सुप्रीम कोर्ट बार बार पत्रकारों के खिलाफ राजद्रोह के मामले दर्ज कराने के बढ़ते चलन के खिलाफ आगाह रहा है. राजद्रोह पत्रकारिता के रास्ते में अड़चन बनता जा रहा है. इसका खामियाजा लोकतांत्रिक व्यवस्था को भी उठाना पड़ सकता है.
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ताजा प्रकरण में सुप्रीम कोर्ट ने पत्रकार विनोद दुआ पर एक मामले में लगे राजद्रोह के आरोपों को खारिज कर दिया और कहा कि 1962 में राजद्रोह को परिभाषित करने वाले 'केदार नाथ सिंह फैसले' के तहत हर पत्रकार को सुरक्षा मिलनी चाहिए. अदालत ने आदेश दिया कि इस मामले में दुआ के खिलाफ दर्ज की गई एफआईआर रद्द कर दी जाए. एफआईआर मई 2020 में हिमाचल प्रदेश में बीजेपी के एक नेता ने दर्ज कराई थी.
बीजेपी नेता ने शिकायत की थी कि दुआ ने यूट्यूब पर प्रसारित किए गए दिल्ली दंगों से संबंधित अपने एक कार्यक्रम में केंद्र सरकार और प्रधानमंत्री पर गलत आरोप लगाए थे. मामले में दुआ के खिलाफ राजद्रोह, पब्लिक न्यूसेंस, अपमान करने वाली सामग्री छापने और पब्लिक मिस्चीफ की धाराओं के तहत आरोप लगाए गए थे. दुआ ने एफआईआर को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी थी और मांग की थी कि ना सिर्फ एफआईआर रद्द की जाए बल्कि उसे दायर करने वाले को आदेश दिया जाए कि वो उत्पीड़न के लिए हर्जाना भी दें.
इस समय अस्पताल में कोविड-19 से लड़ रहे दुआ राजद्रोह का आरोप झेलने वाले अकेले पत्रकार नहीं हैं. आए दिन पत्रकारों के खिलाफ इस तरह के आरोप दर्ज किए जा रहे हैं. एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया के महासचिव और हार्ड न्यूज पत्रिका के संपादक संजय कपूर ने डीडब्ल्यू को बताया कि खास कर पिछले सात सालों में पत्रकारों के खिलाफ राजद्रोह के मामलों में उछाल आया है और पत्रकारों को महामारी से जुड़ी खबरों के लिए और यहां तक कि बलात्कार जैसे जुर्म पर खबर करने के लिए भी गिरफ्तार कर लिया गया है.
सभ्य समाज में 'राजद्रोह' की जगह
संजय कपूर ने यह भी बताया कि सुप्रीम कोर्ट ने कई बार पत्रकारों को मिली अभिव्यक्ति की सुरक्षा के बारे में बताया है, लेकिन निचली अदालतें अक्सर सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी को नजरअंदाज करती आई हैं. उन्होंने मांग की कि राजद्रोह जैसे कानून की सभ्य समाजों में कोई जगह ही नहीं है, और समय आ गया है कि इसे अब भारतीय दंड संहिता से ही हटा दिया जाए. राजद्रोह भारत की दंड दंहिता (आईपीसी) की धारा 124ए के तहत एक जुर्म है.
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इसे सबसे पहले अंग्रेजों के शासन के दौरान 1870 में लाया गया था. फिर 1898, 1937, 1948, 1950 और 1951 में इसमें कई संशोधन किए गए. इसे 1958 में इलाहाबाद हाई कोर्ट ने और पंजाब हाई कोर्ट ने भी असंवैधानिक करार दिया था, लेकिन 1962 में सुप्रीम कोर्ट के केदार नाथ सिंह फैसले ने इसे वापस ला दिया. हालांकि इसी फैसले में अदालत ने इसे लगाने की सीमाएं तय कीं और कहा कि इसका उपयोग तभी किया जा सकता है जब "हिंसा के लिए भड़काना" साबित हो.
केदार नाथ सिंह बनाम बिहार राज्य नाम के इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने आदेश दिया था कि सरकार की आलोचना करने या फिर प्रशासन पर टिप्पणी करने से राजद्रोह का मुकदमा नहीं बनता. राजद्रोह का मामला तभी बनेगा जब किसी वक्तव्य के पीछे हिंसा फैलाने की मंशा साबित हो.
राजद्रोह के मायने, दायरे और इतिहास
भारत में राजद्रोह के नाम पर हुई गिरफ्तारियों से इसकी परिभाषा और इससे जुड़े कानून की ओर ध्यान खिंचा है. आइए देखें कि भारतीय कानून व्यवस्था में राजद्रोह का इतिहास कैसा रहा है.
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भारतीय दंड संहिता यानि आईपीसी के सेक्शन 124-A के अंतर्गत किसी पर राजद्रोह का आरोप लग सकता है. ब्रिटिश औपनिवेशिक काल की सरकार ने 19वीं और 20वीं सदी में राष्ट्रवादी असंतोष को दबाने के लिए यह कानून बनाए थे. खुद ब्रिटेन ने अपने देश में राजद्रोह कानून को 2010 में समाप्त कर दिया.
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सेक्शन 124-A के अनुसार जो भी मौखिक या लिखित, इशारों में या स्पष्ट रूप से दिखाकर, या किसी भी अन्य तरीके से ऐसे शब्दों का प्रयोग करता है, जो भारत में विधि द्वारा स्थापित सरकार के लिए घृणा या अवमानना, उत्तेजना या असंतोष पैदा करने का प्रयास करे, उसे दोषी सिद्ध होने पर उम्रकैद और जुर्माना या 3 साल की कैद और जुर्माना या केवल जुर्माने की सजा दी जा सकती है.
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"देश विरोधी" नारे और भाषण देने के आरोप में हाल ही में दिल्ली की जेएनयू के छात्रों, दिल्ली विश्वविद्यालय के पूर्व प्रोफेसर एसएआर गिलानी से पहले कार्टूनिस्ट असीम त्रिवेदी, लेखिका और सामाजिक कार्यकर्ता अरुंधती रॉय, चिकित्सक और एक्टिविस्ट बिनायक सेन जैसे कई लोगों पर राजद्रोह का आरोप लगा.
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सन 1837 में लॉर्ड टीबी मैकॉले की अध्यक्षता वाले पहले विधि आयोग ने भारतीय दंड संहिता तैयार की थी. सन 1870 में ब्रिटिश औपनिवेशिक प्रशासन ने सेक्शन 124-A को आईपीसी के छठे अध्याय में जोड़ा. 19वीं और 20वीं सदी के प्रारम्भ में इसका इस्तेमाल ज्यादातर प्रमुख भारतीय राष्ट्रवादियों और स्वतंत्रता सेनानियों के लेखन और भाषणों के खिलाफ हुआ.
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पहला मामला 1891 में अखबार निकालने वाले संपादक जोगेन्द्र चंद्र बोस का सामने आता है. बाल गंगाधर तिलक से लेकर महात्मा गांधी तक पर इस सेक्शन के अंतर्गत ट्रायल चले. पत्रिका में छपे अपने तीन लेखों के मामले में ट्रायल झेल रहे महात्मा गांधी ने कहा था, "सेक्शन 124-A, जिसके अंतर्गत मुझ पर आरोप लगा है, आईपीसी के राजनीतिक वर्गों के बीच नागरिकों की स्वतंत्रता को दबाने के लिए रचे गए कानूनों का राजकुमार है."
सन 1947 में ब्रिटिश शासन से आजादी मिलने के बाद से ही मानव अधिकार संगठन आवाजें उठाते रहे हैं कि इस कानून का गलत इस्तेमाल अपने राजनीतिक विरोधियों के खिलाफ किए जाने का खतरा है. सत्ताधारी सरकार की शांतिपूर्ण आलोचना को रोकना देश में भाषा की स्वतंत्रता को ठेस पहुंचा सकता है.
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सन 1962 के एक उल्लेखनीय 'केदार नाथ सिंह बनाम बिहार सरकार' मामले में भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने कानून की संवैधानिकता को बरकरार रखने का निर्णय लिया था. हालांकि अदालत ने ऐसे भाषणों या लेखनों के बीच साफ अंतर किया था जो “लोगों को हिंसा करने के लिए उकसाने वाले या सार्वजनिक अव्यवस्था पैदा करने की प्रवृत्ति वाले हों.”
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आलोचक कहते आए हैं कि देश की निचली अदालतें सुप्रीम कोर्ट के फैसले को नजरअंदाज करती आई हैं और राज्य सरकारों ने समय समय पर मनमाने ढंग से इस कानून का गलत इस्तेमाल किया है. भविष्य में इसके दुरुपयोग को रोकने के लिए कुछ लोग केंद्र सरकार से सेक्शन 124-A की साफ, सटीक व्याख्या करवाने, तो कुछ इसे पूरी तरह समाप्त किए जाने की मांग कर रहे हैं.