर शोध करने वाली लंदन की रिसर्च कंपनी वेरस्कि मेपलक्रोफ्ट ने ऐसे देशों की एक सूची जारी की है
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1. उत्तर कोरिया
इस सूचकांक में जिन 27 देशों को बाल श्रम के लिहाज से अत्याधिक जोखिम वाला बताया गया है उसमें सबसे पहले एशियाई देश उत्तर कोरिया का नंबर आता है.
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2. सोमालिया
साल 2018 के आंकड़ों के मुताबिक अफ्रीकी देश सोमालिया में पांच से चौदह साल के तकरीबन 38 फीसदी बच्चे बतौर बाल श्रमिक काम कर रहे हैं. निर्माण और खनन कार्य में इनसे सबसे ज्यादा काम लिया जाता है.
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3. दक्षिण सूडान
पांच साल तक गृह युद्ध झेलने वाले दक्षिणी सूडान में बच्चे खनन और निर्माण कार्य के साथ-साथ देह व्यापार में जाने को मजबूर हैं. बाल श्रम रोकने के लिए देश में श्रम कानून 2017 लाया गया लेकिन अब भी स्थिति में कोई खास सुधार नहीं हुआ है.
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4. इरीट्रिया
अफ्रीकी देश इरीट्रिया में बच्चे कृषि के साथ साथ सोने के खनन में भी झोंक दिए जाते हैं. इसके अलावा बच्चों की तस्करी भी यहां की बड़ी समस्या है.
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5. मध्य अफ्रीकी गणराज्य
हिंसाग्रस्त अफ्रीकी इलाकों में बच्चों को गैर सरकारी हथियारबंद गुट भी बतौर चाइल्ड कमांडों भर्ती किए जाते हैं. इस पर संयुक्त राष्ट्र भी कई बार चिंता जता चुका है लेकिन अब तक जमीन पर कुछ भी ठोस नहीं हुआ है.
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6. सूडान
अंतरराष्ट्रीय श्रमिक संगठन के आंकड़ों के मुताबिक सूडान में तकरीबन 47 फीसदी बच्चे जोखिम भरे काम करने को मजबूर हैं. ग्रामीण इलाकों में करीब 13 फीसदी बच्चे कुल श्रम बल का हिस्सा हैं, वहीं शहरों में यह औसत करीब पांच फीसदी है.
दक्षिण अमेरिकी देश वेनेजुएला में अधिकतर बच्चे घरेलू काम और देह व्यापार में झोंक दिए जाते हैं. वेनेजुएला से हर साल हजारों बच्चों की तस्करी कर उन्हें कोलंबिया भी भेजा जाता है और उनसे बतौर सेक्स वर्कर काम लिया जाता है.
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8. पापुआ न्यू गिनी
एशिया-प्रशांत में बसे इस द्वीप में भी बच्चों को सेक्स कारोबार में लगा दिया जाता है. हालांकि स्थिति में बेहतरी के लिए सरकार ने अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं के सहयोग से नेशनल एक्शन प्लान टू एलीमिनेट चाइल्ड लेबर भी लॉन्च किया लेकिन अब तक कोई खास सफलता नहीं मिली.
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9. चाड
पिछली रिपोर्टों के मुताबिक चाड में अधिकतर बच्चों को कृषि कार्य में लगाया जाता है. हालांकि यहां बड़ी संख्या में बच्चों की खरीद-फरोख्त भी इसलिए होती है ताकि उन्हें तेल उत्पादन के कार्यों में लगाया जा सके.
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10. मोजाम्बिक
मोजाम्बिक के श्रम मंत्रालय ने साल 2017 में अपनी रिपोर्ट में कहा था कि देश में सात से 17 साल के करीब दस लाख बच्चे बतौर बाल श्रमिक काम करने को मजबूर हैं. रिपोर्ट में कहा गया था कि बच्चों को ट्रांसपोर्ट, खनन, कृषि कार्य के साथ-साथ सेक्स कारोबार में भी धकेला जाता है.
तस्वीर: Save the Children/Hanna Adcock
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मौतों का आंकड़ा नहीं
आयोग की रिपोर्ट में कहा गया है कि नवादा की 15, गिरिडीह की 40 और कोडरमा की 45 बस्तियों में छह से 14 साल के बच्चे अभ्रक के टुकड़े एकत्र करने जाते हैं. आयोग ने अभ्रक खदान से सटी बस्तियों में बच्चों के कुपोषण पर भी गहरी चिंता जताई है. रिपोर्ट में कहा गया है कि बिहार के नवादा जिले के 69 प्रतिशत और झारखंड के कोडरमा व गिरीडीह में क्रमशः 14 और 19 प्रतिशत बस्तियों में रहने वाले बच्चे कुपोषण के शिकार हैं.
अभ्रक खदान वाले इलाको में बाल मजदूरों की मौत एक आम बात है. लेकिन संबंधित खनन कंपनियां और बच्चों के परिवार भी ऐसे मामलों को भरसक छिपाने का प्रयास करते हैं. कुछ साल पहले इनके खुलासे पर काफी शोर मचा था. लेकिन बाद में फिर सब कुछ जस का तस हो गया. गैर-सरकारी संगठनों का कहना है कि इलाके में चलने वाले ज्यादातर खदान अवैध हैं. लेकिन सरकार और जिला प्रशासन ने इस ओर से आंखें बंद कर रखी है. नोबेल पुरस्कार विजेता कैलाश सत्यार्थी के बचपन बचाओ आंदोलन का कहना है कि जर्जर और गैर-कानूनी खदानों में होने वाली बच्चों की मौत के आंकड़े भयावह हैं. लेकिन इनमें से दस प्रतिशत मामले में भी कहीं कोई रिपोर्ट नहीं दर्ज कराई जाती.
पुराना है उद्योग
अभ्रक के खनन का उद्योग काफी पुराना है. अंग्रेजों ने 19 वीं सदी के आखिर में अविभाजित बिहार के कोडरमा, गिरिडीह, हजारीबाग, नवादा, जमुई, गया और भागलपुर जिलों में फैले अभ्रक की खोज की थी. लेकिन वर्ष 1980 में वनों की कटाई रोकने के कानून बनने और इस प्राकृतिक खनिज का विकल्प मिल जाने की वजह से सात सौ से ज्यादा खदानों वाले इस उद्योग पर बेहद प्रतिकूल असर पड़ा. लगातार बढ़ती लागत और पर्यावरण संबंधी कठोर नियमों की वजह से ज्यादातर खदानों को मजबूरन बंद कर दिया गया. लेकिन अवैध रूप से खनन का काम जारी रहा. विशेषज्ञों का अनुमान है कि देश में जंगलों और खुली पड़ी खदानों से अवैध रूप से खनन कर लगभग 70 प्रतिशत अभ्रक का उत्पादन किया जाता है. देश में अभ्रक की केवल 38 वैध खदानें हैं.
बाल अधिकारों के संरक्षण की दिशा में काम करने वाले संगठनों की दलील है कि इस खनन उद्योग को कानूनी दर्जा देने से अभ्रक की कालाबाजारी तो कम होगी ही, बाल मजदूरी की समस्या पर भी प्रभावी रूप से अंकुश लगाया जा सकेगा. लेकिन पर्यावरण संबंधी कानूनों और संरक्षित वन क्षेत्र में होने की वजह से अब उन खदानों को कानूनी मंजूरी मिलना बेहद मुश्किल है.
जर्मनी में कुछ बड़ी कोयला खदानों को बंद करने के बाद वहां मौजूद विशाल गड्ढे सामने आए. यह किसी सिरदर्द से कम नहीं थे. इस समस्या से कैसे निपटा जा रहा है, देखिए.
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नीचे कोयला, ऊपर टूरिज्म
पूर्वी जर्मनी की लुसेतिया कोयला खदान में कभी 65,000 लोग काम किया करते थे. 1990 के दशक में खदानें बंद कर दी गईं और हजारों लोग बेरोजगार हो गए. स्थानीय लोगों को हुए नुकसान की भरपाई के लिए प्रशासन ने टूरिज्म को चमकाने का फैसला किया. अब 37,000 एकड़ इलाके में यूरोप का सबसे बड़ा वॉटर प्लेग्राउंड बन रहा है.
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हर जगह पानी
ब्रांडेनबुर्ग और सैक्सनी राज्य की इन 25 झीलों में पानी बदलता रहता है. झीलों में जमीन से भी पानी आता है और स्प्री नदी से भी. लबालब होने के बाद पानी दूसरी झीलों को सप्लाई होता है और अंत में स्प्री नदी में वापस लौट जाता है.
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पूरा कायाकल्प
जगह जगह बने गड्ढों को पानी से भर कर झीलों में बदला जा रहा है. तालाबों के किनारों को रेत से पाट दिया गया है. अब गर्मियों में लोग यहां धूप सेंकने और नहाने आने लगे हैं.
तस्वीर: Gemeinfrei
खदानों का स्वाद
अंगूर की खेती के लिए ढलान वाली जमीन को मुफीद माना जाता है. खदान में भी ऐसी कई ढलानें हैं. अब कोरनेलिया वोबर जैसे लोग वहां अंगूर उगा कर वाइन भी बना रहे हैं. 2008 से योहानिटर या पिनोटिन नाम की यह वाइन बाजार में है और काफी लोकप्रिय है.
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कैरेबियन अहसास
पानी के अम्लीय गुणों को कम करने के लिए लेक पार्टवित्स में चूना डाला गया. इसकी वजह से झील में कैरेबियाई लुक सा आ गया. 2015 में पूरी तरह भरी यह झील अब तैराकी के लिए सुरक्षित है.
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जर्मनी की सबसे बड़ी स्विमिंग लेक
2019 की शुरुआत में एनर्जी ग्रुप LEAG ने कॉटबुस के पास लेक ओस्टजे को भरना शुरू किया. जनता के लिए इसे खोलने से पहले झील में 10 लाख घनमीटर पानी भरना होगा. यह काम 2025 तक पूरा होगा. फिर यह जर्मनी की सबसे बड़ी स्विमिंग लेक होगी.
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पानी का स्रोत
पुरानी कोयला खदान को झील में बदलना इतना आसान भी नहीं है. सबसे पहले जमीन दबाई जाती है ताकि भूस्खलन न हो. इसके लिए खास वाइब्रो-कंप्रेशन टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल किया जाता है. अगर पानी भरने के बाद जमीन कटी तो आस पास के इलाके में बाढ़ आ जाएगी.
तस्वीर: picture-alliance/dpa/P.Pleul
इस तरह का हादसा
अगर सावधानी न बरती जाए तो ऐसे हादसे हो सकते हैं. 18 जुलाई 2009 को मध्य जर्मनी में भूस्खलन का ऐसा ही हादसा हुआ. हादसे में तीन लोग मारे गए. जांच रिपोर्ट के मुताबिक तालाब के दबाव और ढीले पड़े मैटीरियल के कारण यह नौबत आई.
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टिकाऊ भविष्य
ग्रीनपीस एनर्जी पुरानी कोयला खदानों के साथ एक प्रयोग करना चाहती है. वह विवादों में घिरी ऊर्जा कंपनी RWE ग्रुप से 2020 में एक खदान खरीदना चाहती है. खदान को 2025 में बंद कर दिया जाएगा और वहां स्वच्छ ऊर्जा पैदा की जाएगी. हालांकि अभी तक RWE ने खदान बेचने पर हामी नहीं भरी है.(रिपोर्ट: थेरेसा क्रिनिंगर/ओएसजे)