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पर्यावरण की पढ़ाई में मुश्किलें

१७ सितम्बर २०१३

जर्मनी के अलग अलग राज्यों के स्कूलों में टिकाऊ विकास को सिलेबस में जगह दी जा रही है, हालांकि इसके लिए राष्ट्रीय स्तर पर साझा लक्ष्य तय करने में दिक्कत हो रही है.

तस्वीर: picture-alliance/dpa

कोलोन के बाहरी हिस्से में मौजूद एर्न्स्ट माख हाई स्कूल को पर्यावरण के लिए अपने दोस्ताना रवैये पर गर्व है. स्कूल में बिजली की जरूरत का कुछ हिस्सा सोलर बैट्रियों से आता है, स्कूल अपने लिए सब्जियां खुद उगाता है और पर्यावरण के लिए जागरूक बनाने का विषय हर छात्र के लिए पढ़ना जरूरी है. पर्यावरण से जुड़ी स्कूल की ये गतिविधियां महज संयोग से नहीं हैं. यह स्कूल जर्मन प्रांत नॉर्थराइन वेस्टफेलिया के सरकारी कार्यक्रम "स्कूल ऑफ फ्यूचर" में शामिल है. यह कार्यक्रम 2009 में शुरू हुआ और इससे करीब 690 स्कूल जुड़े हुए हैं.

कार्यक्रम के संयोजक और जीवविज्ञान के शिक्षक थॉमस क्नेष्टेन स्कूल के बाहर अपने थोड़े बड़े छात्रों के साथ एक पार्क में पेड़ों से पहचान कराने वाला रास्ता बनाने में जुटे हैं. इस रास्ते पर लगे पेड़ छोटे छात्रों के लिए पत्तियों, फलों या फूलों को पहचानने और उनके बारे में जानने का जरिया बनेंगे. कनेष्टेन कहते हैं, "इस प्रोजेक्ट का मकसद टिकाऊ विकास से जुड़े विषयों को हमारे राज्य के स्कूलों में शामिल कराना है.

तस्वीर: DW/S. Oneko

बड़ी तस्वीर

पर्यावरण के बारे में शिक्षा को स्कूलों में शामिल कराना दुनिया के एजेंडे में 1992 में ही आ गया. रियो दे जनेरो में पर्यावरण और विकास पर हुए अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन में तब दुनिया भर के नेता जुटे थे. हालांकि उसके बाद के 10 सालों में ज्यादा कुछ नहीं बदला. 2005 में यूनेस्को ने अगले 10 सालों के लिए टिकाऊ विकास के लिए शिक्षा नाम से नया अभियान शुरू किया जो अगले साल खत्म होने वाला है.

जर्मनी के लिए यह अभियान कारगर साबित हुआ और स्कूलों में इसकी शुरूआत हो गई. जर्मनी में शिक्षा का रूप, रंग और ढांचा संघीय सरकार नहीं बल्कि यहां के 16 राज्यों की अलग अलग सरकारें तय करती हैं. हर राज्य ने पर्यावरण के लिए अपनी अलग तरह से पहल की है. स्कूल ऑफ द फ्यूचर अभियान 2015 में खत्म होना है. इसके बाद सभी स्कूलों को इस कार्यक्रम में प्रदर्शन के आधार पर प्रमाण पत्र मिलेगा.

सुधार की गुंजाइश

अंतरराष्ट्रीय स्तर पर जापान, दक्षिण कोरिया, स्वीडन और ब्रिटेन ने पर्यावरण से जुड़ी शिक्षा के मामले में बढ़त ले ली है. यूनेस्को के टिकाऊ विकास कार्यक्रम के लिए जर्मनी की राष्ट्रीय समिति के प्रमुख गेरहार्ड डे हान इसे स्वीकार करने के साथ ही कहते हैं, "जर्मनी भी अच्छा कर रहा है, राज्य धीरे धीरे शिक्षा की योजना को बदल रहे हैं और विषय सिर्फ प्रस्तावना का हिस्सा नहीं हैं." वेस्टराइन वेस्टफेलिया जैसे कार्यक्रम पूरी जर्मनी चल रहे हैं. हालांकि यह सब मुख्य रूप से स्वैच्छिक रूप से ही हो रहा है और शिक्षकों और स्कूलों पर निर्भर है. गेरहार्ड डे हान का कहना है कि ये विषय स्कूलों के आधिकारिक पाठ्यक्रम का हिस्सा होने चाहिए.

तस्वीर: DW/S. Oneko

पर्यावरण से आगे

डे हान का मानना है कि इस तरह के प्रोजेक्ट उन छात्रों के लिए मददगार साबित हो सकते हैं जिन्हें नियमित विषयों में दिक्कत है. उन्होंने कहा, "ये खासतौर से सामाजिक आर्थिक रूप से पिछड़े इलाकों के स्कूलों में काफी असरदार हैं जहां पढ़ाई के अलग तरीकों की जरूरत होती है. अगर आप पारंपरिक तरीकों से छात्रों तक नहीं पहुंच पा रहे तो यह वैकल्पिक तरीके काफी कारगर साबित हो सकते हैं."

हालांकि इसके लिए सबसे पहले शिक्षकों की इस विषय में ट्रेनिंग बहुत जरूरी है. डे हान के मुताबिक इनको पहले से मौजूद विषयों में ही शामिल करना बेहतर होगा.

क्नेष्टेन जब स्कूली छात्र थे तब इस तरह के विषय नहीं थे, हालांकि अब अगर उन्हें यह तय करने का अधिकार मिले तो जर्मन स्कूलों में पर्यावरण और टिकाऊ विकास से जुड़े विषयों को बड़े जोरशोर से रखा जाएगा. वे स्कूल के खेल मैदान में चमचमाते रंग के कंटेनर की तरफ इशारा कर दिखाते हैं. यह कंटेनर स्कूल का स्टॉल है जो कुछ छात्र मिल कर 2 साल से चला रहे हैं. यहां ऑर्गेनिक खाने की चीजें उचित कारोबारी नियमों के तहत बेची जाती हैं और इन्हें लेकर प्रतिक्रिया मिली जुली है. स्टॉल चलाने वाले छात्रों में एक मथियास कहते हैं, "पहले हमारे पास चिकेन बर्गर, पिज्जा और मिठाइयां थीं, लेकिन अब मेरे दोस्त नई चीजें खा रहे हैं हालांकि उन्हें चुनने का मौका मिले तो मुझे लगता है कि वो पिज्जा चुनेंगे." टिकाऊ विकास की पढ़ाई अभी और आगे जानी है.

रिपोर्टः सेला ओनेको/एनआर

संपादनः महेश झा

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