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पर्यावरण के लिए अंतरराष्ट्रीय अदालत बने

१ फ़रवरी २०१२

कई दशकों से पर्यावरण बचाने के लिए माथापच्ची कर रही दुनिया अब अलग अलग देशों के कानूनों से ऊब चुकी है. जानकारों का कहना है कि अब अंतरराष्ट्रीय अदालत बनाने का ही रास्ता बचा है, ताकि हमारी गलतियों की सजा अगली पीढी़ ने झेले.

तस्वीर: picture-alliance/dpa

पर्यावरण को लेकर आए दिन दुनिया के किसी हिस्से में बैठक होती है. साल में एक बार शिखर बैठक होती है. दुनिया भर के नेता जब भी बाली या कोपेनहेगन या डरबन में मिलते हैं, तभी लोग समझ जाते हैं कि नतीजा कुछ नहीं निकलने वाला. दो चार दिन में वही होता है, विकसित और विकासशील देशों की दरार सामने आ जाती है या फिर कम या ज्यादा प्रदूषण फैलाने वाले देशों की तकरार. बैठक बिना किसी फैसले के खत्म हो जाती है. दुनिया भर के लोग ठगे ठगे देखते रह जाते हैं.

जानकारों का कहना है कि नियम और कानून की बात बहुत हुई. अब सचमुच धरती को बचाना है, तो इन कानूनों का कोई अंतरराष्ट्रीय पैमाना तय होना चाहिए. पर्यावरण कानून विशेषज्ञ सर्बिया के स्टीवन लिलिच का कहना है कि अंतरराष्ट्रीय अदालत या प्राधिकरण इसका हल हो सकता है. लिलिच कहते हैं, "ऐसा नहीं है कि इस अदालत में फटाफट सजा मिलने लगे. बल्कि इसमें पर्यावरण से जुड़े मामलों के लिए कोई अच्छा समाधान निकाला जा सकता है. कुछ उसी तरह जैसे हेग में अंतरराष्ट्रीय अपराध अदालत है या फिर यूरोपीय संघ का अदालत है."

विजय शर्मातस्वीर: DW

मूल्य का मसला

दुनिया की पर्यावरण राजधानी कहे जाने वाले जर्मन शहर बॉन में मौसमी बदलाव पर अहम बैठक में हिस्सा ले रहे लिलिच का कहना है कि पर्यावरण नैतिकता से ज्यादा मूल्यों का मसला है, "कानून के बारे में बात करने से कोई फायदा नहीं है. दुनिया के हर देश में कड़ा से कड़ा कानून है लेकिन उन पर अमल नहीं किया जाता है. सबसे बड़ी मुश्किल यही है. लेकिन इस बात को भी समझना होगा कि इससे किसी को फायदा नहीं हो रहा है."

जहां तक भारत का सवाल है, वहां पर्यावरण के मामले निपटाने के लिए दो साल पहले राष्ट्रीय ग्रीन ट्राइब्यूनल बना है. बॉन की बैठक में इस ट्राइब्यूनल प्रमुख सदस्य विजय शर्मा शामिल हुए. उनका कहना है, "भारत के नेशनल ग्रीन ट्राइब्यूनल को लेकर जिस तरह दूसरे देशों में उत्सुकता देखी गई, वह संतुष्टि की बात है. अब अंतरराष्ट्रीय पर्यावरण अदालत की बात चल रही है. इस तरह की पहल अच्छी है, जिससे पर्यावरण को बचाने में काफी मदद मिल सकती है."

तालमेल जरूरी

शर्मा का कहना है, "लेकिन पर्यावरण का बचाव तभी हो सकता है, जब विकास और पर्यावरण के बीच तालमेल बिठाया जाए. कई बार पर्यावरण के लिए कानून तो बना दिए जाते हैं लेकिन उन पर कार्रवाई करने के लिए हमारे पास तकनीक नहीं होती. ऐसे में अच्छा कानून भी कुछ नहीं कर सकता." हालांकि ट्राइब्यूनल सदस्य का कहना है कि भारत ने पर्यावरण के लिए बहुत काम किया है और वह उन गिने चुने देशों में शामिल है, जिसने सबसे पहले हवा और पानी प्रदूषण से बचने के लिए कानून बनाए."

तस्वीर: REUTERS

आंकड़ों के मुताबिक चीन दुनिया में सबसे ज्यादा (करीब 23 प्रतिशत) कार्बन डाइऑक्साइड छोड़ने वाला देश है, जबकि दूसरे नंबर पर अमेरिका (लगभग 18 फीसदी) और तीसरे पर भारत (करीब छह फीसदी) है. जहरीले गैस यानी ग्रीन हाउस गैसों में कार्बन डाइऑक्साइड ही सबसे प्रमुख है. पर्यावरण बचाने की वकालत करने और खुद को इसका झंडाबरदार बताने वाले देश जर्मनी और ब्रिटेन भी शीर्ष 10 में शामिल हैं.

जहां तक अंतरराष्ट्रीय पर्यावरण अदालत का सवाल है, ब्रिटेन सहित कुछ देशों में पहले भी इससे मिलती जुलती मांग उठ चुकी है. औद्योगिक विकास के पीछे भाग रहे देश इसमें अड़ंगा लगा देंगे. 1997 में जापानी शहर क्योटो में हुए पर्यावरण समझौते को अभी दुनिया भर के देश मानक के तौर पर मानते हैं. लेकिन दुनिया का सबसे बड़ा प्रदूषक देश अमेरिका इसे नहीं मानता. जानकारों का कहना है कि अगर अंतरराष्ट्रीय अदालत पर रजामंदी बन भी जाती है, तो भी अमेरिका जैसे देश इससे कन्नी काट लेंगे. या फिर यह इतना कमजोर होगा कि इसका होना न होना बराबर हो.

रिपोर्टः अनवर जे अशरफ, बॉन

संपादनः आभा एम

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