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पशु-कल्याण के नाम पर समाज की अनदेखी

शिवप्रसाद जोशी
३१ मई २०१७

पशु क्रूरता निवारण कानून के तहत भारत सरकार के नये प्रावधानों ने देश के विभिन्न हल्कों में विवाद और चिंताएं बढ़ा दी हैं. खानपान की आजादी छिनने से लेकर डेयरी, चमड़ा और खाद्य उद्योगों पर अस्तित्व का संकट भी मंडराने लगा है.

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तस्वीर: Shaikh Azizur Rahman.

मवेशी बाजार के नियमन को लेकर जोड़े गए नये नियम के तहत पशु मेलों में मवेशियों की खरीदफरोख्त उन्हें मारने के लिए नहीं की जा सकती. सिर्फ कृषि उद्देश्य के लिए ही पशुओं को बाजार में लाया जा सकता है वो भी लिखित गारंटी के साथ. मवेशियों में गाय, भैंस, बछड़े, सांड और ऊंटों को भी शामिल किया गया है.

सरकार का कहना है कि मवेशियों की खरीद और पशु बाजारों को रेगुलेट करने के नये नियमों का एक विशिष्ट लक्ष्य है. पर्यावरण मंत्रालय के इस नये आदेश से राजनैतिक दलों में खासकर, दक्षिण भारत में कड़ी आलोचना हो रही है. आरोप है कि इस आदेश से करोड़ों लोगों को रोजगार देने वाला सेक्टर तबाह हो जाएगा. एक आकलन के मुताबिक, डेयरी फार्म की 40 फीसदी कमाई अनुत्पादक गायों की खरीद से आती है. अगर इन गायों के लिए बाजार ही नहीं होगा तो डेयरी किसानों का उत्पादन चक्र ठप हो जाएगा.

ऐसे समय में जब यूरोप, ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड और अमेरिका जैसे देश, दूध पाउडर और अन्य दूध उत्पादों को बड़े पैमाने पर भारतीय बाजार में खपा रहे हैं और आगे भी खपाने के लिए तैयार बैठे हैं, भारत के डेयरी किसानों या कोऑपरेटिवों को अपने हाल पर छोड़ देना, समझ नहीं आता है. क्या सरकार विदेशी कंपनियों के लिए जगह बना रही है और क्या इसीलिए पशु कल्याण के नाम पर ये अजीबोगरीब नियम थोपे जा रहे हैं. भारत का सुप्रीम कोर्ट भी समय समय पर इस बारे में फैसले दे चुका है कि उन आर्थिक स्थितियों में पशुओं को मारने पर पूर्ण प्रतिबंध की अनुमति नहीं दी जा सकती है, जब बेकार सांड या बैल या गाय को रखना समाज पर बोझ हो और इस तरह ये जनहित में ना हो.

पशुधन की 2012 की गणना के मुताबिक देश में 30 करोड़ से कुछ अधिक मवेशी हैं. कृषि सेक्टर में इनका योगदान करीब 26 फीसदी का है. पशुधन उत्पाद का मूल्य खाद्यान्न के मूल्य से ज्यादा है. औसतन गाय-भैंसों से हर साल 1,200 किलो दूध मिलता है, जिसकी कीमत उत्पादन की जगह पर ही करीब 24 हजार ठहरती है. वध किए गए मवेशी से मरे हुए पशुओं की तुलना में बेहतर चमड़ा हासिल होता है. करीब 18 अरब अमेरिकी डॉलर वाले भारत के चमड़ा उद्योग में मवेशी की खाल एक बड़ा आधार है. भारत के जूता चप्पल उद्योग का 95 फीसदी हिस्सा मवेशी के चमड़े से ही आता है. दवा, खेल और निर्माण उद्योगों में चमड़ा अवशेषों का उपयोग भी काफी ज्यादा होता है. इस तरह यह साफ है कि डेयरी उद्योग, बूचड़खाने, बीफ और चमड़ा उद्योग एक दूसरे के पूरक हैं.

सांस्कृतिक और सामाजिक विविधता वाले भारत में खानपान की संस्कृति भी निराली है. भारत एक मांसाहारी देश है, यहां आज भी 70 फीसदी आबादी किसी न किसी किस्म के मीट उत्पादों का सेवन करती है, जिसमें चिकन से लेकर बीफ तक शामिल है. कई आदिवासी समाजों में तो अन्य जंगली बड़े और छोटे जानवरों का मांस खाया ही जाता है. दूसरी बात ये कि ऐसे देश में जहां महिलाओं और बच्चों की एक बड़ी तादाद एनीमिया और कुपोषण की शिकार हो, वहां बीफ प्रोटीन और फैट का एक सस्ता स्रोत है और गरीबों के आहार का हिस्सा भी रहा है.

सन 2012 में भारत ने छत्तीस लाख सत्तर हजार मीट्रिक टन बीफ का उत्पादन किया था. इसमें से 20 लाख मीट्रिक टन बीफ की घरेलू स्तर पर खपत हुई और बाकी वियतनाम, मलेशिया, फिलीपींस, सऊदी अरब, कुवैत और मिस्र जैसे देशों को निर्यात कर दिया गया. विदेश व्यापार महानिदेशालय भारत में वध किए जाने वाले पशुधन का आंकड़ा भी जारी करता है. ऐसे करीब साढ़े तीन करोड़ मवेशियों से करीब चार करोड़ टन मीट मिलता है. बीफ उत्पादन में भारत का दुनिया में पांचवा नंबर है और घरेलू खपत के मामले में सातवां. भारत से भैंस का मीट ही निर्यात किया जाता है, इसमें वो दुनिया का नंबर एक देश है. ये निर्यात 2007 में साढ़े तीन हजार करोड़ रुपये से बढ़कर 2016 में साढ़े 26 हजार करोड़ रुपए से ज्यादा का था.

नुकसान की प्रकट अप्रकट श्रृंखला का दूसरा सिरा भी देखें. गरीब किसान के पास बेकार जानवर को पालने का न तो संसाधन है न क्षमता. अगर मवेशियों की संख्या अत्यधिक होती जाएगी तो आवारा पशुओं की एक नयी समस्या उठ खड़ी होगी, खासकर शहरी इलाकों में जो पहले ही तंग यातायात व्यवस्था के शिकार हैं. अधिक संख्या में मवेशियों का अर्थ होगा, ज्यादा घास और चारा, जिससे चरागाहों पर दबाव बढ़ेगा, कृषि जमीनों और घास भरे मैदानों पर दबाव पड़ेगा, उनका क्षरण होगा और कुल मिलाकर पर्यावरण को भी चोट पहुंचेगी.

अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी विशेषज्ञ जानवरों की संख्या बढ़ने पर चिंता प्रकट कर चुके हैं, क्योंकि इसका अर्थ होगा मीथेन गैस का ज्यादा उत्पादन जो कि इन मवेशियों की शारीरिक संरचना और पाचन क्रिया की एक विशिष्टता है. बीमार, अशक्त जानवरों की देखरेख पर होने वाले खर्च के बोझ और बीमारियों की आशंका और मृत जानवरों को दफनाने से जुड़े स्वास्थ्य नुकसान भी नजरअंदाज नहीं किए जा सकते. रोजगार छिनने और सामाजिक जीवन के भी छिन्न-भिन्न होने और तस्करी के संदेहों, गोकशी आदि को लेकर रक्तपात और हिंसा का खतरा बढ़ेगा.

इस तरह पशु कल्याण की एक अतिवादी और कट्टरपंथी किस्म की ये नैतिकता, राष्ट्रीय विकास को ही अंततः कमजोर करेगी. विशेषज्ञों का मानना है कि स्लॉटर पर प्रतिबंध से देश के सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि पर सीधी चोट पहुंचती है और वो सालाना दो फीसदी की दर से नीचे आ सकती है.

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