पहली बार भारत ने बनाया टीका
२९ मई २०१३दस्त लगने और फिर शरीर में पानी की कमी के कारण दुनिया भर में हर साल पांच साल की उम्र से कम के करीब पांच लाख बच्चे अपनी जान गंवा बैठते हैं. भारत में ही हर साल एक लाख ऐसी मौतें होती हैं. अधिकतर मामलों में इसकी वजह है रोटा वाइरस. यह एक ऐसा वाइरस है जो बच्चों पर बहुत तेज असर करता है और जानलेवा साबित होता है.
'वन डॉलर वैक्सीन'
हालांकि इस वाइरस से लड़ने के लिए टीके भी मौजूद हैं, लेकिन ये टीके भारत सरकार की टीकाकरण नीति के अंतर्गत नहीं आते. इन्हें निजी स्तर पर खरीदा जरूर जा सकता है, लेकिन ऊंची कीमतों के कारण गरीब इस से वंचित रह जाते हैं. भारतीय बाजार में रोटा वाइरस के खिलाफ दो कंपनियों के टीके मौजूद हैं, जिनकी कीमत हजार रुपये से अधिक है. अब भारतीय वैज्ञानिकों ने ऐसा टीका तैयार किया है, जो महज 50 रुपये से भी कम में रोटा वाइरस से निजात दिला सकेगा. रोटोवैक नाम के इस टीके को वन डॉलर वैक्सीन के नाम से प्रसिद्धि मिल रही है.
यह टीका पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप के तहत तैयार किया गया है. भारत के वैज्ञानिक डॉक्टर एमके भान ने अमेरिका के डॉक्टर रॉजर ग्लास के साथ मिल कर इसे बनाया है. टीका सही तरह काम कर रहा है, यह सुनिश्चित करने के लिए भारत के तीन राज्यों में 7,000 बच्चों पर इसका परीक्षण किया गया. तीन चरणों में हुए टेस्ट के बाद पाया गया कि टीका सुरक्षित भी है और असरदार भी. यहां तक कि यह रोटा वाइरस की कई किस्मों से लड़ने में सक्षम है.
टीकाकरण अभियान का हिस्सा
डॉयचे वेले से बातचीत में डॉक्टर भान ने बताया, "हमारे लिए यह इसलिए भी जरूरी है क्योंकि डाइरिया से सबसे ज्यादा गरीब लोग प्रभावित होते हैं और इसका असर भी सबसे ज्यादा उन्हीं में देखने को मिलता है. और अधिकतर गरीब परिवारों के लिए, खास तौर से जो गांवों में रहते हैं, अस्पताल या डॉक्टर के पास जाना उनके लिए बहुत कठिन होता है".
अमेरिका के डॉक्टर ग्लास ने बताया कि उनका ध्यान इस तरफ तब गया जब उन्होंने एक नवजात शिशु में रोटा वाइरस पाया, "अधिकतर रोटा वाइरस नवजात शिशुओं पर असर नहीं करता, लेकिन इस किस्म ने किया." विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) की सलाह है कि इस तरह का टीका हर देश के टीकाकरण अभियान का हिस्सा होना चाहिए. भारत में पोलियो, टीबी, टेटनस और हेपटाइटिस के खिलाफ तो टीके कम दाम पर मिलते हैं, लेकिन रोटा वाइरस के साथ अब तक ऐसा नहीं हो पाया है. रोटोवैक के साथ अब ऐसा बदल सकता है. बच्चों को इसकी तीन खुराकें लेनी होंगीं, पहली जन्म के छह हफ्ते बाद, फिर 10वें और 14वें हफ्ते में.
भारत की दवाओं पर नियंत्रण रखने वाली संस्था फिलहाल इसे स्वीकृति देने पर विचार कर रही है. यदि रोटोवैक को लाइसेंस मिल जाता है तो यह पिछले सौ सालों में बना पहला ऐसा टीका होगा जो पूरी तरह भारत में तैयार किया गया है. माना जा रहा है कि इस साल के अंत तक यह टीका भारत के अस्पतालों में उपलब्ध होगा.
रिपोर्ट: मुरली कृष्णन/ईशा भाटिया
संपादन: आभा मोंढे