पर्यावरण के दबाव से बदल रहा है मौसम
३ जुलाई २०१२ पिछले 10 वर्षों के आंकड़े देखे तो ऐसे कई उदाहरण मिल जाएंगे जो बताते हैं कि पृथ्वी की जलवायु बदल रही है. ग्लोबल वॉर्मिंग से बदलता मौसम चक्र पृथ्वी की वनस्पति और प्राणी जगत पर तो असर डाल ही रहा है मानव गतिविधियां भी इससे प्रभावित हो रही हैं. हर साल बदलता मौसम तो 'कयामत या प्रलय' के केवल शुरुआती संकेत ही दे रहा है. मौसम के बदलते मिजाज से ग्लोबल वॉर्मिंग का असर लगभग सभी महाद्वीपों पर साफ देखा जा रहा है.
ग्लोबल वॉर्मिंग से सिकुड़ते हिमक्षेत्र की खबरों के बीच पिछले दिनों हिमालय के हिमनदों के बढ़ते फैलाव की खबरें भी सामने आई थीं. लेकिन यह खुशी 5 मई 2012 को दु:स्वप्न में बदल गई जब नेपाल के खूबसूरत पर्यटन स्थल पोखरा के पास स्थित हिमनद से बनी प्राकृतिक झील में दरार पड़ गई और करोड़ों गैलन बर्फीले पानी और मिट्टी के सैलाब ने देखते ही देखते इस खूबसूरत पर्यटक स्थल पर बने रिसॉर्ट सहित कई घर, खेत-खलिहानों को तबाह कर दिया.
अचानक आई इस बाढ़ में विदेशी पर्यटकों सहित 13 लोग तथा कई दर्जन मवेशी मारे गए. बिना किसी बरसात के तटबंध टूटने या मीलों दूर पहाड़ों में हुई बरसात से अचानक आई ऐसी बाढ़ को फ्लैश फ्लड या आकस्मिक बाढ़ कहा जाता है. इसका एक और कारण होता है कि गर्मी के चलते ग्लेशियरों का पानी पहाड़ की ढ़लानों पर बनी झीलों में भरने लगता है और पानी के बढ़ते दबाव से तटबंध टूट जाता है और बाढ़ आ जाती है. नेपाल में ग्लेशियर लेक बर्स्ट होने का यह संभवत: पहला मामला है. विशेषज्ञों के अनुसार इसका एक बड़ा संभावित कारण है ग्लेशियर का तेजी से पिघलना. हिमालय पर्वत श्रृंखला में ऐसी कई झीलें हैं जो ग्लेशियर से बनी हैं.
ग्रीन हाउस के प्रभाव से लगातार गर्म होती जलवायु से हिमनद तेजी से पिघल रहे हैं, नतीजतन पहाड़ों की ढ़लान पर स्थित क्षेत्रों पर फ्लैश फ्लड आने का खतरा बना रहता है. आंकड़ों पर नजर डालें तो पिछले कुछ वर्षों में हिमालय क्षेत्र में स्थित इन झीलों पर ग्लोबल वॉर्मिंग के चलते खतरा मंडरा रहा है. चीन के हिमालयी क्षेत्रों में पिछले कई सालों में ऐसी आकस्मिक बाढ़ आने से जान-माल का भारी नुकसान हुआ है.
इतना ही नहीं, ग्लोबल वॉर्मिंग से हिमनदों के पिघलने से चीन, भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश को भयानक परिणाम भुगतने पड़ सकते हैं. घनी आबादी वाले इन एशियाई देशों के लगभग 100 करोड़ से अधिक लोगों का गुजर-बसर गंगा और ब्रह्मपुत्र जैसी ग्लेशियर से निकलने वाली प्रमुख नदियों से होता है. तेजी से पिघलते हिमनदों से यह जीवनदायिनी नदियां अपने किनारों को तोड़ मैदानी इलाकों में बाढ़ का कहर बरपा सकती हैं, लेकिन यह तो समस्या की शुरुआत है.
हिमनदों का पिघलना सिर्फ एक मौसमी बदलाव मात्र नहीं रहेगा. इसकी वजह से अप्रत्याशित सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक परिणाम भी सामने आएंगे. बाढ़ के दूषित जल से फैली महामारी तथा पीने के पानी का संकट करोड़ों लोगों को प्रभावित क्षेत्र से पलायन पर मजबूर कर देगा. जमीन डूबने और अस्तित्व बचाने के लिए शरणार्थियों तथा विस्थापितों की फौज अन्य शहरों या दूसरे देशों की ओर भी रुख करेगी. यह समस्या दो देशों के बीच तनाव का कारण बन सकती है.
पानी के संकट को दूर करने के लिए सभी देश अपने-अपने क्षेत्रों में बहने वाली नदियों पर बांध बनाकर स्थिति को विस्फोटक बना देंगे. पानी को बांध लेने से दूसरे देशों को पर्याप्त पानी नहीं मिल सकेगा जिसके नतीजे में अंतरराष्ट्रीय संबंध कटु होते चले जाएंगे. भारत-बांग्ला देश के मध्य जारी तीस्ता नदी विवाद इसका एक प्रत्यक्ष उदाहरण है.
बदलते मौसम और पानी के संकट से फसलों की गुणवत्ता पर असर होगा. कम होते अनाज उत्पादन से खाद्य पदार्थों की कीमतें भी ऊंची हो जाएंगी. कुदरत के कहर को झेल रहे गरीबों के सामने खाने-पीने का संकट उत्पन्न हो जाएगा. ग्लोबल वॉर्मिंग से पिघलते हिमनदों पर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी काफी चिंता जताई जा रही है लेकिन किसी न किसी मामले पर विकसित तथा विकासशील देशों के बीच पैदा होने वाले गतिरोध इसका कोई ठोस उपाय निकालने में बाधा बन रहे हैं.
रिपोर्ट: संदीप सिसोदिया, वेब दुनिया
संपादन: महेश झा