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पाकिस्तान का दोहरा खेल?

४ अगस्त २०११

अल कायदा सरगना ओसमा बिन लादेन सालों तक पाकिस्तान के एबटाबाद में छिपा रहा. इसने पश्चिमी देशों में पाकिस्तान की विश्वसनीयता पर सवाल खड़े कर दिए हैं.

तस्वीर: AP/DW

पाकिस्तान और अमेरिका के बीच रिश्ते हमेशा बदलते रहे हैं. 80 के दशक में इस्लामाबाद और वॉशिंगटन के बीच काफी गहरे रिश्ते हुआ करते थे. कम से कम तब तक जब तक 1988/89 में सोवियत रेड आर्मी अफगानिस्तान छोड़ कर चली नहीं गई. उसके बाद अमेरिका की रुचि इलाके में खत्म हो गई. 11 सितंबर 2001 के हमलों के बाद से ही फिर अमेरिका का ध्यान पाकिस्तान की ओर गया. खास तौर से तालिबान और अल कायदा के खिलाफ रसद पहुंचाने के लिए अमेरिका को पाकिस्तान की जरूरत महसूस हुई. पाकिस्तान ने भी अमेरिका को इस रणनीतिक साझेदारी के तहत सहयोग देने का फैसला किया - लेकिन आधे अधूरे मन से, क्योंकि पाकिस्तान के तालिबान हुकूमत के साथ अच्छे रिश्ते थे और आज भी पड़ोसी देश में उसकी आर्थिक दिलचस्पी बनी हुई है.

तीन देशों की शिखरवार्तातस्वीर: AP

दक्षिण एशियाई मामलों के विशेषज्ञ कोनराड शेट्टर बताते हैं, "पाकिस्तान की एक और दिलचस्पी इसमें है कि वह अफगानिस्तान में अपनी सामरिक जडें मजबूत कर सके. पाकिस्तान अफगानिस्तान में पाकिस्तानी हितों के अनुकूल सरकार चाहता है." शेट्टर कहते हैं कि इसीलिए अपने पुराने साथी तालिबान से सख्ती से पेश आने में पाकिस्तान की कोई दिलचस्पी नहीं है. पाकिस्तान के लिए अफगानिस्तान में जडें मजबूत करने का मतलब है भारत के साथ लड़ाई की स्थिति में पाकिस्तानी सेना के पास अफगानिस्तान में सुरक्षित जगह हो. परमाणु शक्ति वाले दोनों देश पहले ही तीन बार युद्ध कर चुके है. अभी भी दोनों के बीच सीमा विवाद हल नहीं हुआ है. दोनों देशों की दुश्मनी में कई दशकों तक चलते रहने वाले संघर्ष के बीज छुपे है.

भारत के खिलाफ साझेदारी

इस्लामाबाद की सामयिक रणनीति है कि कट्टरपंथी ताकतों के साथ निकट सहयोग की, कहना है आतंकवाद पर नजर रखने वाले पाकिस्तान के रहीमुल्लाह युसूफजई का. पाकिस्तान का मानना है कि कट्टरपंथी मूल रूप से भारत विरोधी हैं, क्योंकि भारत मुस्लिम देश नहीं है. इस्लामाबाद चाहता है कि भारत के साथ एक और युद्ध हो, तो अफगानिस्तान उसका साझेदार हो. इसलिए हिन्दुकुश में इस्लामी राष्ट्र की स्थापना की मंशा रखने वाले तालिबान, पाकिस्तान की योजना में बिलकुल सही बैठते है.

युसूफजई का मानना है कि यह एक ऐसी राजनीति है जिसे या तो पश्चिमी देश समझ नहीं पा रहे हैं या समझना चाहते ही नहीं हैं. "पाकिस्तान का अमेरिका और अन्य पश्चिमी देशों से मतभेद उसकी तालिबान नीति के कारण है. पाकिस्तान एक राजनैतिक समाधान चाहता है और इसके लिए तालिबान के साथ बात करना चाहता है. इसके अलावा इस सौदेबाजी में पाकिस्तान निर्णायक भूमिका निभाना चाहता है. जबकि अमेरिका तालिबान को हराना चाहता है."

वजीरिस्तान के साथ लगा हुआ पाकिस्तान का नक्शा

अमेरिका का साफ रुख

अमेरिकी सरकार भी इस बीच बातचीत के बारे में सोचने लगी है. लेकिन इस शर्त पर कि तालिबान खुद को अल कायदा के आतंकवादी नेटवर्क से अलग कर ले. अफगानिस्तान में तैनात करीब एक लाख अमेरिकी सैनिक तालिबान पर शांतिवार्ता के लिए दबाव बना रहे हैं. पाकिस्तान में कट्टरपंथियों के ठिकानों पर नियमित ड्रोन हमले अमेरिका की रणनीति का हिस्सा हैं. अमेरिका का संदेश साफ है: पाकिस्तान और आतंकवादियों की साझेदारी को बर्दाश्त नहीं किया जाएगा. राजनीतिशास्त्री योखन हिपलर का कहना है कि इस्लामाबाद में सरकार के कुछ प्रतिनिधियों को यह बात समझ में आने लगी है. "पिछले सालों में पाकिस्तान में हिंसा में मरने वालों की बढ़ती संख्या इस बात से जुड़ी है कि अफगान युद्ध का अपने ही देश पर आंशिक पलटवार हुआ है. लेकिन अफगानिस्तान का अस्थिर होना पाकिस्तान के लिए फायदे का नहीं, बल्कि नुकसान का सौदा है."

इसके बावजूद विशेषज्ञों को संदेह है कि पाकिस्तान की सरकार अपनी राजनीतिक राह बदलने में सक्षम हो सकते हैं. पाकिस्तानी सेना ताकतवर है और पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी प्रभावशाली, कभी कभी तो राह दिखाने वाली. दूसरी ओर पाकिस्तान वॉशिंगटन से मिलने वाली अरबों की सालाना मदद से वंचित नहीं होना चाहता. विशेषज्ञों का मानना है कि इस्लामाबाद सरकार एक खतरनाक दोहरा खेल खेल रही है, ताकि कट्टरपंथी सहयोगियों के अलावा अमेरिका के साथ भी अच्छे रिश्ते रहें. एक ऐसा खेल, जिसे अब साफ तौर पर अमेरिका बर्दाश्त करने को तैयार नहीं दिखता.

अफगानिस्तान की सीमा पर पाकिस्तान में आतंकियों के प्रशिक्षण शिविरतस्वीर: AP

मुश्किल साझेदारी

विदेशी नीति के लिए बनी जर्मन सोसायटी डीजीएपी के अमेरिका विशेषज्ञ हेनिंग रीके कहते हैं कि पाकिस्तान को अपनी नीति बदलने के लिए राजी करवाने में अमेरिका को काफी संयम दिखाना होगा. रीके का कहना है कि अमेरिका के पास इस समय और कोई विकल्प भी नहीं है, "अमेरिकी पाकिस्तान पर ज्यादा दबाव बनाने की कोशिश कर रहे हैं, लेकिन उन्हें यह भी पता है कि यदि यह दबाव बहुत ज्यादा हो गया तो इस्लामाबाद में कमजोर सरकार अपनी पकड़ खो देगी और फिर जो नुकसान होगा वो अभी की तुलना में बहुत ज्यादा होगा. फिर शायद इस्लामी ताकतों का दबदबा बढ़ जाएगा." रीके के अनुसार अमेरिका ऐसी स्थिति नहीं चाहता है.

वॉशिंगटन और इस्लामाबाद दोनों ही अफगानिस्तान में तालिबान और अल कायदा के खिलाफ अलग अलग उद्देश्यों के साथ लड़ाई लड़ रहे हैं. इस के बावजूद अपनी मुश्किल साझेदारी में वे दोनों एक दूसरे पर निर्भर हैं.

रिपोर्ट: रतबिल शामेल/ ईशा भाटिया

संपादन: महेश झा

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