भारत के कई हिस्सों में पारा 45 डिग्री के पार पहुंचने से राहत की तलाश में लाखों लोग मशहूर पर्वतीय ठिकानों का रुख कर रहे हैं. पर्यटकों और उनके वाहनों के बढ़ते बोझ से पहाड़ियों पर बोझ काफी बढ़ रहा है.
तस्वीर: DW/P. Mani
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भारी तादाद में पर्यटकों और उनके वाहनों का बोझ बढ़ने से पहाड़ियां कराह रही हैं और पर्यावरण संतुलन गड़बड़ाने लगा है. इलाके में मीलों लंबा ट्राफिक जाम लग रहा है और वाहनों को पार्क करने की जगह नहीं होने की वजह से कई किलोमीटर पहले ही उनको खड़ा करना पड़ रहा है. लगातार बढ़ती भीड़ इसके चलते पानी का संकट भी गंभीर हो हो रहा है. होटलों में जगह नहीं होने की वजह से सैकड़ों लोग कारों में और खुली जगहों पर सोने को मजबूर हैं.
हर जगह भीड़
पूर्वी भारत के सिक्किम और दार्जिलिंग जैसे पर्वतीय केंद्र हों या फिर उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश के, हर जगह एक जैसा नजारा है. इन पर्वतीय शहरों तक पहुंचने के लिए पहले तो घंटों ट्रैफिक जाम में खड़ा रहना पड़ता है और फिर उसके बाद किसी तरह पहुंचे भी तो न होटलों में जगह और न ही रेस्तरां में. पारा चढ़ने के साथ भारी गर्मी से निजात पाने के लिए कई लोग पहले से बुक किए बिना ही पहाड़ों पर पहुंच रहे हैं. लेकिन उनको यहां गर्मी से राहत भले मिल जाती हो, होटल या पार्किंग की जगह नहीं मिलती. नतीजतन सैकड़ों लोग अपनी कारों में या खुले में रात गुजार रहे हैं या फिर अपनी किस्मत को कोसते हुए वापस जा रहे हैं. दिल्ली से दार्जिलिंग पहुंचे किशोर कुमार सक्सेना कहते हैं, "उत्तराखंड व हिमाचल की पहाड़ियों की भारी भीड़ के वजह से मैंने सपिरवार दार्जिलिंग आने का फैसला किया था. लेकिन यहां भी नजारा वैसा ही है. सड़कों और माल चौराहे पर उमड़ने वाली भारी भीड़ दिल्ली के चांदनी चौक की याद दिला रही है.” वह बताते हैं कि एक छोटे से कमरे के लिए उनको तीन-गुना किराया देना पड़ रहा है.
दार्जिलिंग में टॉय ट्रेन से सवारी करना पर्यटकों में काफी लोकप्रिय है.तस्वीर: picture-alliance/AP Photo/B. Das
सिक्किम की राजधानी गंगटोक और दूसरे पर्यटन केंद्रों में भी पर्यटकों की भारी भीड़ है. वहां पहुंचने वाले लोगों को न तो रहने की जगह मिल रही है और न ही घूमने के लिए जगह. कारों के साथ पहुंचने वालों को भी घंटों ट्रैफिक जाम में फंसना पड़ रहा है. इसके अलावा उनको अपनी कारें होटलों से काफी दूर जाकर पार्क करनी पड़ रही है. मुंबई से यहां पहुंचे मोहन वाधवानी कहते हैं, "कार को पार्क करने के लिए आधे घंटे की दूरी तय करनी पड़ती है.”
हिमालयन हास्पीटैलिटी एंड टूरिज्म डेवलेपमेंट नेटवर्क के सचिव सम्राट सान्याल बताते हैं, "गंगटोक, दार्जिलिंग और कालिम्पोंग जैसे पर्यटन केंद्रों पर तमाम होटल पूरी तरह बुक हैं. अबकी बीते साल से ज्यादा पर्यटक यहां पहुंच रहे हैं.” लेकिन इसकी वजह क्या है? इस सवाल पर वह बताते हैं कि लोकसभा चुनावों के चलते अबकी पहाड़ियों में पर्यटन का सीजन देरी से शुरू हुआ है. लगातार चढ़ते पारे की वजह से रिकार्ड तादाद में लोग पहाड़ियों की ओर भाग रहे हैं.
उत्तराखंड खासा प्रभावित
उत्तराखंड में नैनीताल, कौसानी, रानीखेत और मसूरी समेत तमाम पर्यटन केंद्रों की हालत भी बेहतर नहीं है. पर्यटन विभाग के सूत्रों का कहना है कि अकेले मसूरी में बीते 25 दिनो के दौरान दो लाख से ज्यादा पर्यटक आए हैं. नैनीताल प्रशासन ने पर्यटकों से फिलहाल शहर में आने की बजाय हल्द्वानी और भवाली जैसी जगहों पर ठहरने की अपील की है. इसकी वजह यह है कि न तो होटलों में कमरे हैं और न ही वाहनों को पार्क करने की जगह. नैनीताल के जिला पर्यटन अधिकारी अरविंद गौड़ आंकड़ों के हवाले बताते हैं कि बीती 20 मई से अब तक चार लाख से ज्यादा पर्यटक इस शहर में पहुंचे हैं. भीड़ की वजह से माल रोड पर पैदल चलना तक मुश्किल हो गया है.
वह बताते हैं कि जिला प्रशासन इस समस्या से निपटने के लिए वाहनों को पार्क करने की नई जगह बना रहा है. प्रशासन ने पर्यटकों से अपने वाहन लेकर नैनीताल नहीं आने को कहा है. फिलहाल झील और प्राकृतक सौंदर्य के लिए मशहूर इस शहर में घुसने से पहले मीलों लंबा जाम लग रहा है.
उत्तराखंड से सटे हिमाचल प्रदेश के शिमला व मनाली जसी जगहों पर किसी भी होटल में तिल धरने तक की जगह नहीं है. हिमाचल प्रदेश होटल एंड रेस्टोरेंट ओनर्स एसोसिएशन के अध्यक्ष गजेंद्र ठाकुर ने पर्यटकों को पहले से बुकिंग कराए बिना इन जगहों पर नहीं आने की सलाह दी है. हिमाचल में तीन हजार से ज्यादा होटल और लगभग डेढ़ हजार होम स्टे हैं. लेकिन 20 जून तक यह तमाम कमरे बुक हैं.
पर्वारणविदों ने मौजूदा स्थिति पर गहरी चिंता जताते हुए कहा है कि पर्यटकों की तादाद तेजी से बढ़ने की वजह से इलाके की आधारभूत व्यवस्था के साथ पर्वारण संतुलन भी गड़बड़ा रहा है. हजारों की तादाद में पहुंचने वाले वाहन इलाके में प्रदूषण बढ़ा रहे हैं. दार्जिलिंग के पर्यावरणविद नरेंद्र लामा कहते हैं, "इस भीड़ के नियमन का एक तंत्र विकसित किया जाना चाहिए. लगातार बढ़ती भीड़ किसी भी समय हादसों की वजह बन सकती है. इसके अलावा पर्यावरण को तो नुकसान हो ही रहा है. संबंधित सरकारी एजंसियों को इस पर ध्यान देना चाहिए.”
हाथ के पंखे नायाब होते जा रहे हैं. किसी जमाने में ऐसे पंखे बनाना हुनर माना जाता था. देखिए कुछ हाथ से चलने वाले नायाब पंखे.
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19वीं सदी का पंखा
जाने माने पेंटर जतिन दास ने भुवनेश्वर में पंखों का एक म्यूजियम बनाया है. इसमें दुनिया भर से जमा किए गए 8.5 हजार से ज्यादा हाथ के पंखे हैं. इनमें से पांच सौ चुनिंदा पंखों को दिल्ली की प्रदर्शनी में पेश किया गया है. राधा और कृष्ण की तस्वीर वाला यह पंखा 19वीं सदी का है, जो कभी राजस्थान के नाथद्वार मंदिर में इस्तेमाल होता था.
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डांसिंग डॉल
फिल्म अभिनेत्री नंदिता दास के पिता जतिन दास के पंखों के कलेक्शन में भारत के अलावा चीन, जापान, कोरिया, बर्मा, बांग्लादेश, श्रीलंका, इंडोनेशिया, अफ्रीका और मिस्र जैसे देशों के पंखे भी शामिल हैं. उनके मुताबिक इन पखों की कीमत दो हजार से लेकर बीस लाख रुपये तक है. यह तस्वीर एक जापानी पंखे की है जिसे डांसिंग डॉल का नाम दिया गया है.
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दुनिया भर के पंखे
76 वर्षीय जतिन दास कहते हैं कि वे जब भी किसी देश की यात्रा पर जाते हैं, तो वहां के पंखे हासिल करने की कोशिश करते हैं. उनके मुताबिक, "मैं भारत में किसी चौकीरदार, बावर्ची या चपरासी से कहता हूं कि वह अपनी मां के बनाए पंखे मुझे लाकर दे. पहले तो वे हंसते हैं लेकिन फिर अपने घर से पंखे लाकर देते हैं और वे नायाब होते हैं. इस तस्वीर में मौजूद पंखा चीन का है."
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इस्तांबुल का शाही पंखा
ये पंखा तुर्की के बादशाह के पंखे की नकल है. इसे इस्तांबुल के सोफिया म्यूजियम से हासिल किया गया. इस पंखे में मोती जड़े हैं और यह 18वीं सदी के आखिर का है. इस तरह के शाही पंखों में खालिस सोने का इस्तेमाल होता है और उनके किनारों पर मोती लगे होते हैं. इस पंखे को सफेद बत्तख और मोर के पंखों से तैयार किया जाता है.
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परों वाले पंखे
खूबसूरत परों वाले इन पंखों का इस्तेमाल कभी शाही परिवारों या फिर धार्मिक स्थलों पर किया जाता था. ये पर मोर, शुतुरमुर्ग, हंस या फिर दूसरे पक्षियों के होते हैं. परों को मिलाकर सिलाई की जाती है और उनके चारों तरफ बेहतरीन कपड़े या कीमती पत्थर लगाए जाते हैं. इन पंखों का इस्तेमाल मंदिरों में मूर्तियों को पंखा झलने में भी होता था.
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ताड़ के पंखे
ताड़ के पत्तों से बने पंखों का इस्तेमाल अब भी भारत और पाकिस्तान में खूब होता है. यहां तस्वीर में दिखाया गया पंखा मंदिरों के शहर बनारस से है. इन पंखों को खूबसूरत बनाने के लिए इन पर पेंटिग भी की जाती है. जतिन दास कहते हैं कि इस संग्रह को उन्होंने पिछले 40 बरसों के दौरान जमा किया है.
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कसीदाकारी वाले पंखे
कभी कभी कसीदाकारी को भावनाएं व्यक्त करने का माध्यम भी बनाया जाता है. खूबसूरत डिजाइन और दिलचस्प पैटर्न वाले ये पंखे दस्तकारों के महारथ का सबूत है. इनमें अलग अलग की तरह की सिलाई होती है. इन्हें शीशों और पत्थरों से सजाया जाता है. अपनी खूबसूरती की वजह से यह कई बार दुल्हन के दहेज का भी हिस्सा होते हैं.
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खस के पंखे
खस एक किस्म की घास है, जो भींगने के बाद बहुत अच्छी खुशबू देती है. इसीलिए इन पंखों को इस्तेमाल करने से पहले पानी से भिगोया जाता है. एक जमाने में घरों में खस के पंखे बहुत आम थे, लेकिन अब ये कहीं कहीं ही दिखाई देते हैं. ऐसे पंखों के दस्ते यानी उनके पकड़ने वाली जगह आम तौर पर बांस की बनी होती है.
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रंग बिरंगे पंखे
दस्ती पंखे कई तरह की घास के बनाए जाते हैं. अलग अलग रंगों का इस्तेमाल कर इन्हें खूबसूरत बनाया जाता है. उप महाद्वीप में यह हुनर मां से बेटी को मिलता है. भारत के उत्तर प्रदेश और उड़ीसा राज्यों में इस तरह की घास के पंखे बनाए जाते हैं. आम तौर पर गांवों में बिजली गुल रहने की वजह से इन पंखों का खूब इस्तेमाल होता है.
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जरदोजी वाले पंखे
जरदोजी एक तरह की कसीदाकारी ही है लेकिन इसमें मखमल के कपड़े पर चांदी या सोने के धागे से कढ़ाई की जाती है. इसके लिए एक खास तरह की सुई इस्तेमाल की जाती है. किसी पेंसिल या स्टेंसिल के जरिए डिजाइन उतारा जाता है और फिर उस पर जरदोजी की जाती है. इसे और खूबसूरत बनाने के लिए इसमें मोती या पत्थर लगाए जाते हैं.
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मोतियों वाले पंखे
इस तरह के मोतियों वाले पंखे तैयार करने में काफी मेहनत लगती है. ऐसे पंखे गुजरात के कच्छ इलाके में बनाए जाते हैं. आदिवासी महिलाओं को इन्हें तैयार करने में महारथ है. वे पंखों पर डिजाइन बनाने के लिए प्लास्टिक के धागों का इस्तेमाल करती हैं. पंखे के किनारों को सुंदर बनाने के लिए आम तौर पर ऊन या धागे का इस्तेमाल किया जाता है.
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चमड़े के पंखे
ये पंखे आम तौर पर भारत के पश्चिमी हिस्से में मिलते हैं. पुरूष इन पंखों को खास तौर पर पसंद करते हैं. एक खास तकनीक से इन पर पैटर्न बनाए जाते हैं. शीशे और पत्थर भी लगाए जाते हैं. ऐसे पंखे बनाने के लिए आम तौर पर ऊंट का चमड़ा इस्लेमाल होता है. अफ्रीका और इंडोनेशिया में भी चमड़े के पंखे लोकप्रिय हैं.
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धातु के पंखे
धातु के इस्तेमाल से कोई भी क्षेत्र अछूता नहीं है. इससे पंखे भी बनाए जाते हैं. ऐसे पंखे तैयार करने में आम तौर पर चांदी या तांबे का इस्तेमाल किया जाता है. इन पंखों को शाही या धार्मिक कार्यक्रमों में प्रतीक के तौर पर इस्तेमाल किया जाता है. इन पर बेहद बारीकी से नक्काशी की जाती है.
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यादगार पंखे
किसी जमाने में खास कार्यक्रमों के लिए विशेष पंखे तैयार किए जाते थे. ये अलग अलग साइज और डिजाइन के होते हैं. इन पर कई बार विशेष कार्यक्रमों के आयोजकों का नाम भी होता है, ताकि उन्हें बाद में भी याद रखा जा सके. यह तस्वीर इसी तरह के एक यादगार पंखे की है.
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बांस के पंखे
बांस का इस्तेमाल अलग अलग चीजें तैयार करने के लिए किया जाता है. दुनिया के बहुत से हिस्सों में बांस के पंखे लोकप्रिय हैं. इसके लिए पहले बांस से पतली तैयार की जाती हैं. उन्हें अलग अलग रंगों में रंगा जाता है और फिर अपनी पसंद के डिजाइन के हिसाब से उनसे पंखे तैयार किए जाते हैं.