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पावर हब बनने की कीमत सांसों में राख भरकर चुका रहे कोरबावासी

स्वाति मिश्रा छत्तीसगढ के कोरबा से
८ मई २०२४

छत्तीसगढ़ के कोरबा जिले में कोयला आर्थिक गतिविधियों का सबसे बड़ा साधन और संसाधन है. हालांकि, कोरबा के लोग इस कोयले की एक बड़ी कीमत अपनी सेहत दे कर चुका रहे हैं.

छत्तीसगढ़ के कोरबा में कोयले की खुली खदान
कोयले की खुली खदानों से बहुत सारी राख और हवा को प्रदूषित करने वाले तत्व निकलते हैंतस्वीर: Swati Mishra/DW

छत्तीसगढ़ के जिला कोरबा के 1,500 लोगों की आबादी वाले पाली गांव की उम्र लगभग पूरी हो चुकी है. बहुत जल्द पाली गांव अतीत बनकर रह जाएगा.

एक पठारनुमा जमीन के ऊपर बसा पाली एक विशालकाय काले गड्ढे में समा जाएगा. उसी तरह जैसे कभी दुरपा, जरहाजेल, बरपाली, बरहमपुर, दुल्लापुर, गेवरा गांवों के साथ हुआ था. ये सभी साउथ ईस्टर्न कोलफील्ड्स लिमिटेड (एसईसीएल) की कुसमुंडा परियोजना के अंतर्गत कोयले की खुदाई के लिए अधिग्रहित कर लिए गए. एसईसीएल, कोल इंडिया लिमिटेड (सीआईएल) की सब्सिडियरी है.

कोयले की खुदाई के साथ निकलने वाले फ्लाई ऐश या फिर राखड़ को कहीं भी डंप कर दिया जाता हैतस्वीर: Swati Mishra/DW

कोल पावर प्लांट का बड़ा केंद्र है कोरबा

छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर से करीब 200 किलोमीटर दूर बसा कोरबा को आप राज्य का ऊर्जा केंद्र भी कह सकते हैं. यहां तीन बड़े कास्ट कोल की तीन बड़ी खुली खदानें हैं, यानी ऐसे खदान जहां खुले में कोयले की खुदाई होती है. इनमें गेवरा खदान एशिया में दूसरी सबसे बड़ी खुली खदान बताई जाती है. बाकी दो मुख्य खदानें दीपका और कुसमुंडा हैं.

कोरबा पर इन कोयला खदानों का सबसे प्रत्यक्ष असर प्रदूषण के रूप में दिखता है. आप शहर में कहीं भी जाइए, किसी भी जगह, आबोहवा में राख-धूल और धुएं का धुंधलका मिलेगा. स्थानीय निवासी बताते हैं कि घर की सफाई करो, तो एक घंटे बाद फिर से गंदगी की परत मिलती है. यह हवा में घुली गंदगी का असर है. स्मॉग के लिए अंतरराष्ट्रीय सुर्खियां बनाने वाले दिल्ली में भी हवा इतनी बदतर नहीं लगती.

कोरबा में कई बिजली घर भी हैं जो कोयले से चलते हैं, इनसे भी बहुत सारा धुआं और प्रदूषक निकलते हैंतस्वीर: Swati Mishra/DW

प्रदूषण के सबसे बड़े कारण

कोरबा में प्रदूषण की दोनों बड़ी वजहें कोयले से जुड़ी हैं. एक कारण है कोयले की खुली खदानें और दूसरी वजह है, कोयले से चलने वाले बिजलीघर. कोरबा में कोयले से चलने वाले 10 से ज्यादा बिजलीघर हैं. इनमें जलने वाले कोयले से बची राख, जिसे फ्लाई ऐश या राखड़ कहते हैं, पूरे शहर में मौजूद है. डंपिंग के नियम स्पष्ट हैं, लेकिन उनका हर जगह उल्लंघन होता दिखता है.

शहर में जगह-जगह कभी सड़क किनारे, तो कभी खेतों और तालाबों में राखड़ का ढेर दिखता है. स्थानीय लोग बताते हैं कि बिजलीघरों से निकला फ्लाई ऐश और ऐश स्लरी (पानी में मिला फ्लाई ऐश) ढोने वाले ट्रक जहां-तहां इन्हें डंप कर देते हैं. हवा चलने पर राखड़ के बारीक कण हवा में मिलकर पूरे शहर की हवा को दमघोंटू बनाते हैं. इनके कारण जल स्रोत भी प्रदूषित होते हैं. जमीन खेती लायक नहीं रहती. राखड़ डंप करने के लिए बनाए गए तालाबों से रिसता पानी भूमिगत जल को भी प्रदूषित करता है.

"नियमों का पालन नहीं होता"

पर्यावरण कार्यकर्ता लक्ष्मी चौहान कोरबा के ही निवासी हैं. वह फ्लाई ऐश के कारण होने वाली समस्याओं पर बताते हैं, "जिस जगह ज्यादा पावर प्लांट हों, वहां प्रदूषण का सबसे बड़ा स्रोत फ्लाई ऐश होता है. अगर आपको बिजली चाहिए, तो फ्लाई ऐश के तौर पर इसकी कीमत चुकानी होगी. हम जो पावर कोल इस्तेमाल करते हैं, उसमें 45 फीसदी राख का हिस्सा होता है. इस हिसाब से देखें, तो कोरबा में अगर हर दिन डेढ़ लाख टन कोयला जल रहा है, तो 55 से 60 हजार टन फ्लाई ऐश रोज पैदा हो रहा है."

लक्ष्मी चौहान फ्लाई ऐश से जुड़े नियमों की ओर ध्यान दिलाते हैं, "नोटिफिकेशन के मुताबिक बहुत सारे नियम हैं, लेकिन धरातल पर उनका पालन नहीं होता है. जैसे कि नियम के मुताबिक 100 फीसदी राखड़ का यूटिलाइजेशन किया जाना है, लेकिन ऐसा नहीं होता." कोरबा में हो ये रहा है कि राखड़ खुलेआम कहीं भी, आबादी वाले इलाकों में भी डंप किए जा रहे हैं. अकसर बिजलीघर से ही राखड़ को पानी में मिलाकर खुले इलाकों में ठिकाने लगा दिया जाता है.

बेहद प्रदूषित है कोरबा की हवा

मानव स्वास्थ्य पर इस फ्लाई ऐश के असर को रेखांकित करते हुए लक्ष्मी चौहान बताते हैं, "स्टेट हेल्थ रिसोर्स सेंटर (एसएचआरसी) की 2020 में आई एक रिपोर्ट के मुताबिक, बिजलीघरों के आसपास जितने लोग रहते हैं, जितनी बस्तियां बसी हैं, झुग्गी-झोपड़ियां हैं, उनके स्वास्थ्य पर कई प्रभाव देखे गए हैं. इनमें त्वचा रोग और सांस से संबंधित रोग शामिल हैं."

गांवों को यहां से उजाड़ने का फरमान निकल चुका है लेकिन बसने की नई जगह अभी नहीं मिली हैतस्वीर: Swati Mishra/DW

मार्च 2020 में एसएचआरसी की एक रिपोर्ट आई, जिसका नाम था: हेल्थ इंपैक्ट असेसमेंट ऑफ कम्युनिटीज इन एरियाज सराउंडिंग कोरबा थर्मल पावर स्टेशंस. इस रिपोर्ट के लिए की गई स्टडी में कोयला बिजलीघरों के आसपास के तीन इंडस्ट्रियल क्लस्टरों से पानी और मिट्टी के नमूने जमा किए गए. साथ ही, नौ जगहों पर हवा की भी सैंपलिंग की गई. पाया गया कि नौ में से पांच जगहों पर पीएम2.5 (पार्टिकुलेट मैटर) का स्तर 60 यूजी/एम3 से ज्यादा है, जो कि पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय (एमओईएफसीसी) की निर्धारित सीमा से अधिक है.

भारत की आजादी के बाद पहली बार वोट पड़ा है यहां

इससे पहले 2016 में धूल के भीतर पीएम2.5 और भारी धातुओं की मौजूदगी जांचने के लिए भी कई जगहों पर हवा के नमूने लिए गए थे. सभी नमूनों में पीएम2.5 का स्तर निर्धारित सीमा से 1.66 से 4.98 गुना तक अधिक पाया गया. पानी के नमूनों में अल्युमिनियम की मात्रा सीमा से अधिक मिली. रिपोर्ट में यह भी बताया गया कि शोध के लिए किए गए एक तुलनात्मक अध्ययन में कोरबा के थर्मल पावर प्लांट की 10 किलोमीटर की परिधि में रहने वाले लोगों में सांस संबंधी बीमारियों का जोखिम ज्यादा था.

"गौरैया और कौए भी नहीं दिखते"

कोयला खदानों के आसपास बसे गांव भी प्रदूषित हवा के कारण कई तरह की समस्याओं का सामना कर रहे हैं. पाली गांव के निवासी ब्रजेश श्रीवास बताते हैं, "खदान गांव से लगे हुए हैं, जिसके कारण प्रदूषण का स्तर यहां बहुत ज्यादा है. कई जगहों पर प्रदूषण मापने के लिए बड़े-बड़े यंत्र लगाए जाते हैं, लेकिन यहां आपको नंगी आंखों से यह दिखता है."

फ्लाई ऐश लेकर जाने वाले ट्रक इसी तरह धुल उड़ाते जाते हैं और उसे जहां तहां डंप कर देते हैंतस्वीर: Swati Mishra/DW

खदानों के कारण जल स्तर भी काफी नीचे चला गया है. पहले हर घर में कुआं हुआ करता था, उसका पानी बड़ा मीठा होता था. कुएं अब भी हैं, लेकिन उनमें पानी सूख चुका है. फसलें उगनी बंद हो गई है. ब्रजेश कहते हैं, "प्रदूषण के कारण आपको यहां गौरैया और कौए भी नहीं दिखते हैं."

हम गांव के बाहर एक पेड़ की छांव में जिस जगह ब्रजेश श्रीवास से बात कर रहे थे, वहां आसपास टूटी ईंटों का मलबा बिखरा था. पूछने पर पता चला कि वो टूटे हुए घरों के निशान हैं. कोयला खदानों के लिए अधिग्रहित जमीनों का मुआवजा मिलने के लिए शर्त रखी गई थी कि जब तक घर नहीं टूटते, मुआवजा नहीं दिया जाएगा.

सबकुछ काला और मटमैला

इस जगह के ठीक पीछे, बमुश्किल 100 मीटर दूर ही कोयला खदान की चौहद्दी शुरू हो जाती है. वहां मिट्टी का एक मुहाना सा बना है, जिसके पार झांकने पर सबकुछ काला और मटमैला दिखता है. कोयला तोड़ती गाड़ियां, खेप लेकर जाते और धूल उड़ाते ट्रक नजर आते हैं.

फ्लाई ऐश को डंप करने के नियमों का बहुत उल्लंघन होता हैतस्वीर: Swati Mishra/DW

ग्रामीणों ने बताया कि दोपहर दो से ढाई के बीच खदान में ब्लास्ट होता है. हमें वहां खड़े-खड़े तीन बार धमाके सुनाई दिए और उनकी तरंगों से होने वाली कंपकंपी महसूस भी हुई. पहले से ही धुएं से भारी हवा में थोड़ा धुआं और मिलता नजर आया.

खदान के पड़ोस में अभी कई परिवार रहते हैं. कुछ गांव बरसों पहले ही अधिग्रहित हो चुके हैं, लेकिन बसने के लिए नई जगह ना दिए जाने के कारण वो अभी गांव छोड़कर नहीं गए हैं. मुआवजे की रकम, नौकरी और विस्थापन को लेकर ग्रामीणों और एसईसीएल के बीच अब भी बात जारी है. इन सबके बीच खदान से निकलने वाला धुआं और गर्दा लोगों को हर रोज थोड़ा-थोड़ा बीमार करता जा रहा है. साफ हवा भले ही बुनियादी जरूरत हो, लेकिन कोरबा और यहां के लोगों के लिए तो ये एक ऐसा अनमोल संसाधन है, जो खनिज संपदा से भरे उनके इलाके में दुर्लभ विलासिता सी लगती है.   

कोयले में धंसती करोड़ों भारतीयों की जिंदगी

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