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परमाणु ऊर्जा के पक्ष में नोबेल विजेता

६ जुलाई २०१२

दुनिया भर में भले ही परमाणु ऊर्जा को लेकर बहस छिड़ी हो, फुकुशिमा हादसे के बावजूद नोबेल पुरस्कार जीत चुके विज्ञानियों का कहना है कि परमाणु बिजली के बिना काम नहीं चलने वाला. हालांकि इसे सुरक्षित करना जरूरी है.

तस्वीर: dapd

1986 में केमेस्ट्री का नोबेल पुरस्कार जीतने वाले डुडली हेर्शबाख का कहना है कि आने वाले समय में बिजली की जो जरूरत पड़ने वाली है वह क्षय ऊर्जा से पूरी नहीं हो सकती और दोबारा इस्तेमाल हो सकने वाली ऊर्जा के लिए दबाव बढ़ाना होगा.

हेर्शबाख कहते हैं, “यह सही है कि नए सुरक्षा उपाय खोजने होंगे. परमाणु ऊर्जा के खतरे कम करने होंगे और हो सकता है कि इसे बनाने का तरीका भी बदलना पड़े. लेकिन दुनिया को इस ऊर्जा की जरूरत है. फ्रांस हमारे सामने एक मिसाल है.”

दुनिया में कुल बिजली का सिर्फ 14 प्रतिशत परमाणु ऊर्जा से आता है लेकिन इसका आधा हिस्सा अमेरिका, फ्रांस और जापान में खर्च होता है. पिछले साल जापान के फुकुशिमा हादसे के बाद परमाणु ऊर्जा पर कई सवाल उठे. सर्वश्रेष्ठ और बेहतरीन सुरक्षा के लिए मशहूर जर्मनी ने 2022 तक सभी परमाणु रिएक्टरों को बंद करने का फैसला कर लिया है.

डुडली हेर्शबाखतस्वीर: DW

डॉक्टर हेर्शबाख कहते हैं, “नए प्रयोग की जरूरत है. हो सकता है कि रेडियोएक्टिव तत्वों को कम करने में कामयाबी मिल जाए. यह भी हो सकता है कि 10 साल में प्रयोगों के नए नतीजे आ जाएं और जर्मनी फैसले पर दोबारा विचार करे.”

भारत और परमाणु ऊर्जा

जहां तक भारत का सवाल है, वहां 20 परमाणु रिएक्टर कार्यरत हैं लेकिन तीन फीसदी से भी कम बिजली परमाणु ऊर्जा से बनती है. हालांकि भारत इसे आने वाले 25 साल में बढ़ा कर लगभग 10 प्रतिशत करना चाहता है. पिछले दशक में भारत ने अमेरिका के साथ परमाणु करार किया है, जिसके बाद दुनिया भर की परमाणु शक्तियों ने उसके लिए दरवाजे खोल दिए हैं. डॉक्टर हेर्शबाख भी मानते हैं कि जिस तरह भारत की ऊर्जा जरूरत बढ़ रही है, उसे देखते हुए उसे दोबारा इस्तेमाल वाली ऊर्जा पर ज्यादा ध्यान देना होगा.

हालांकि सुरक्षा और परमाणु कचरे को लेकर हेर्शबाख चिंतित दिखे, “अमेरिका में 30 साल से कोई नया परमाणु रिएक्टर नहीं बना है. ऐसे में आधुनिकीकरण को लेकर सवाल उठता है. परमाणु कचरे को फेंकने का आज तक कोई इंतजाम नहीं हो पाया है.”

कचरे की चिंता

दुनिया भर में करीब 430 परमाणु रिएक्टर हैं और इतनी ही जगहों पर परमाणु कचरा जमा हो रहा है. यह ढेर लगातार बढ़ रहा है. यह जहरीला रेडियोएक्टिव तत्व है और सेहत के लिए बेहद खतरनाक हो सकता है. दुनिया इसके निपटारे के लिए अब तक कोई उपाय नहीं खोज पाई है.

भारत का परमाणु रिएक्टरतस्वीर: AP

विज्ञानियों का मानना है कि धरती के नीचे सुरंग में इसके लिए तहखाना बनाना ठीक होगा. लेकिन अभी तक ऐसी एक भी व्यवस्था तैयार नहीं हो पाई है. कचरे का दोबारा इस्तेमाल भी संभव है और कचरे के ज्यादातर प्लूटोनियम और यूरेनियम को दोबारा ऊर्जा बनाने के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है. लेकिन अभी तक कहीं भी रिप्रोसेसिंग का काम शुरू नहीं हुआ है.

क्या होगा भविष्य में

अमेरिकी विज्ञानी रॉबर्ट लॉघलिंग को 1998 में फीजिक्स का नोबेल पुरस्कार मिल चुका है. उनका कहना है कि मानव जाति अपने “स्वार्थ” की वजह से परमाणु ऊर्जा नहीं छोड़ सकता. उनका कहना है कि दुनिया भर से 60 से 100 साल में तेल का भंडार खत्म हो जाएगा, कार्बन का भंडार शायद 200 साल तक चल जाए लेकिन इसके बाद क्या होगा. लॉघलिंग कहते हैं कि बुनियादी तौर पर तीन चीजों कारों, विमानों और घरों की बिजली के लिए ऊर्जा की जरूरत होगी और मनुष्य इतना स्वार्थी है कि वह सस्ते विकल्प को ही चुनेगा.

उनका कहना है, “जब बिजली जाती है, तो सरकारें गिर जाती हैं. रूस में मेरे दोस्त रहते हैं और उनका कहना है कि स्टालिन को भी इस बात का पता था कि बिजली नहीं जानी चाहिए. यह जरूरी है और भविष्य में निश्चित तौर पर आपको परमाणु ऊर्जा की जरूरत पड़ेगी. हम ऐसे भविष्य की बात कर रहे हैं, जहां प्राकृतिक तेल नहीं होगा, कोयला नहीं होगा और परमाणु ऊर्जा सस्ती है. तो मेरा यह मानना है कि बिजली कहीं से आएगी. वह परमाणु ऊर्जा हो सकती है या कुछ और हो सकता है. जहां से भी आएगी, उसे सस्ती होनी चाहिए.”

रिपोर्टः अनवर जे अशरफ, लिंडाऊ (जर्मनी)

संपादनः महेश झा

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