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पहले जीवन में मंगल खोजो

९ नवम्बर २०१३

पृथ्वी से 40 करोड़ किलोमीटर की अधिकतम संभव दूरी पर घूम रहा है मंगल ग्रह. वहां मीथेन और पानी की संभावनाएं तलाशने के लिए 450 करोड़ रुपये वाला भारतीय मंगलयान निकल चुका है. इस अभियान से किसका मंगल होगा.

तस्वीर: imago/Xinhua

कहा जा रहा है कि अपनी मिट्टी को समझे बिना मंगल की मिट्टी को खंगालने और वहां जीवन को खोजने का ये अभियान भला एक गरीब देश के लिए कितना जायज है. क्या एक ऐसे मिशन पर जिसकी सफलता की गारंटी नहीं है, इतने सारे करोड़ रुपये फूंक देना सही है. क्या अंतरिक्ष कार्यक्रम में रात दिन एक कर रहे वैज्ञानिक, शोधकर्ता और जानकार पैसे और वक्त बर्बाद कर रहे थे. ऐसे देश में, जहां करीब 40 फीसदी आबादी के पास खाने को भर पेट अन्न नहीं, रहने को घर नहीं और पहनने को ढंग का कपड़ा नहीं, वहां ये खर्चे विकास की नीति का मजाक नहीं बनाते, इस तरह के बहुत सारे सवाल इस बीच उठे हैं. और वैज्ञानिक समुदाय में भी इसे लेकर तीखी बहस है.

क्या भारत के 50 साल के अंतरिक्ष कार्यक्रम की प्राथमिकताएं गड़बड़ाई हुई हैं? भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन इसरो के चेयरमैन के राधाकृष्णन कहते हैं कि प्राथमिकताएं सही हैं और इसरो का काम देश के विकास से जुड़ा है. अंतरिक्ष कार्यक्रम समाज केंद्रित और विज्ञान केंद्रित है. इस लिहाज से वो संचार प्रौद्योगिकी में भारतीय उपग्रहों के योगदान और मौसम की अतिशयताओं में उनके अध्ययनों का हवाला भी देते हैं. ताजा मिसाल ओडीशा में आए फाइलिन तूफान की है, जिसके बारे में इनसैट ने पहले ही तस्वीरें भेज दी थीं और हजारों लोगों को समय रहते सुरक्षित स्थानों पर भेज दिया गया था.

तस्वीर: UNI

कामयाबी का इंतजार

इसमें कोई शक नहीं कि मंगल अभियान ने भारत को अमेरिका, रूस और यूरोप की पंक्ति में ला खड़ा किया है. अगर ये अभियान अपने अंजाम तक पहुंच जाता है तो ये एक विराट उपलब्धि होगी. मंगल तक जा पहुंचना ही स्पेस में भारतीय उपस्थिति का एक खासा उद्घोष होगा. इससे भारत की अंतरराष्ट्रीय सामरिक प्रतिष्ठा बढ़ेगी और दक्षिण एशिया और समूचे एशिया में भी वो आगे आ जाएगा. चीन और जापान के मंगल अभियान अभी तक सफल नहीं हो पाए हैं. इस अभियान के अदृश्य लाभ भी हैं. देश में साइंटिफिक टेंपर का विकास, नए शोधार्थियों और विज्ञान के छात्रों में उत्साह का संचार, नई सृजनात्मक संभावनाओं का जन्म आदि. अपनी दुर्बलताओं और विवशताओं के बीच भारत में राष्ट्रीय स्वाभिमान की नई भावना आएगी. कुछ कर गुजरने का यकीन और पक्का होगा. आत्मविश्वास में भारी उछाल आएगा. 24 सितंबर 2014 को मंगलयान लाल ग्रह को छू सकता है. तब संभव है भारत अंतरिक्ष अभियान में एक नया इतिहास लिख डाले.

बहरहाल ये अभियान भारत को चाहे जितनी नई ऊंचाइयों और जितने नए प्रकाशों की ओर ले जाए उसके नीचे कुछ अंधेरे तो फैले रहेंगे. उन पर निगाह जाना लाजिमी है. सबसे बड़ा अंधेरा तो उस खाई से निकलता है जो विकास के मॉडल ने समाज में पैदा कर दी है. अमीर और अमीर होते जाते, गरीब और गरीब. संसाधनों पर कुछ दशमलव प्रतिशत लोगों का कब्जा और बहुसंख्यक आबादी विपन्न, वंचित और दयनीय. मॉल में रूपांतरित होती खेतियां और शहरी मजदूरों में बदलते किसान और स्थिरता के बदले एक बड़ा विस्थापन. मंगलयान अंतरिक्ष की जिन ऊंचाइयों की ओर अग्रसर है वहां से शायद ये भीषणताएं नहीं दिखती होंगी. यहीं से कहां दिखती हैं. विकास का यथार्थ अगर उपलब्धियों में चमकता हुआ है तो वो नाकामियों में चुभता हुआ भी है.

अंतरराष्ट्रीय भ्रष्टाचार चार्ट

घर में कितना मंगल

मंगलयान पर फख्र बनता है, बेशक फख्र करना चाहिए लेकिन अंतरिक्ष में चहलकदमी में मगन देशों में आ गए हम लोग, फुटपाथों पर जिंदगी बिताने वाली अपनी लाखों की आबादी के बारे में भी तो सोचेंगे. या रहने देंगे. ये भी तय करना ही होगा कि पहले एक गांव तक सड़क जाएगी या पहले आकाशगंगा और तारों के पथ को काटता हुआ अंतरिक्ष यान जाएगा. अगर हमारा पॉलिटिकल और प्रशासनिक सिस्टम मंगलयान भेजने में तत्परता दिखाता है और वैज्ञानिक दिन रात एक कर देते हैं तो यही तत्परता और फुर्ती बदहाल इलाकों तक सड़क बिजली पानी पहुंचाने में कहां चली जाती है.

ये कुछ बिंदु हैं, जहां विकास से जुड़े मुद्दे और प्राथमिकताएं टकरा रही हैं. अजीब किस्म की उलझन है. एक बड़ा भारी द्वंद्व है. हम उन देशों की ओर देखें जो अंतरिक्ष को नापने में हमसे आगे हैं. उन्होंने अंतरिक्ष जैसी संभावनाओं का रुख कब किया. जाहिर है उनके एजेंडे में सुदूर अंतरिक्ष से पहले कुछ प्राथमिकताएं थीं. क्या यही बात हम भारत के बारे में कह सकते हैं. कहीं ये वर्चस्व की होड़ में पड़ जाना तो नहीं है. एक किस्म का उन्माद. क्या ये अंतरिक्ष दबंगई है. एक अघोषित स्पेस वॉर.

हमारी अपनी जमीनी लड़ाइयां तो अभी अधूरी हें. उन्हें कैसे पूरा करेंगे. मंगलयान छोड़िए सत्ता राजनीति, नेताओं और कॉरपोरेट धनिकों के काम देखिए. कितना पैसा किस तरह किन कामों में किन इरादों से बहा दिया जाता है. है कोई हिसाब. मिसाल के लिए 2500 करोड़ रुपये की लागत से इस देश में दुनिया की सबसे ऊंची मूर्ति (सरदार पटेल) बनाई जा रही है. यूपी में नेता और हाथी की मूर्तियों का खर्च हम जानते ही हैं. और भी मिसालें हैं. और मध्यवर्गीय शानोशौकत देखिए. इसरो के पूर्व चेयरमैन यूआर राव के मुताबिक इस देश में लोग 10 हजार करोड़ रुपये दिवाली के पटाखों में फूंक देते हैं. इन विलासिताओं के बीच मंगलयान का खर्च तो कुछ भी नहीं.

देश का नाम हो, खूब धनदौलत हो, मूर्तियां बनें. अच्छी बात है. कौन नहीं चाहता कि सब कुछ अच्छा हो. पर अच्छा हो तो सब बातों में हो. विकास के अंतर्विरोध दूर हों. विडंबनाएं मिटें. विकास संतुलित, विश्वसनीय और सार्थक हो. वो वास्तव में समाज के आखिरी आदमी से शुरू हो, भाषणों और चिंताओं में नहीं. फिर वो अंतरिक्ष की कितनी छलांगें लगाए, किसने रोका है.

ब्लॉगः शिवप्रसाद जोशी

संपादनः अनवर जे अशरफ

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