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पर्यावरण से जुड़े अदालती फैसलों पर नीति आयोग की नजर

शिवप्रसाद जोशी
११ फ़रवरी २०२१

प्राकृतिक आपदाओं और जलवायु परिवर्तन की चुनौतियों से जूझता भारत का नीति आयोग अदालतों के उन फैसलों के संभावित आर्थिक प्रभावों का अध्ययन कराना चाहता है जो पर्यावरण के बचाव और बड़ी परियोजनाओं को रोकने के बारे में हैं.

Indien US-Botschafter Richard Verma mit Geschäftsführer von NITI Aayog Amitabh Kant
नीति आयोग के सीईओ अमिताभ कांत तस्वीर: Imago/Hindustan Times

सुप्रीम कोर्ट, हाईकोर्टों के अलावा राष्ट्रीय हरित ट्रिब्यूनल (एनजीटी) जैसी अर्ध न्यायिक संस्थाओं के कुछ बड़े फैसलों के आर्थिक प्रभाव की जांच के लिए की जाने वाली स्टडी में देखा जाएगा कि उन फैसलों से उन प्रोजेक्टों को कितना आर्थिक नुकसान उठाना पड़ा और कितने लोग रोजगार और विकास के अवसरों से वंचित हुए.

यही नहीं, इस स्टडी के तहत फैसले से प्रभावित होने वाले पक्षों से बात की जाएगी. अदालतों के सामने भी एक नजरिया जा पाएगा कि उनके फैसलों का आर्थिक असर भी होता है. विभिन्न राष्ट्रीय दैनिकों और अन्य समाचार माध्यमों में पिछले दिनों, नीति के प्रोजेक्ट ब्रीफ डॉक्युमेंट के हवाले से प्रकाशित रिपोर्टों के मुताबिक निष्कर्षों को जजों की ट्रेनिंग के लिए इनपुट के रूप में भी इस्तेमाल किया जा सकता है.

एक तरह से ये अदालतों की "न्यायिक सक्रियता” का आकलन करने वाली एक्सरसाइज भी होगी. हालांकि अभी इस पर नीति आयोग की ओर से कोई सार्वजनिक बयान नहीं आया है. लेकिन द इकोनोमिक टाइम्स अखबार की वेबसाइट में पीटीआई के हवाले से छपी एक खबर में जयपुर स्थित जिस संस्था- कट्स इंटरनेशनल को अध्ययन का काम सौंपा गया है उसने नीति आयोग से मिले काम की पुष्टि की है. यह वही संस्था है जिसने, बताया जाता है कि 2017 में सुप्रीम कोर्ट के हाईवे के 500 मीटर के दायरे में शराब की दुकानें न रखने के आदेश से होने वाले आर्थिक असर का आकलन भी किया था.

अदालती फैसलों का अध्ययन पिछले साल फरवरी में ही शुरू हो जाना था लेकिन लॉकडाउन के चलते टल गया. नीति आयोग संभवतः अपने कथित निर्माणाधीन ज्युडिशियल परफॉर्मेंस इंडेक्स में इसे भी शामिल करे. अध्ययन के तहत संस्था से उन पांच विभिन्न आदेशों की समीक्षा करने को कहा गया है जिनके आधार पर देश के विभिन्न हिस्सों में प्रोजेक्ट या तो स्थगित कर दिए गए या पूरी तरह बंद किए गए. इनमें से तीन सुप्रीम कोर्ट और दो एनजीटी के आदेश बताए गए हैं.

गोवा के मोपा में ग्रीनफील्ड एयरपोर्ट के निर्माण पर 2019 में रोक का सुप्रीम कोर्ट का आदेश, 2020 में कोर्ट ने  रोक हटा ली थी लेकिन कई शर्तें लगायी थीं. गोवा में 2018 में एक लौह अयस्क के खनन पर रोक का आदेश, वेदांता के तमिलनाडु स्थित स्टरलाइट कॉपर प्लांट को बंद रखे जाने का आदेश, यमुना नदी में गौतमबुद्ध नगर में रेत खनन पर एनजीटी का बैन और दिल्ली और एनसीआर में भवन निर्माण पर रोक का उसका आदेश इस अध्ययन में शामिल है.

आखिर इस तरह के अध्ययन की क्या जरूरत आई होगी? क्या नीति आयोग यह मानता है कि सुप्रीम कोर्ट या एनजीटी के फैसलों से विकास प्रभावित होता है? सीधे तौर पर न कहकर "आर्थिक प्रभाव” क्यों कहा गया है? देश में जिस गति और जिस संख्या में विकास परियोजनाएं बनी हैं या चल रही हैं- उन्हें देखते हुए यह सोचना सही नहीं होगा कि अदालतों के फैसलों से कुछ रुक गया है.

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पर्यावरण बचाने की लड़ाइयां तमाम तरह के अवरोधों के बावजूद बेशक बनी हुई हैं, वे संघर्ष किसी महत्वाकांक्षी परियोजना को भले ही स्थगित करा पाए हों लेकिन पूरी तरह या हमेशा के लिए नहीं रोक पाए हैं. और जाहिर है परियोजना की लागत बढ़ी है तो इसका लाभ निवेशकर्ताओं से लेकर निर्माण से जुड़ी विभिन्न एजेंसियों और व्यक्तियों को भी हुआ है.

हो सकता है नीति आयोग इस पहलू को भी देखना चाहता हो कि परियोजना में देरी या बंदी से किसे कितना नुकसान कितना फायदा होता है. अगर ऐसे आंकड़े आते हैं तो वे भी गौर करने लायक होंगे. एक पहलू यह भी है कि आर्थिक प्रभाव के साथ साथ पर्यावरण को पहुंचे नुकसान का भी जायजा लेना उतना ही जरूरी है. उसकी कीमत किन किन स्तरों में किन किन रूपों में चुकानी पड़ती है- यह भी देखा जाना चाहिए. समाज और संस्कृति पर पड़ने वाला प्रभाव किसी तरह "आर्थिक प्रभाव” से कमतर नहीं कहा जाएगा.

चारधाम सड़क परियोजना के अलावा उत्तराखंड के पिथौरागढ़ जिले और नेपाल सीमा पर विशाल पंचेश्वर बांध निर्माणाधीन है. अरुणाचल प्रदेश में विशाल बांधों का एक नेटवर्क निर्माणाधीन है. पश्चिमी घाट के जंगल खनन और अन्य परियोजनाओं की चपेट में हैं. ओडीशा और मध्य प्रदेश के पहाड़ भी खनन और दोहन के शिकार हैं. सुदूर पूर्वी इलाकों की बाढ़ हो या सुदूर दक्षिण की, वे सिर्फ कुदरती आफतें हीं नहीं होती, अक्सर पता चलता है कि वे मानव निर्मित तबाहियां भी थीं. भारत ही नहीं पूरी दुनिया इसे भुगत रही है.

अंधाधुंध निर्माण और अनापशनाप प्लानिंग ने वैश्विक तापमान को बढ़ा दिया है जिसके चलते जलवायु में परिवर्तन ने धरती और उसकी हरीतिमा और उसकी जैव विविधता को खतरे में डाल दिया है. और वो अपने ढंग से पलटवार कर रही है. प्रकृति के कोप से बचाव की बात महज सदियों से चला आ रहा डर, नारा या अंधविश्वास नहीं, एक ऐतिहासिक सच्चाई है.

विश्वव्यापी चिंताओं के बीच और पर्यावरण को लेकर छोटी बड़ी बिखरी या संगठित लड़ाइयों के बीच सरकारों का रवैया उदासीन ही रहा है. बेशक हरित प्रौद्योगिकी का जोर बढ़ा है और वैकल्पिक ऊर्जा संसाधनों के प्रति एक रुझान बनने लगा है लेकिन साथ ही मुनाफे और निवेश की आंधी का जोर भी कम नहीं. पहाड़ फोड़े जा रहे हैं,  नदियां खोदी जा रही, जंगल काटे जा रहे हैं और प्राकृतिक स्रोत छिन्नभिन्न हो रहे हैं.

नीति आयोग प्रकृति और पर्यावरण पर ऐसे तीखे हमलों को रोकने के न सिर्फ तरीके सुझा सकता है बल्कि एक व्यापक दूरगामी रणनीति भी बना सकता है जिनसे विकास परियोजनाओं का पर्यावरण से तालमेल बेहतर बनाया जा सके. अगर जंगल, पानी, पहाड़, जमीन और वन्यजीवन को नुकसान पहुंचाए बिना विकास और अर्थव्यवस्था की गति बनाए रखी जा सकती है तो हमारे अस्तित्व के लिए यही सबसे सेफ विकल्प होगा. सुनियोजित और समावेशी विकास के बिना तो यह सोचना जैसे एक अवश्यंभावी संकट के निपटने के बजाय आंखों पर पट्टी बांध लेने की तरह होगा.

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