1. कंटेंट पर जाएं
  2. मेन्यू पर जाएं
  3. डीडब्ल्यू की अन्य साइट देखें
समाज

पहुंच से बाहर होती जा रही है डॉक्टरी की पढ़ाई

प्रभाकर मणि तिवारी
२६ जुलाई २०१८

देश में एक ओर जहां खासकर ग्रामीण इलाकों और स्वास्थ्य केंद्रों में भारी कमी है वहीं दूसरी ओर निजी मेडिकल कॉलेजों की लगातार बढ़ती फीस पर अंकुश लगाने का कोई तंत्र नहीं विकसित हो सका है.

Symbolbild Ärzte bei einer Operation
तस्वीर: picture-alliance/Zuma Wire/US Navy

डॉक्टरों की कमी के नाम पर सरकार इन कॉलेजों को हर साल फीस या सीटें बढ़ाने की इजाजत तो दे देती है लेकिन उनकी फीस पर सरकार का कोई नियंत्रण नहीं है. देश में सरकारी मेडिकल कॉलेज में सीटों की तादाद मांग से बहुत कम है. विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक प्रति एक हजार की आबादी पर एक डॉक्टर होना चाहिए. भारत में यह अनुपात इसके आधे से भी कम है. बावजूद इसके मेडिकल शिक्षा पर खर्च बढ़ने की वजह से मांग व आपूर्ति का असंतुलन बढ़ता जा रहा है.

कैसे उतारें किस्त?

निजी कॉलेजों में एमबीबीएस की पढ़ाई का औसतन खर्च 10 लाख रुपये सालाना यानी कुल 50 लाख रुपये है. ऐसे में ज्यादातर लोग एजुकेशन लोन की सहायता से पढ़ाई करते हैं. लेकिन पढ़ाई के बाद इंटर्नशिप के दौरान या नौकरी में उनको 45 से 65 हजार रुपये महीना ही मिलता है. इन लोगों के कर्ज की किस्त लगभग 60 हजार होती है. नतीजतन निजी कॉलेजों से पढ़ने वाले डॉक्टर कर्ज के जाल में फंसते जा रहे हैं.

इससे सवाल पैदा होता है कि सरकार डॉक्टरों की कमी की आड़ में नए निजी मेडिकल कॉलेज की अनुमति दे रही है लेकिन साल दर साल बढ़ती फीस से उसका असली मकसद चौपट होता नजर आ रहा है. इतना भारी-भरकम रकम खर्च करने के बाद मिलने वाली शुरुआती सैलरी में से कर्ज की किस्त चुकाने के बाद आखिर कोई डॉक्टर अपना जीवन-यापन कैसे कर सकता है? देश में शैक्षणिक कर्ज पर ब्याज की दर 10 से 12.5 फीसदी के बीच है. पढ़ाई पूरी करने के बाद 10 से 12 साल के भीतर इस कर्ज को चुकाना होता है.

 

किस देश में कितने साइंस ग्रैजुएट

देश के 210 निजी कॉलेजों की फीस के बारे में बीते साल हुए एक अध्ययन से बताया गया कि इनमें से लगभग 50 कॉलेजों की फीस सालाना 10 से 15 लाख रुपये के बीच थी, जबकि 30 कॉलेजों ने इससे भी ज्यादा फीस वसूली थी. गुजरात व राजस्थान में तो कई सरकारी मेडिकल कॉलेजों की फीस भी सालाना तीन से पांच लाख रुपये के बीच रही. इसके अलावा तमाम राज्य सरकारों ने अब मेडिकल की पढ़ाई के बाद सरकारी नौकरी में आने वाले डॉक्टरों के लिए कम से कम दो साल तक ग्रामीण इलाकों में काम करना अनिवार्य कर दिया है. सरकारी क्षेत्र में डॉक्टरों की शुरुआती सैलरी 40 से 55 हजार के बीच है जबकि निजी क्षेत्र में यह और भी कम है.

विदेशी कॉलेजों का सहारा

भारत में सरकारी मेडिकल कॉलेजों में दाखिला नहीं मिलने की स्थिति में हर साल हजारों छात्र पढ़ाई के लिए चीन, बांग्लादेश, रूस और मलेशिया जसे देशों का रुख करते हैं. लेकिन उनके सामने भी मुश्किलें कम नहीं हैं. पढ़ाई पूरी करने के बाद उनको प्रैक्टिस शुरू करने से पहले मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया (एमसीआई) की एक पात्रता परीक्षा को पास करना पड़ता है. इस परीक्षा के कठिन स्तर को लेकर भी अक्सर सवाल उठते रहे हैं. 

देश में निजी व सरकारी क्षेत्र में एमबीबीएस की लगभग 60 हजार सीटें हैं. लेकिन जो माता-पिता निजी कॉलेजों की भारी-भरकम फीस का बोझ नहीं उठा सकते, वे अपने बच्चों को विदेशों में भेजने को तरजीह देते हैं. भारत के निजी कॉलेजों के मुकाबले विदेशों में खर्च लगभग आधा या उससे भी कम है.

 

अजब गजब डिग्रियां

कोलकाता के रहने वाले दीपंकर गांगुली मेडिकल की पढ़ाई के लिए चीन जा रहे हैं. वह बताते हैं, "दक्षिण भारत के एक मशहूर कॉलेज ने दाखिले के लिए 45 लाख रुपये मांगे थे. इतने पैसे हम कहां से लाते? इसलिए चीन जाने का फैसला किया." चीन में उनको पांच साल के लिए फीस व रहने-खाने के खर्च के तौर पर भारतीय मुद्रा में लगभग 19 लाख रुपये ही देने होंगे.

फीस पर अंकुश की अपील

देश के विभिन्न कोनों से अब लगातार बढ़ती इस फीस पर अंकुश लगाने के लिए आवाजें उठी रही हैं. लेकिन इसी बीच कर्नाटक के निजी मेडिकल कॉलेज सरकार से फीस में 15 फीसदी वृद्धि की मंजूरी देने की मांग कर रहे हैं. जवाहरलाल शनमुगम ने देश के तमाम निजी कॉलेजों में फीस पर अंकुश लगाने और इसके लिए एक नियमन तंत्र विकसित करने के लिए मद्रास हाईकोर्ट में एक जनहित याचिका दायर की है.

शनमुगम कहते हैं, "मेडिकल कॉलेजों में दाखिले के लिए प्रवेश परीक्षा नीट की शुरुआत होने के बाद कई कॉलेजों ने कैपिटेशन फीस के नुकसान को पाटने के लिए अपनी फीस बढ़ा दी थी. इससे साफ हो गया था कि गरीब प्रतिभावान छात्र कभी इन कॉलेजों में दाखिला नहीं ले सकते." उनका कहना है कि इन कॉलेजों में फीस का ढांचा धनी छात्रों के हित में तय किया गया है. शानमुगम सवाल करते हैं, "सुप्रीम कोर्ट ने जब तमाम कॉलेजों में दाखिले के लिए नीट अनिवार्य कर दिया है, तो केंद्र सरकार फीस के मामले पर चुप्पी साधे क्यों बैठी है?"

कॉलेजों की फीस पहुंच से बाहर होने की वजह से कई छात्र नीट में बेहतर प्रदर्शन करने के बावजूद दाखिला नहीं ले पाते. नतीजतन बहुत कम नंबर लाने वाले धनी छात्र इन कॉलेजों में दाखिला ले लेते हैं. गुवाहाटी मेडिकल कॉलेज अस्पताल में जनरल मेडिसिन के पूर्व विभागाध्यक्ष डॉक्टर एके भट्टाचार्य कहते हैं, "सरकार को निजी कॉलेजों की बढ़ती फीस पर अंकुश लगाने का एक तंत्र विकसित करना चाहिए. ऐसा नहीं होने की स्थिति में पढ़ाई में कमजोर छात्र भी पैसों के बल पर दाखिला लेते रहेंगे. ऐसे डॉक्टरों के चलते देश के स्वास्थ्य क्षेत्र पर दूरगामी प्रतिकूल असर देखने को मिल सकता है."

साइंस पढ़ने के लिए 8 सबसे अच्छी जगह

 

इस विषय पर और जानकारी को स्किप करें
डीडब्ल्यू की टॉप स्टोरी को स्किप करें

डीडब्ल्यू की टॉप स्टोरी

डीडब्ल्यू की और रिपोर्टें को स्किप करें

डीडब्ल्यू की और रिपोर्टें