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समाज

नई चुनौतियों के बीच रवीश कुमार को मैग्सेसे अवार्ड

शिवप्रसाद जोशी
२ अगस्त २०१९

भारत के मशहूर टीवी ऐंकर और वरिष्ठ पत्रकार रवीश कुमार को मैग्सेसे अवॉर्ड देने की घोषणा की गई है. अन्य विजेता फिलीपींस, दक्षिण कोरिया, थाईलैंड, म्यांमार से हैं.

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तस्वीर: DW/S. Wünsch

रवीश की पत्रकारिता को रेखांकित करते हुए मैग्सेसे अवॉर्ड की प्रशस्ति में लिखा गया है कि "अगर तुम लोगों की आवाज बन जाते हो तो तुम एक पत्रकार हो.” अवार्ड नौ सितंबर को फिलीपींस की राजधानी मनीला में दिया जाएगा. एनडीटीवी समाचार चैनल में कार्यरत रवीश अपनी रिपोर्टों और टीवी स्टूडियो में अपने लोकप्रिय रात्रिकालीन शो प्राइम टाइम के लिए जाने जाते हैं. हालांकि उनका चैनल टीआरपी की सूची में पीछे बताया जाता है और जिसके चलते रवीश खुद को ‘जीरो टीआरपी वाला ऐंकर' भी कहते रहे हैं. लेकिन अपना उपहास आप उड़ा लेने की सामर्थ्य रखने वाले रवीश की टीवी दर्शकों में अपार लोकप्रियता है. सोशल मीडिया पर उनकी जबर्दस्त फैन फॉलोइंग है और छात्रों और शिक्षकों और कर्मचारियों से लेकर मजदूरों किसानों तक उनके पास अपने अपने ढंग से अपनी दरयाफ्त, शिकायतें और निवेदन भेजते और पहुंचाते रहते हैं. रवीश को हाल के कुछ वर्षों में उग्र धार्मिक उत्पातियों, दबंगों, कट्टरपंथियों और बहुसंख्यकवादियों के तीखे हमलों, गालियों और निंदाओं का सामना भी करना पड़ा है. उन्हें जान से मारने की धमकियां भी मिलती रही हैं. लेकिन रवीश ने सार्वजनिक और ऑर्गेनिक बुद्धिजीवी की तरह पत्रकार के रूप में अपना दायित्व निभाया है.

रैमन मैग्सेसे को फिलीपींस में कम्युनिस्ट गुरिल्ला आंदोलन को कुचलने वाले सख्त नेता के रूप में जाना जाता था. बताया जाता है कि सीआईए की मदद से उन्होंने फिलीपींस में गुरिल्ला आंदोलन को खत्म किया. राष्ट्रपति बनने के बाद उन्होंने बड़े पैमाने पर कृषि और भूमि सुधार किए. गरीब किसानों को जमीन दिलाने और कर्ज माफ कराने से लेकर उनके आर्थिक विकास के लिए मैग्सेसे ने एक बड़ा देशव्यापी अभियान चलाया. यही उनकी लोकप्रियता का एक बड़ा कारण भी था. 1957 की एक विमान दुर्घटना में मैग्सेसे के आकस्मिक निधन के बाद उनकी याद में अवॉर्ड फाउंडेशन की स्थापना की गई थी. अमेरिका के रॉकफेलर फाउंडेशन ने इसमें मदद की. पहला पुरस्कार 1958 में दिया गया था. एशियाई क्षेत्र में अब तक ये पुरस्कार तीन सौ से ज्यादा लोगों को छह श्रेणियों में सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक क्षेत्र में विशिष्ट और साहसी योगदान के लिए दिया जा चुका है.

डॉयचे वेले के बॉब्स अवॉर्ड में ज्यूरी की भूमिका में रवीशतस्वीर: DW/S. Wünsch

विनोबा भावे ये अवॉर्ड पाने वाले पहले भारतीय थे. उन्हें सामुदायिक नेतृत्व के लिए ये पुरस्कार दिया गया था. मदर टेरेसा, सत्यजीत रॉय, महाश्वेता देवी, वी कुरियन और जयप्रकाश नारायण भी इस पुरस्कार से सम्मानित हैं. प्रशासनिक अधिकारियों में सीडी देशमुख, टीएन शेषन, जेएम लिंगदोह, किरण बेदी, अरविंद केजरीवाल, संजीव चतुर्वेदी को भी ये अवॉर्ड मिल चुका है. संगीत में पंडित रविशंकर और एमएस सुब्बुलक्ष्मी के अलावा पिछले साल ही टीएम कृष्णा को ये अवार्ड मिला था जो सत्ता राजनीति की अतिशयताओं और बहुसंख्यकावाद के विरोध और संगीत में ब्राह्मणवादी और पितृसत्तात्मक ढांचे के जीवंत प्रतिरोध के लिए जाने जाते हैं.

भारतीय पत्रकारों में सबसे पहले अमिताभ चौधरी और आगे चलकर अरुण शौरी को ये पुरस्कार मिल चुका है. पी साईनाथ को अपनी विशद् ग्रामीण पत्रकारिता के लिए और आरके लक्ष्मण को अपने ऐतिहासिक कार्टूनों के जरिए राजनीतिक और सामाजिक विसंगतियों को रेखांकित करने के लिए सम्मानित किया जा चुका है. वेजवाड़ा विल्सन, अरुणा राय, एस वांगचुक, आम्टे दंपत्ति, चंडीप्रसाद भट्ट, राजेंद्र सिंह और संदीप पांडे जैसे अपने अपने क्षेत्र के एक्टिविस्टों के नाम भी इस सूची में शामिल हैं. भारत से अब तक 50 से ज्यादा लोग एशिया के नोबेल कहे जाने वाले इस पुरस्कार को हासिल कर चुके हैं.

रवीश कुमारतस्वीर: DW

नोट करने वाली बात ये भी है कि अवॉर्ड से सम्मानित कुछ भारतीय शख्सियतों ने आगे चलकर कौनसा रास्ता चुना. जैसे अरुण शौरी और किरण बेदी को ही लें. अपनी पत्रकारिता के लिए विख्यात शौरी राजनीति में आए और वाजपेयी सरकार में मंत्री बने, किरण बेदी पुलिस सेवा से होती हुई अण्णा आंदोलन में उतरीं और आज पुडुचेरी की उपराज्यपाल हैं और काम के बंटवारे को लेकर मुख्यमंत्री से उनके विवाद सुर्खियां बनते रहते हैं. अरविंद केजरीवाल भी आरटीआई आंदोलन से होते हुए जंतरमंतर के अण्णा आंदोलन में आए और अब दिल्ली के मुख्यमंत्री हैं. अरुणा राय आरटीआई आंदोलन की अगुआ थीं और आज भी आंदोलन के लिए सड़कों पर रहती हैं. आमतौर पर दिखता तो यही है और उम्मीद भी यही की जाती है कि पुरस्कार ने अधिकांश पूर्व विजेताओं को सत्ता की ओर अग्रसर न किया हो और न ही वे संघर्ष में शिथिल हुए हों.

माना जाता है कि मैग्सेसे अवॉर्ड अपने चुनाव और चयन में इतनी सावधानी बरतता है कि विजेताओं के नाम अधिकांश लोगों के लिए अप्रत्याशित होते हैं या अनसुने. यही इसकी प्रामाणिकता और विश्वसनीयता की कसौटी भी बना रहा है. हालांकि कई बार नामों के चयन को लेकर विवाद भी होते रहे हैं. लेकिन इसकी प्रतिष्ठा ही है कि सत्यजित रॉय, महाश्वेता देवी और पंडित रविशंकर जैसी हस्तियां इस पुरस्कार को ना नहीं कह पाईं. और इधर इसके चयन तो सुखद अनुभूति में डालते हैं चाहे वो वेजवाड़ा विल्सन जैसे एक्टिविस्ट हों या टीएम कृष्णा जैसे गायक या रवीश कुमार जैसे पत्रकार.  

फाउंडेशन के मुताबिक रवीश की पत्रकारिता असल में लोकतंत्र के विकास की राह दिखाती है. इसीलिए पत्रकारिता के समकालीनों, प्रशिक्षुओं और नयी पीढ़ी के लिए रवीश को मिला सम्मान एक आत्मीय अवसर ही नहीं संबल को बनाए रखने का ढाढस भी है. इससे ये भी पता चलता है कि पत्रकारिता स्वयंभू नायकत्व प्राप्ति का लक्ष्य नहीं है और न ही ऊलजलूल झूठों और सत्तापरस्त मक्कारियों का इंद्रजाल- वो अपने साहस और अपने अंतःकरण की सही सही पहचान का एक पथरीला उबड़खाबड़ रास्ता है.

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