पाकिस्तान में आम चुनावों से पहले मीडिया की आवाज को दबाने की कोशिश हो रही है. पत्रकारों का कहना है कि उन पर बेहद दबाव है और सेना की निगरानी में एक 'खामोश तख्तापलट' हो रहा है.
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पाकिस्तान के कई मीडिया संस्थानों का कहना है कि 25 जुलाई को होने वाले आम चुनावों से पहले सेना उनकी कवरेज पर कई तरह की बंदिशें लगा रही है. जो लोग इस दबाव के आगे झुकने से इनकार कर रहे हैं उन्हें निशाना बनाया जा रहा है. जिन मीडिया हाउसों के पास पर्याप्त संसाधन नहीं हैं, उन्होंने खुद ही सेल्फ सेंसरशिप शुरू कर दी है.
पाकिस्तानी फेडरल यूनियन ऑफ जर्नलिस्ट के अध्यक्ष अफजल बट कहते हैं, "हमने कभी ऐसी सेंसरशिप नहीं देखी जो आजकल थोपी जा रही है." पाकिस्तान दुनिया के उन देशों में शामिल है जिन्हें पत्रकारों और सामाजिक कार्यकर्ताओं के लिए बेहद खतरनाक माना जाता है.
पाकिस्तान के सबसे बड़ी टीवी चैनल जियो टीवी का प्रसारण इस साल कई हफ्तों तक ऑफ एयर रहा. मीडिया रिपोर्टों का कहना है कि सेना से डील हो जाने के बाद ही उसका प्रसारण टीवी स्क्रीनों पर लौट पाया. बताया जाता है कि जियो ने सेना के कहे मुताबिक अपनी कवरेज में बदलाव करने के लिए हामी भरी थी.
ये पार्टियां है सत्ता की दौड़ में
पाकिस्तान में कौन कौन सी राजनीतिक पार्टियां हैं
पाकिस्तान में अभी तहरीक ए इंसाफ की सरकार है. इमरान खान प्रधानमंत्री हैं. पाकिस्तान में भी बहुपार्टी लोकतांत्रिक व्यवस्था है. भारत की तरह वहां पर भी कई सारी राजनीतिक पार्टियां हैं.
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पाकिस्तान मुस्लिम लीग (एन)
पार्टी के चेयरमैन नवाज शरीफ के भाई शाहबाज शरीफ हैं. 1988 में स्थापित इस पार्टी का चुनाव निशान शेर है.
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पाकिस्तान तहरीक ए इंसाफ
इमरान खान की पार्टी का चुनाव चिन्ह क्रिकेट का बैट है. युवाओं में इमरान बहुत लोकप्रिय हैं.
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पाकिस्तान पीपल्स पार्टी
पाकिस्तान के सिंध प्रांत में बेहद मजबूत समझी जाने वाली पाकिस्तान पीपल्स पार्टी की स्थापना 1967 में जुल्फिकार अली भुट्टो ने की थी. अब उनके नवासे बिलावुल भुट्टो जरदारी पार्टी के प्रमुख हैं. पार्टी का चुनाव चिन्ह तीर है.
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मुत्तेहिदा कौमी मूवमेंट
एमक्यूएम की स्थापना 1984 में अल्ताफ हुसैन ने की थी. पार्टी का चुनाव चिन्ह पतंग है और पाकिस्तान के सबसे बड़े शहर कराची में उसका बहुत दबदबा माना जाता है. एमक्यूएम को विभाजन के बाद पाकिस्तान में जाकर बसे मुहाजिरों की पार्टी माना जाता है.
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आवामी नेशनल पार्टी
आवामी नेशनल पार्टी पाकिस्तान के खैबर पख्तून ख्वाह में बड़ी ताकत रही थी. पार्टी का चुनाव निशान लाल टोपी है.
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जमीयत उलेमा ए इस्लाम (एफ)
मौलाना फजलुर रहमान के नेतृत्व वाली जमीयत उलेमा ए इस्लाम (एफ) पाकिस्तान की एक सुन्नी देवबंदी राजनीतिक पार्टी है. पार्टी की चुनाव चिन्ह किताब है. यह पार्टी 1988 में जमीयत उलेमा ए इस्लाम में विभाजन के बाद अस्तित्व में आई.
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पाकिस्तान मुस्लिम लीग (एफ)
यह पार्टी एक सिंधी धार्मिक नेता पीर पगाड़ा से जुड़ी हुई है. पार्टी का चुनाव चिन्ह गुलाब का फूल है. (तस्वीर पाकिस्तानी संसद की है.)
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जमीयत उलेमा ए इस्लाम
इस पार्टी का मकसद पाकिस्तान को एक ऐसे देश में तब्दील करना है जो शरिया के मुताबिक चले. हालांकि जनता के बीच उसका ज्यादा आधार नहीं है. नेशनल असेंबली में उसके अभी सिर्फ चार सदस्य हैं. पार्टी तराजू के निशान पर चुनाव लड़ती है और सिराज उल हक इसके प्रमुख हैं.
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पाकिस्तान मुस्लिम लीग (क्यू)
यह पार्टी नवाज शरीफ की पीएमएल (एन) से टूट कर बनी है. पार्टी के मुखिया शुजात हुसैन सैन्य शासक परवेज मुशर्रफ के दौर में कुछ समय के लिए देश के प्रधानमंत्री रहे. पार्टी का चुनाव चिन्ह साइकिल है.
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वहीं, पाकिस्तान के सबसे पुराने अखबार डॉन की शिकायत है कि सरकारी एजेंसियां उसके हॉकरों को लगातार परेशान कर रही हैं. डॉन ने मई में पूर्व प्रधानमंत्री नवाज शरीफ का एक इंटरव्यू छापा था जिसमें उन्होंने कहा था कि मुंबई में 2008 में आतंकवादी हमलों में पाकिस्तानी सेना का हाथ था जिनमें 166 लोग मारे गए थे.
द न्यूज अखबार के संवाददाता वसीम अब्बासी कहते हैं कि पाकिस्तान के दो सबसे ताकतवर मीडिया हाउसों पर इतना दबाव है तो फिर छोटे मीडिया हाउसों के बारे में सोचिए. उनके लिए तो कोई संभावना ही नहीं बचती. इसलिए वे जो कहा जाएगा, वही करेंगे.
पाकिस्तान में एक राजनयिक सूत्र ने नाम न जाहिर करने की शर्त पर कहा, "पाकिस्तान में एक सोची समझी योजना के जरिए मीडिया का मुंह बंद करने की कोशिश हो रही है. यह बहुत ही चिंता की बात है."
पाकिस्तान के लिए यूरोपीय संघ के मुख्य चुनाव पर्यवेक्षक मिषाएल गाहलर ने डॉयचे वेले से खास बातचीत में कहा कि वे पाकिस्तानी मीडिया पर भी नजदीकी नजर रख रहे हैं.
इस पूरे मामले की जड़ असल में पाकिस्तानी सेना और नवाज शरीफ के बीच चल रहा तनाव है. पाकिस्तान के 70 साल के इतिहास में आधे से ज्यादा समय तक सेना ने ही देश पर राज किया है. किसी जमाने में नवाज शरीफ सेना के बहुत करीबी थे, लेकिन अब उनका सेना के साथ छत्तीस का आंकड़ा है.
देखिए नवाज शरीफ ने झेले हैं ये तूफान
नवाज शरीफ ने झेले हैं ये सियासी तूफान
नवाज शरीफ पाकिस्तानी सियासत के एक मंझे हुए खिलाड़ी हैं. लेकिन अपने सियासी करियर में उन्होंने कई बड़े तूफान झेले हैं. एक नजर उनके राजनीतिक सफर पर.
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तीन बार प्रधानमंत्री
नवाज शरीफ पाकिस्तान के अकेले ऐसे नेता है जिन्होंने रिकॉर्ड तीन बार प्रधानमंत्री का पद संभाला. पहली बार वह नवंबर 1990 से जुलाई 1993 तक पीएम रहे. दूसरी बार उन्होंने फरवरी 1997 में सत्ता संभाली और 1999 में तख्तापलट तक प्रधानमंत्री रहे. इसके बाद 2013 में आम चुनाव जीतने के बाद फिर उन्हें प्रधानमंत्री की गद्दी मिली.
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कब आये सुर्खियों में
नवाज शरीफ को पहली बार राष्ट्रीय स्तर पर राजनेता के तौर पर पहचान सैन्य शासक जनरल जिया उल हक के शुरुआती दौर में मिली. वह 1985 से 1990 तक पंजाब प्रांत के मुख्यमंत्री रहे. इससे पहले प्रांतीय सरकार में उन्होंने वित्त मंत्री की जिम्मेदारी संभाली.
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सियासी मोड़
1988 में जिया उल हक की मौत के बाद उनकी पार्टी पाकिस्तानी मस्लिम लीग (पगारा गुट) दो धड़ों में बंट गयी. एक धड़े का नेतृत्व उस वक्त के प्रधानमंत्री मोहम्मद खान जुनेजो को हाथ में था तो जिया समर्थक नवाज शरीफ के पीछे लामबंद थे.
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पहली बार प्रधानमंत्री
पाकिस्तान में 1990 के आम चुनाव में नवाज शरीफ ने शानदार जीत दर्ज की और वह देश के 12वें प्रधानमंत्री बने. लेकिन तीन साल बाद ही उनकी सरकार को बर्खास्त कर दिया गया और इसके बाद बेनजीर भुट्टो के नेतृत्व में सरकार बनी.
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दूसरा मौका
1997 के चुनाव में नवाज शरीफ को स्पष्ट बहुमत मिला और देश की बागडो़र फिर एक बार उनके हाथ में आयी. यह वह दौर था जब विपक्ष चारों खाने चित्त होने के बाद हताशा का शिकार था, तो नवाज शरीफ पाकिस्तान के सियासी परिदृश्य पर छाये हुये थे.
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परमाणु परीक्षण
नवाज शरीफ के प्रधानमंत्री रहते ही पाकिस्तान ने 1998 में पहली बार परमाणु परीक्षण किये थे. भारत के पोखरण-2 परमाणु परीक्षणों के चंद दिनों के बाद पाकिस्तान के इस परीक्षण ने दुनिया को हैरान किया और वह परमाणु शक्ति संपन्न पहला मुस्लिम देश बना.
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भारत से दोस्ती
पाकिस्तान में जब नवाज शरीफ की सरकार थी तो भारत में अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री थे. दोनों देशों के बीच तब शांति उम्मीद बंधी जब वाजपेयी बस के जरिए लाहौर पहुंचे. लेकिन इसके कुछ ही दिनों बाद कारगिल की लड़ाई ने ऐसी सभी उम्मीदों को गलत साबित किया.
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तख्तापलट
1999 में नवाज शरीफ ने अपनी सियासी जिंदगी का सबसे बड़े तूफान झेला, जब सेना प्रमुख परवेज मुशर्रफ ने उनका तख्तापलट कर उन्हें जेल में डाल दिया था. उन्हें उम्रैकद की सजा सुनायी गयी और उनके राजनीति में हिस्सा लेने पर भी आजीवन रोक लगा दी गयी.
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निर्वासन
सऊदी अरब के जरिए हुई एक डील के बाद नवाज शरीफ जेल की कालकोठरी से निकले. उन्हें परिवार के 40 सदस्यों के साथ सऊदी अरब निर्वासित कर दिया गया. वहां वह कई साल तक रहे. लेकिन 2007 में सेना के साथ उनकी फिर डील हुई और उनके पाकिस्तान लौटने का रास्ता साफ हुआ.
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तीसरा कार्यकाल
2008 के संसदीय चुनाव से पहले बेनजीर भुट्टो की हत्या के बाद पाकिस्तान पीपल्स पार्टी को सहानुभूति लहर का फायदा मिला और वह सत्ता में आयी. लेकिन बाद 2013 के चुनाव में नवाज शरीफ सब पर भारी साबित हुए. युवाओं के बीच इमरान खान की बढ़ती लोकप्रियता भी उसके रास्ता की बाधा नहीं बनी.
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भ्रष्टाचार के आरोप
इमरान खान को चुनाव मैदान में भले ही शिकस्त मिली, लेकिन उन्होंने नवाज शरीफ के खिलाफ अपना अभियान रोका नहीं. पनामा पेपर्स में शरीफ खानदान का नाम आने के बाद तो उनके आरोपों को नई धार मिल गयी. महीनों तक चली छानबीन के बाद आखिरकार नवाज शरीफ को इस जंग में हार का मुंह देखना पड़ा.
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अयोग्य करार
28 जुलाई 2017 को पाकिस्तानी सुप्रीम कोर्ट ने अपना फैसला सुनाते हुए नवाज शरीफ को अयोग्य करार दिया, जिसके बाद उनके लिए प्रधानमंत्री पद पर बने रहना संभव नहीं रहा. हालांकि नवाज शरीफ और उनका परिवार अपने ऊपर लगे सभी आरोपों से इनकार करते रहे हैं.
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10 साल की सजा
भ्रष्टाचार के एक मामले में नवाज शरीफ को 10 साल की जेल की सजा सुनाई गई. लंदन में आलीशान फ्लैंटों की खरीद से जुड़े मामले में उन्हें यह सजा हुई. अदालत का कहा है कि शरीफ परिवार यह बताने में नाकाम रहा कि लंदन में संपत्ति खरीदने के लिए पैसा कहां से आया. आम चुनाव से ठीक पहले नवाज शरीफ को हुई सजा.
तस्वीर: Reuters/F. Mahmood
पांच साल का फेर
पाकिस्तान में अब तक कोई भी पूरे पांच साल तक प्रधानमंत्री नहीं रहा है. पाकिस्तान के पहले प्रधानमंत्री लियाकत अली खान सबसे ज्यादा 1,524 दिन इस पद पर रहे. उनके बाद यूसुफ रजा गिलानी का नाम आता है जो 1,494 दिन तक प्रधानमंत्री रहे.
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पड़ोसी देश भारत के साथ अच्छे संबंधों की पैरवी करने वाले नवाज शरीफ को सुप्रीम कोर्ट के एक आदेश के बाद प्रधानमंत्री पद छोड़ना पड़ा था. भ्रष्टाचार के आरोपों में उन्हें न सिर्फ प्रधानमंत्री पद पर रहने बल्कि चुनाव लड़ने से भी अयोग्य करार दे दिया गया.
नवाज शरीफ लगातार सेना पर देश की राजनीति में हस्तक्षेप करने का आरोप लगा रहे हैं. पाकिस्तान में सेना पर सवाल उठाना आसान नहीं है, खासकर पड़ोसी भारत और अफगानिस्तान के बारे में उसकी नीति पर बात करना एक टैबू है. इसीलिए डॉन को दिए इंटरव्यू में नवाज शरीफ ने एक तरह से ततैये के छत्ते में हाथ डाला है.
अब्बासी कहते हैं कि पत्रकारों पर दबाव डाला जा रहा है कि वे नवाज शरीफ और उनकी पार्टी पीएमएल (एन) के समर्थन में कोई कवरेज ना करें. 25 जुलाई को होने वाले चुनाव में पीएमएल (एन) के अलावा क्रिकेटर से राजनेता बने इमरान खान की पार्टी तहरीक ए इंसाफ और दिवंगत पूर्व प्रधानमंत्री बेनजीर भुट्टो की पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी भी मुकाबले में है जिसका नेतृत्व अब उनके बेटे बिलावल भुट्टो जरदारी कर रहे हैं.
कई लोग चुनावों की विश्वसनीयता पर भी सवाल उठा रहे हैं. कुछ पत्रकार कहते हैं कि सेना और उसकी खुफिया एजेंसी आईएसआई एक खामोश तख्तापलट कर रही है. सेना पर आरोप लग रहे हैं कि वह किसी भी तरह पीएमएल (एन) को सत्ता से बाहर देखना चाहती है.
पाकिस्तान के एक थिंकटैंक पाकिस्तान इंस्टीट्यूट ऑफ लेजिस्लेटिव डिवेलपमेंट एंड ट्रांसपेरेंसी का कहना है कि चुनावी प्रक्रिया "पक्षपाती" लग रही है.
एके/एमजे (एएफपी)
पाकिस्तान में मलाला से नफरत क्यों?
कुछ पाकिस्तानी मलाला से क्यों नफरत करते हैं?
सिर्फ 17 साल की उम्र में शांति का नोबेल जीतने वाली मलाला यूसुफजई अब एक ग्लोबल आइकन हैं. लेकिन उनके अपने देश में बहुत से लोग उन्हें पसंद नहीं करते हैं. आखिर इसकी वजह क्या है?
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मलाला ने क्या किया है?
पाकिस्तान में मलाला के कई आलोचकों का कहना है कि आखिर ऐसा उन्होंने किया क्या है कि उन्हें इतना मान सम्मान दिया जा रहा है. मलाला बचपन से ही लड़कियों की शिक्षा के लिए मुहिम चल रही हैं, लेकिन ये लोग इसे ज्यादा तवज्जो नहीं देते.
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बदनाम करने की साजिश
मलाला पर अक्टूबर 2009 में तालिबान ने जानलेवा हमला किया. ब्रिटेन में महीनों के इलाज के बाद वह ठीक हो पाईं. लेकिन मलाला के आलोचक इसे पूरे मामले को पाकिस्तान को बदनाम करने की साजिश बताते हैं.
तस्वीर: picture-alliance/dpa
उन्हें कोई नहीं पूछता
मलाला को पसंद न करने वालों का कहना है कि पाकिस्तान बहुत से बच्चों के साथ उससे भी बुरा सलूक होता है जो मलाला के साथ हुआ. लेकिन उन्हें कोई नहीं पूछता. इस सिलसिले में वे मलाला के साथ हमले में घायल हुई साजिया कायनात का नाम भी लेते हैं.
तस्वीर: Reuters/Parwiz
फर्जी हमला
पाकिस्तान में आपको कई ऐसे भी लोग मिल जाएंगे जो मलाला पर हुए हमले को एक ड्रामा मानते हैं. यही नहीं, वहां तो कई लोग 166 लोगों की जान लेने वाले मुंबई हमलों के बारे में भी ऐसा ही सोचते हैं.
तस्वीर: picture alliance / AP Photo
पश्चिमी एजेंडे पर
कई लोग कहते हैं कि मलाला यूसुफजई पश्चिम के एजेंडे को लागू कर रही हैं. सबसे पहले वह अपने ब्लॉग से चर्चा में आई थीं, जिसमें वह तालिबान के राज में मुश्किल जिंदगी के बारे में लिखा करती थीं. इसी के बाद तालिबान उन पर हमला किया.
तस्वीर: picture-alliance/dpa
ओबामा की तारीफ क्यों?
तारीफ करने के लिए भी मलाला को पाकिस्तान में कई निशाना बनाते हैं. उनके मुताबिक मलाला पश्चिमी मूल्यों का प्रचार कर रही हैं, हालांकि खुद मलाला हमेशा लड़कियों और उदार मानवीय मूल्यों की बात करती हैं.
तस्वीर: Reuters
तो पाकिस्तान में रहें..
कई लोग सोशल मीडिया पर यह भी लिखते हैं कि अगर मलाला को पाकिस्तान से इतना ही प्यार है तो फिर वह पाकिस्तान में आकर क्यों नहीं रहतीं. हालांकि इसका जबाव है सुरक्षा. 2009 के हमले के बाद से ही मलाला का परिवार पाकिस्तान से बाहर रह रहा है.
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आई एम नॉट मलाला
मलाला को जब 2014 में नोबेल पुरस्कार मिला तो पाकिस्तान के हजारों स्कूलों ने उनके संस्मरण "आई एम मलाला" को बैन करने की मांग की थी. वहीं यह किताब दुनिया की बेस्ट सेलर्स में से एक है और कई भाषाओं में इसका अनुवाद हुआ है.
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चुभते सवाल
आलोचक कहते हैं कि मलाला ने अपनी किताब में इस्लाम, चरमपंथ और पाकिस्तानी सेना को लेकर वही सब बातें कही हैं जिनके जरिए पश्चिमी देश पाकिस्तान को निशाना बनाते हैं. किताब में पाकिस्तान के अस्तित्व से जुड़े सवालों भी आलोचकों को चुभते हैं.
तस्वीर: Reuters
अमेरिका विरोध
हाल के सालों में पाकिस्तान में अमेरिका विरोधी भावना मजबूत हुई हैं. इससे भी मलाला के विरोध को हवा मिलती है. पाकिस्तान में अल कायदा नेता ओसामा बिन लादेन को तलाशने में अमेरिका की मदद करने वाले एक पाकिस्तानी डॉक्टर को अब तक जेल में रखा गया है.