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पिघलते ग्लेशियर इंसानों के लिए कैसी मुसीबत लाएंगे?

३० अगस्त २०१९

बढ़ते तापमान के कारण पृथ्वी के ध्रुवीय इलाकों में बर्फ की चादर बिखर रही है, संयुक्त राष्ट्र ने अनुमान लगाया है कि पिघलते ग्लेशियरों का आने वाले दशकों में इंसान पर क्या असर होगा.

Antarktis Packeis und Treibeis
तस्वीर: picture-alliance/dpa/blickwinkel/A. Rose

महासागरों और पृथ्वी की बर्फीली जमीन के बारे में इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज की आगामी रिपोर्ट का एक मसौदा समाचार एजेंसी एएफपी को मिला है. इस रिपोर्ट में कहा गया है कि 2015 और उसके पीछे  के एक दशक में ग्रीनलैंड और अंटार्कटिक में बर्फ की चादर करीब हर साल 400 अरब टन कम हुई है. इसके नतीजे में महासागरों का तल हर साल करीब 1.2 मिलीमीटर बढ़ा है. इसी दौर में पहाड़ों के ग्लेशियर ने भी हर साल करीब 280 अरब टन बर्फ खोई है और जो 0.77 मिलीमीटर समुद्र तल हर साल बढ़ने के लिए जिम्मेदार है. 

पोट्सडाम इंस्टीट्यूट फॉर क्लाइमेट चेंज इंपैक्ट में क्लाइमेट प्रोफेसर आंदर्स लेवरमान का कहना है, "पिछले 100 सालों में, दुनिया के समुद्र तल में 35 फीसदी इजाफा ग्लेशियरों के पिघलने की वजह से हुआ है."

उनका कहना है कि भविष्य में ग्लेशियरों के पिघलने से समुद्र तल का बढ़ना 30-50 सेंटीमीटर तक सीमित रहेगा क्योंकि अब इन ग्लेशियरों के पास कम ही बर्फ बची है. इसकी तुलना अगर ग्रीनलैंड और अंटार्कटिक की बर्फ की चादर से करें तो इनके पिघलने से समुद्र का तल कई दर्जन मीटर तक बढ़ सकता है.

पृथ्वी पर करीब 200,000 ग्लेशियर हैं. यह प्राचीन काल से पृथ्वी पर बर्फ का एक विशाल भंडार हैं. ध्रुवीय इलाके के बर्फ के चादर की तुलना में छोटा होने के कारण उन पर तापमान के बढ़ने का ज्यादा असर होता है. ग्लेशियरों के पिघलने से जमीन पर रहने वाले दुनिया के उन लोगों पर असर पड़ेगा जिनके लिए ग्लेशियर ही पानी का प्रमुख स्रोत हैं. हिमालय के ग्लेशियर आस पास की घाटियों में रहने वाले 25 करोड़ लोगों और उन नदियों को पानी देते हैं जो आगे जा कर करीब 1.65 अरब लोगों के लिए भोजन, ऊर्जा और कमाई का जरिया बनती हैं.

आईपीसीसी की रिपोर्ट में एक रिसर्च के हवाले से चेतावनी दी गई है कि एशिया के ऊंचे पर्वतों के ग्लेशियर अपनी एक तिहाई बर्फ को खो सकते हैं. यह हालत तब  होगी जब इंसान ग्रीन हाउस ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को रोकने में कामयाब हो जाए और दुनिया के तापमान में इजाफे को 1.5 डिग्री सेल्सियस पर सीमित कर दिया जाए.

आने वाले दशकों में सामान्य रूप से कामकाज से चलता रहा और वैश्विक अर्थव्यवस्था जीवाश्म ईंधन से ही चलती रही तो ग्लेशियरों का दो तिहाई हिस्सा खत्म हो जाएगा. एक्शन ए़ड के इंटरनेशनल क्लाइमेट प्रमुख हरजीत सिंह का कहना है, "पीने के पानी पर असर होगा, कृषि पर असर होगा और हम लाखों करोड़ों लोगों की बात कर रहे हैं." आईपीसीसी ने अपनी रिपोर्ट के सारांश में कहा है कि मध्य और पश्चिमी हिमालय के इलाके में पहले से ही सिंचाई के लिए पानी की कमी हो रही है.

रिपोर्ट के सारांश में यह भी चेतावनी दी गई है कि जिन इलाकों में बर्फ कम है, इसमें मध्य यूरोप, उत्तरी एशिया और स्कैंडिनेविया के देश हैं वहां 2100 तक ग्लेशियर 80 फीसदी पिघल जाएंगे. स्विट्जरलैंड के बारे में इसी साल वैज्ञानिकों की एक रिपोर्ट में चेतावनी दी गई है कि उत्सर्जन पर रोक नहीं लगने के कारण अल्पाइन के 90 फीसदी ग्लेशियर इस सदी के अंत तक पिघल जाएंगे.

नीदरलैंड्स की डेल्फ्ट यूनिवर्सिटी ऑफ टेक्नोलॉजी के हैरी जोकोलारी का कहना है कि ज्यादातर लोग इस बात का महत्व नहीं समझते कि बर्फ की विशाल संरचनाएं कितनी जरूरी हैं. उन्होंने कहा, "ग्लेशियर एक भंडार है. एक स्वस्थ ग्लेशियर गर्मी में थोड़ा पिघलता है और सर्दियों में और बड़ा बन जाता है. इसका मतलब है कि लोगों को जब पानी की ज्यादा जरूरत होती है तो उन्हें ग्लेशियर से पानी मिलता है."

ग्लेशियरों के पिघलने का इंसान के जीवन पर और भी कई तरह से असर होता है. बोलिविया की प्रशासनिक राजधानी ला पाज के लोगों को उनकी जरूरत का एक तिहाई पानी एंडियन ग्लेशियर से मिलता है. 2016 में शहर सूखा पड़ गया. यहां की करीब 100 बस्तियों में एक महीने से ज्यादा समय तक कोई पानी नहीं था. लोग पानी के लिए झगड़ रहे थे और पूरा दृश्य किसी डरावने फिल्म जैसा था.

यह एक बड़ा उदाहरण है कि ग्लेशियर से पानी आना बंद हुआ तो क्या हो सकता है. ग्लेशियरों का पिघलना कृषि के लिए भी बहुत खराब है. फिलहाल तो खेतों को पानी मिल रहा है लेकिन जब ग्लेशियर नहीं बचेंगे तो नदियों का क्या होगा. आईपीसीसी का कहना है कि ग्लेशियरों के खत्म होने के सिलसिला फिलहाल तेज रहेगा और सदी के बाद के हिस्से में यह कम हो जाएगा. इसके नतीजे में अस्थिरता, ज्यादा भूस्खलन, हिमस्खलन और जल प्रदूषण बढ़ेगा.

एनआर/आरपी (एएफपी)

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