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पाकिस्तान में नहीं होगा तख्तापलट

१७ जनवरी २०१२

पाकिस्तान को फिलहाल पिछले वर्षों में अब तक के सबसे गंभीर राजनीतिक संकट का सामना करना पड़ रहा है. प्रधानमंत्री गिलानी ने संसद में विश्वास मत तो जीत लिया है लेकिन अदालत की अवमानना का मामला चल रहा है.

मुश्किल में यूसुफ रजा गिलानीतस्वीर: picture-alliance/dpa

पाकिस्तान में नागरिक सरकार, सेना और न्यायपालिका के बीच तेजी से बढ़ते संघर्ष के साथ ही पाकिस्तान में दयनीय अर्थव्यवस्था, व्यापक गरीबी, भ्रष्टाचार और इस्लामी उग्रवादी समूहों का वर्चस्व बढ़ता जा रहा है. 1947 में ब्रिटिश शासन के अंत के साथ ही पाकिस्तान एक लोकतांत्रिक देश के रूप में स्थापित किया गया था. 1947 के भयावह जातीय दंगे की पृष्ठभूमि और हिंदू-मुस्लिम वैमनस्य आधारित विचारधारा से पोषित इस देश में सेना निर्विवाद तौर पर सबसे शक्तिशाली संस्था रही है. सेना ने कई बार पाकिस्तान के 'बेहतरी के लिए' जनतांत्रिक सरकार को सत्ता हटा कर सैन्य शासन स्थापित किया है. अकसर इस कार्यवाही का आधार अयोग्य और भ्रष्ट असैन्य नेतृत्व रहा है.

अफवाहें
एक बार फिर से इस अस्थिर राष्ट्र में एक और तख्तापलट की अफवाहें चल रही है. लेकिन विश्लेषकों का कहना है कि वर्तमान संकट में एक सैन्य अधिग्रहण की संभावना कम ही दिखाई देती है. इस तर्क के पीछे कई कारण है. पाकिस्तान की जनता इस बार सेना द्वारा तख्ता पलट का समर्थन नहीं करेगी. दरअसल पाकिस्तानी सिर्फ रक्षा और सुरक्षा संबंधी मुद्दों के लिए ही एक मजबूत सेना का समर्थन करते हैं. पाकिस्तानी अवाम के बीच सैन्य अधिग्रहण के खिलाफ मजबूत सर्वसम्मति है. अभी अवाम के पास नागरिक सरकार की सार्वजनिक आलोचना का अधिकार है परंतु यही सैन्य शासन आया तो जनता के पास यह अधिकार नहीं रहेगा.
विश्लेषकों का कहना है कि इसके पहले फौजी तानाशाहों का विफल रहा इतिहास दर्शाता है कि सेना के पास पाकिस्तान की राजनीतिक समस्याओं को हल करने की क्षमता नहीं है. जनरल अयूब खान, जिया उल हक, और परवेज मुशर्रफ जैसे सैन्य नेताओं का शासनकाल भ्रष्टाचार के आरोपों और अप्रभावी नेतृत्व के आरोपों से दागदार रहा है. पाकिस्तान की जनता एक विफल सैन्य व्यवस्था को फिर से सत्ता में कभी नहीं देखना चाहेगी.

सेना, सरकार, न्यायालय में टकरावतस्वीर: AP

बदला मीडिया
पिछले कुछ सालों में पाकिस्तानी मीडिया की तस्वीर बदल गई है. इस समय पाकिस्तान का मीडिया बेहद सक्रिय और जीवंत है. पाकिस्तानी मीडिया को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर जोखिम भरे माहौल और कम सुविधाओं के बावजूद ज्वलंत और उल्लेखनीय मीडिया माना जाता है जो इस नाजुक लोकतंत्र के प्रहरी के रूप में कार्य करता है. पाकिस्तान प्रेस फाउंडेशन के अनुसार पाकिस्तान में हर साल कई पत्रकार अपने काम के दौरान मारे जाते है. रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स समूह पाकिस्तान को पत्रकारों के लिए सबसे खतरनाक स्थानों में से एक मानता है. हालांकि पाकिस्तानी प्रेस में स्वतंत्र प्रेस की अवधारणा केवल एक दशक पुरानी है लेकिन मीडिया पाकिस्तानी राजनीति में एक शक्तिशाली खिलाड़ी के रूप में उभरा है.

फिलहाल पाकिस्तान में 24 घंटे दर्जनों समाचार चैनल देखे जा सकते हैं. जो स्थानीय भाषाओं में अपने मुखर संवाददाताओं के साथ वर्तमान राजनीतिक स्थिति का विश्लेषण और दर्शकों को जोड़े रखने के लिए बड़ी घटनाओं को लाइव टेलिकास्ट के रुप में भड़कीले और प्रभावी ढंग से परोसते हैं. विश्लेषकों का कहना है, सेना भी मीडिया को जवाबदेह है. सही मायनों में मीडिया पाकिस्तानी राजनीति में एक बड़ा कारक है. पाकिस्तान में फिलहाल सबसे विश्वसनीय संस्था है न्यायपालिका. वर्तमान में पाकिस्तान की पूरी स्थिति पर स्वतंत्र न्यायपालिका कड़ी नजर रख रहा है.

पिछले सैन्य तख्ता पलट में पाकिस्तान के सैन्य नेताओं ने न्यायपालिका को अपने विश्वास में लिया था. विश्लेषकों का कहना है कि पाकिस्तान में वर्तमान न्यायपालिका के एक मुख्य न्यायाधीश को 2007 में मुशर्रफ द्वारा निलंबित कर दिया गया था जिसके बाद न्यायपालिका और सेना के बीच टकराव की स्थिति बन गई थी. इसके बाद मुशर्रफ को निलंबन वापस लेना पड़ा था.

सऊदी और अमेरिकी प्रभाव
इसके अलावा पाकिस्तान के अंतरराष्ट्रीय सहयोगी जैसे सऊदी अरब और अमेरिका भी इस बार तख्ता पलट कभी नहीं चाहेंगे. हालांकि ओसामा बिन लादेन के मरने के बाद पाकिस्तान और अमेरिका के रिश्तों में तनाव बरकरार है लेकिन अमेरिका और सऊदी अरब आर्थिक, राजनीतिक और सैन्य समर्थन के कारण पाकिस्तान पर काफी प्रभाव रखते हैं.

विश्लेषकों का कहना है कि नाटो और पाकिस्तान के सहयोगी देश तख्ता पलट को क्षेत्र को अस्थिर करने और अफगानिस्तान में नाजुक शांति प्रक्रिया के लिए धमकी के रूप में आंक रहे हैं. इराक से वापस होने के बाद अमेरिका अब अफगानिस्तान में कोई गलत कदम नहीं उठाना चाहता है और पाक सेना द्वारा तख्ता पलट करने पर हस्तक्षेप भी कर सकता है.

संभावित तख्तापलट के बारे में अटकलों के बावजूद धारणा है कि सेना पाकिस्तानी राष्ट्रपति आसिफ अली जरदारी को सत्ता से बेदखल करना चाहती है. इसके बाद विवाद खत्म हो जाएगा.
वैसे पाक सेना को चाहिए कि अगले साल के चुनावों में लोगों को अपने वोट के साथ जरदारी के भाग्य का फैसला करने दें. लोकतंत्र के सशस्त्र बलों की तरह व्यवहार करने के लिए सेना के लिए इससे बेहतर कोई अन्य विकल्प नहीं होगा.

रिपोर्टः संदीप सिसोदिया, वेबदुनिया

संपादनः आभा एम

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