इंसान अफ्रीका से पूरी दुनिया में फैला. शहर और देश तो हजारों साल बाद बने. इंसान की शुरुआत जब एक ही बिंदु से हुई तो आज दुनिया भर में इंसानी संस्कृतियां इतनी अलग क्यों हैं. एक जर्मन वैज्ञानिक ने इसका जवाब खोजा है.
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इन दिनों छोटे बच्चों की मुलाकात भी दुनिया भर के लोगों से होती है. स्कूल में ही वे अलग अलग पृष्ठभूमि से आने वाले बच्चों से मिलते हैं. मनोविज्ञानी हाइडी केलर की स्टडी का विषय है कि बच्चे अलग अलग संस्कृतियों में किस तरह पलते बढ़ते हैं और परवरिश उनके सामाजिक रवैये पर क्या असर डालती है. प्रोफेसर केलर कहते हैं, "हम पहले दिन से ही अपने सामाजिक ग्रुप या समुदाय की रोजमर्रा की जिंदगी में हिस्सा लेते हैं. उनमें बड़ा अंतर है, इसलिए जिंदगियां भी एक दूसरे से अलग होती हैं."
परवरिश से आता अंतर
हाइडी केलर पिछले 30 सालों से संस्कृति और परवरिश के बीच के रिश्ते पर काम कर रही हैं. एक अनोखे रिसर्च प्रोजेक्ट के तहत उनकी टीम ने दुनिया भर की 250 मांओं और उनके बच्चों की फिल्म बनाई है. इनमें ईसाई, मुस्लिम और हिंदुओं के अलावा पढ़े लिखे तथा अनपढ़ लोग हैं. इनमें अकेले माता या पिता भी हैं और बड़े परिवार भी.
उन्होंने खासकर शहरी और गांव में रहने वाले परिवारों के बीच बहुत अंतर पाया है. एनसो जाति के लोग कैमरून के गांव में रहते हैं. किसान समुदाय के बच्चे शुरू से ही समुदाय का हिस्सा होना सीखते हैं. छोटे बच्चों के लिए भी अपने से छोटों की देखभाल करना सामान्य बात है.
बातें, जो हम याद नहीं रखना चाहते
बचपन, इंसान के लिए ये परिलोक सा समय होता है. बचपन में हर कोई धीरे धीरे जिंदगी की तालीम ले रहा होता है. इस दौरान कई चीजें होती हैं जो बड़े होकर हम याद नहीं रखना चाहते है.
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नाक चाटना
सर्दी या जुकाम होने पर नाक बहती है. आम तौर पर दुनिया भर में ज्यादातर बच्चे नाक से बहने वाले लसलसे पदार्थ को चाटते हैं और नाक साफ करवाने से भागते हैं.
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बिस्तर गीला करना
रात में सोये और सुबह देखा तो बिस्तर गीला. बचपन में ऐसा होना बहुत सामान्य बात है. लेकिन बड़े होने के बाद लोग इसे याद नहीं रखना चाहते.
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कपड़ों में पॉटी करना
दुनिया का हर शख्स बचपन में इस प्रक्रिया से गुजर चुका है. मां को या घरवालों को बच्चों को ढंग से पॉटी करना सिखाने में काफी वक्त लगता है. इसके बावजूद कभी कभार बच्चे स्कूल से लौटते हुए कपड़ों में पॉटी कर ही देते हैं.
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सब कुछ मुंह में डालना
घुटनों के बल चलते हुए बच्चे जमीन पर जो मिला उसे उठा लेते हैं और मुंह में डाल देते हैं. कुछ बच्चे अंगूठा भी चूसते हैं. बड़े होकर लोग यह चर्चा ही नहीं करते कि वो बचपन में क्या क्या खा लिया करते थे.
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जबरदस्त जिद करना
साल भर के होने और धीरे धीरे चलना शुरू करने के बाद बच्चे आम तौर पर बहुत जिद्दी होने लगते हैं. अगर उनकी जिद पूरी न की जाए तो वो या तो नाराज हो जाते हैं या रोने लगते हैं. कभी कभार तो वो जिद से मां बाप को भी शर्मिंदा कर देते हैं.
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आंख में साबुन जाने पर रोना
कुछ बच्चे नहाने से घबराते हैं तो कुछ शौक से नहाते हैं, लेकिन दोनों ही स्थितियों में अगर आंख में साबुन गया तो वो बुरी तरह रोने लगते हैं. बड़े होने के बाद भी आंख में साबुन जाने पर जलन तो होती है लेकिन रोना नहीं होता.
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तेज आवाज से घबराना
प्रेशर कुकर की सीटी बजे, कुत्ता भौंके, हॉर्न बजे या कोई जोर से बोले, लाड़ प्यार के बीच पहले वाले बच्चे अचानक तेज आवाज से घबरा जाते हैं और रोने लगते हैं.
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गोद में आना और जाना
एक बार चलना सीखने के बाद बच्चे हर वक्त चलना चाहते हैं. थकने के बाद वो गोद में उठाने की जिद करते हैं और पर्याप्त आराम मिलते ही फिर से नीचे रखने की जिद.
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सामान तितर बितर करना
बच्चे जो हाथ लगा उसे उठा लेते हैं और कहीं रख या फेंक देते हैं. बच्चों की इन हरकतों के कारण कई बार परिवार के लोग चाबियां, चश्मा या जूता खोजते खोजते परेशान हो जाते हैं.
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सुई लगाने पर रोना
बच्चों को इंजेक्शन लगवाना या उनके बाल या उनके नाखून काटना, ये आसान काम नहीं. ज्यादातर बच्चे इस दौरान इतना रोते हैं कि दिल पसीज जाता है लेकिन मन मारकर ये काम तो करने ही पड़ते है.
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केलर कहती हैं, "दिलचस्प बात यह है कि वे ऐसा बिना डांट सुने या बिना ये करो या वो करो कहे भी ऐसा करते हैं. वे देखकर सीखते हैं, वे दूसरों की नकल करते हैं और जिम्मेदारी लेते हैं. जबकि हमारे यहां आप अक्सर बहस होते देखेंगे कि कुछ कैसे किया जाए, कि बच्चा कोट पहने या नहीं."
पश्चिमी देशों में बचपन
ओस्नाब्रुक यूनिवर्सिटी की बेबी लैब में मनोविज्ञानी इस बात का पता करने में लगे हैं कि ये अंतर कहां पैदा होता है और पश्चिमी देशों की मांएं अपने बच्चों के साथ कैसे डील करती हैं. जब बच्चे खेल रहे होते हैं तो मां बाप अपने बच्चों से बात करते हैं, उनसे सवाल करते हैं और जानने की कोशिश करते हैं कि उन मन में क्या चल रहा है. ध्यान बच्चे के मनोविज्ञान और उसकी भावनाओें पर दिया जाता है. केलर पश्चिमी देशों के लालन पालन के बारे में कहती हैं कि यहां, "एकदम छोटे बच्चों को भी बताया जाता है कि उनके अंदर क्या हो रहा है. अंदरूनी दुनिया का महत्व, सिर्फ मौजूदा व्यवहार ही नहीं बल्कि आप क्या सोच रहे हैं, क्या महसूस कर रहे हैं, क्या करना चाहते हैं और आपके इरादे. ये ऐसी चीजें हैं जो औपचारिक शिक्षा से जुड़ी हैं."
रिसर्चर इस बात की जांच कर रहे हैं बच्चे के अहं पर उसकी परवरिश का क्या असर होता है. आईने में किया गया टेस्ट दिखाता है कि बच्चे खुद को पहचानना कितनी जल्दी सीख जाते हैं. यह इस बात का सबूत है कि वे खुद को एक शख्स के रूप में देखते हैं. जर्मनी का 2 साल का लॉरेंस भी यही कर रहा है.
कई देशों में सामाजिक भूमिका अहम
लेकिन कैमरून के बच्चे चार साल के होने से पहले खुद को दर्पण में नहीं पहचान पाते. आईने से पहला संपर्क उन्हें ढेर सारी मस्ती का मौका देता है. केलर इसे असामान्य नहीं मानतीं, "हमारे यहां खुद को पहचानना प्राथमिकता होती है. एनसो बच्चे इसके बारे में बहुत बाद में सीखते हैं. इसलिए नहीं कि उनका विकास धीमा था, बल्कि इसलिए कि दूसरी चीजें ज्यादा महत्वपूर्ण होती हैं, जैसे सामाजिक जिम्मेदारी. हमारे समाज में बच्चे खुद को स्वतंत्र शख्सियत के तौर पर देखते हैं जो दूसरों से अलग हैं."
पेरेंटिंग के अजब गजब चलन
दुनिया की अलग अलग जगहों पर बच्चों को पालने के तरीकों में काफी अंतर दिखता है. कहीं के आम चलन को कहीं और बेहद अजीब माना जा सकता है.
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बच्चे का प्रैम फुटपाथ पर छोड़ना
डेनमार्क में माता पिता बाजार में थोड़ी देर के लिए बच्चागाड़ी में बच्चे को अकेला छोड़ कर खरीदारी करने जाने को कोई बड़ी बात नहीं मानते. यहां तक अक्सर भीड़भाड़ और धुएं वाले रेस्तरां में माता पिता अपने बच्चे को ले जाने के बजाय उन्हें खुले फुटपाथ पर ही किनारे छोड़कर जाना पसंद करते हैं.
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बच्चे को बाहर ठंड में सुलाना
स्वीडेन, फिनलैंड जैसे कई नॉर्डिक देशों में कई पीढ़ियों से छोटे बच्चों को कुछ देर के लिए बाहर ठंड में रखने की परंपरा है. मांएं मानती है कि इससे बच्चा तंदरुस्त बनता है और आगे चल कर अत्यधिक ठंड के साथ ठीक से तालमेल बिठा पाता है. विज्ञान ने अभी तक इन धारणाओं की पुष्टि नहीं की है. जाहिर है बच्चों को पर्याप्त कपड़े पहनाए जाते हैं और उन्हें गर्म रखने के लिए कंबल भी ओढ़ाया जाता है.
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बच्चों को बीयर पीने देना
बच्चों में मोटापे की समस्या से निपटने के लिए 2001 में बेल्जियम के बीयर लवर्स क्लब ने एक खास उपाय निकाला. उनका प्रस्ताव था कि अगर बच्चे पानी की जगह सोडा पीना पसंद करते हैं तो उन्हें सोडा की जगह हल्की बीयर दी जाए. इसे दिखाते हुए एक सफल पायलट प्रोजेक्ट भी चला लेकिन बेल्जियन सरकार ने इसे राष्ट्रीय स्तर पर कभी मान्यता नहीं दी.
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जहां बच्चे पीते हैं जानलेवा शराब
यूरोप में करीब एक तिहाई जानें शराब के कारण जाती हैं. इसके बावजूद यूरोपीय देश क्रोएशिया में कई माता-पिता अपने प्राइमरी स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों को महीने में कई बार अल्कोहल पीने देते हैं. कुछ आंकड़े दिखाते हैं कि आठवीं कक्षा तक पहुंचते पहुंचते करीब 30 फीसदी लड़के और 12 फीसदी लड़कियां हफ्ते में कई दिन शराब पीने लगते हैं.
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नवजात बच्चे से एक महीने तक दूर
चीन में कुछ जगहों पर नवजात बच्चे की मां को गर्भावस्था और जन्म देने की कठिन प्रक्रिया से उबरने के लिए कुछ समय देने का चलन है. एक महीने के लगभग मांएं घर में रहकर खास तरह का भोजन और दिनचर्या अपनाती हैं. महिला इस दौरान बच्चे को दूध पिला सकती है, लेकिन बच्चे के बाकी काम और देखभाल परिवार के अन्य लोग करते हैं.
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तथाकथिक मार्शमैलो टेस्ट दिखाता है कि बच्चे खुद को कितनी अच्छी तरह से कंट्रोल कर सकते हैं. बच्चों को लोकप्रिय मिठाई पफ पफ दी जाती है. यदि वे दस मिनट तक पर खुद को रोक पाते हैं तो उन्हें पुरस्कार रूप दूसरी टॉफी दी जाती है. इसी तरह यह सिलसिला आगे बढ़ता है. टेस्ट से पता चला है कि अधिकांश एनसो बच्चे ज्यादा संयमित होते हैं और ललक उनके नियंत्रण में होती है.
प्रो. हाइडी केलर के मुताबिक, "एनसो बच्चे विनम्रता सीखते हैं, वे ग्रुप से बाहर न निकलना सीखते हैं. वे अपने को स्थिति के अनुरूप ढाल सकते हैं. यदि उन्हें कहीं बैठकर इंतजार करने को कहा जाता है तो वे करते हैं."
बच्चों संयम रखना सीखना होता है और बाद में पुरस्कार का इंतजार करना पड़ता है. 8 साल की उम्र से दिमाग का वह हिस्सा विकसित होने लगता है जो तरीके से सोचने और आवेग को नियंत्रित करने के लिए जिम्मेदार है. हाइडी केलर बच्चों और उनके माता पिता को महसूस कराना चाहती हैं इस तरह के सांस्कृतिक अंतर सामान्य हैं और वे बच्चों से अलग अलग पेश आएं.