जलवायु परिवर्तन के संकट के बीच पृथ्वी के बारे में एक अच्छी खबर है. पृथ्वी की रक्षा करने वाली ओजोन परत में छेद की खबरों के बाद से ही 1980 के दशक से इसे रोकने की कोशिशें की जा रहे हैं. आखिरकार ओजोन परत सुधरती दिख रही है.
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वैज्ञानिकों का कहना है कि प्रशीतकों और आर्सेनल कैन में इस्तेमाल होने वाले रसायनों की रोकथाम से स्तिथि में सुधार लाना संभव हो सका है. यह इस बात का बड़ा सबूत है कि अगर सब एक हो जाएं तो पृथ्वी के पारिस्थितिकी तंत्र की रक्षा इतना मुश्किल काम भी नहीं.
पैंतीस साल में यह पहली बार है जब वैज्ञानिक ओजोन में पर्याप्त सुधार से जुड़े आंकड़े जुटाने में कामाब हुए हैं. ओजोन परत सूर्य की पराबैंगनी किरणों को पृथ्वी पर आने से रोकती है. ये हानिकारक किरणें त्वचा के कैंसर का प्रमुख कारण हैं. साथ ही ये फसल को भी नुकसान पहुंचाती हैं. नासा के वैज्ञानिक पॉल ए न्यूमन के मुताबिक 2000 से 2013 के बीच ओजोन का स्तर मध्य उत्तरी अक्षांश में चार फीसदी बढ़ा है. उन्होंने हर तीन साल में संयुक्त राष्ट्र द्वारा कराए जाने वाले ओजोन के विश्लेषण की अध्यक्षता की. इसमें 300 वैज्ञानिक शामिल थे.
कैसे पतली हुई परत
वैज्ञानिक मारियो मोलिना ने बताया, "यह कूटनीति और विज्ञान दोनों की जीत है, क्योंकि हम सब एक साथ मिलकर इस दिशा में काम कर पाए." उन्होंने ओजोन के नष्ट होने के बारे में एफ शेरवुड रोलैंड के साथ मिलकर रिपोर्ट तैयार की थी जिसके लिए दोनों को 1995 में रसायनशास्त्र का नोबेल पुरस्कार भी दिया गया था.
ओजोन परत 1970 के दशक से ही पतली हो रही है. मानव निर्मित क्लोरोफ्लोरो कार्बन, वायुमंडल में छोड़ी जाने वाली क्लोरीन और ब्रोमीन गैसें ओजोन के लिए खतरनाक साबित हुईं. वैज्ञानिकों के इस बारे में जानकारी देने के बाद दुनिया भर के देशों ने 1987 में ऐसे समझौते पर हस्ताक्षर किए जिसमें इन गैसों के इस्तेमाल को हटाना तय हुआ. अब इन रसायनों का स्तर कम हो गया है.
इससे पहले संयुक्त राष्ट्र ने अपनी रिपोर्ट में कहा था कि इस समझौते के बगैर 2030 तक त्वचा के कैंसर के 20 लाख और भी ज्यादा मरीज हो सकते थे. हालांकि ओजोन के पूरी तरह ठीक होने में अभी कई साल लगेंगे. उम्मीद की जा रही है कि इस शताब्दी के मध्य तक ओजोन परत पूरी तरह से ठीक हो सकेगी.
एसएफ/आईबी (एपी)
हिमालय की हिफाजत
जर्मन एयरोस्पेस सेंटर (डीएलआर) हिमालय की तस्वीरें ले रहा है. यह पहला मौका है, जब खास 3डी कैमरे से हिमालय की तस्वीरें ली जा रही हैं. इनसे हिमालय क्षेत्र के पर्यावरण में हो रहे बदलावों की जानकारी मिलेगी.
तस्वीर: DLR
हिमालय की नए सिरे से फोटोग्राफी
जर्मन एयरोस्पेस सेंटर (डीएलआर) हिमालय की तस्वीरें ले रहा है. यह पहला मौका है, जब खास 3डी कैमरे से दुनिया की सबसे ऊंची और विशाल पर्वत श्रेणी की तस्वीरें ली जा रही हैं. तस्वीरों से हिमालय क्षेत्र के पर्यावरण में हो रहे बदलावों की जानकारी मिलेगी.
तस्वीर: DLR-CC-BY 3.0
विमान में खास कैमरा
कई परीक्षणों के बाद डीएलआर ने यह कैमरा सिस्टम बनाया है. इसके सहारे पूरे इलाके का 3डी मॉडल बनाया जाएगा. कैमरा एक खास कंटेनर में फिट किया गया है. 8,000 मीटर की ऊंचाई और माइनस 40 डिग्री सेल्सियस की ठंड में मशीन खराब होने का खतरा भी रहता है.
तस्वीर: DLR-CC-BY 3.0
आंकड़ों का विश्लेषण
कंप्यूटर की मदद से डीएलआर के वैज्ञानिक रंगीन 3डी मॉडल बना सकते हैं. इस तकनीक के सहारे पहाड़ों की ढाल को बेहद सटीक ढंग से दर्शाया जा सकता है. इंसानी आंखें ऐसा नहीं कर पाती हैं. मॉडलों से भूस्खलन और हिमस्खलन के नुकसान का अंदाजा लगेगा.
तस्वीर: DLR-CC-BY 3.0
अनोखा मिशन
यह पहला मौका है जब इलाके में एरियल कैमरे इस्तेमाल किए जा रहे हैं. मिशन के लिए डीएलआर के दो मोटर वाले जहाज ने दो हफ्तों तक यूरोप, मिस्र और पाकिस्तान के ऊपर उड़ान भरी. वैज्ञानिकों ने नेपाल के अन्नपूर्णा इलाके में बेस कैंप बनाया.
तस्वीर: DLR/Klaus Ohlmann
खास ट्रेनिंग
इलाके में विमान उतारना और वहां से उड़ान भरना बेहद मुश्किल है. पायलटों ने वहां जाने से पहले काठमांडू में खास फ्लाइट सिम्युलेटरों पर अभ्यास किया. इससे मदद मिली लेकिन चोटियों के करीब उड़ान भरते समय फुल ऑटोमैटिक कैमरे भी बड़ा सहारा बने.
तस्वीर: Klaus Ohlmann
टूरिज्म से नुकसान
हर साल लाखों पर्यटक इन वादियों में आते हैं. नेपाल की अर्थव्यस्था को इससे बड़ा पैसा मिलता है लेकिन इसका खामियाजा कुदरत को भुगतना पड़ता है. पर्वतारोहियों जितने ज्यादा होंगे, कूड़ा भी उतना ही ज्यादा होगा. इससे जमीन और भूजल दूषित होता है.
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प्राकृतिक आपदाओं से बचाव
दुनिया भर में निकल रही ग्रीनहाउग गैसों का असर हिमालय पर साफ दिख रहा है. वर्ल्ड वाइड फंड फॉर नेचर (WWF) के मुताबिक हर साल ग्लेशियर कम से कम 10 सेंटीमीटर पीछे खिसक रहा है. बाढ़ और भूस्खलन गांव के गांव साफ कर दे रहे हैं.
तस्वीर: AP
ताकि खिलखिला उठे पर्वतराज
डीएलआर की रिसर्च का केंद्र हिमालय के ग्लेशियरों और बर्फ की झीलों पर है. ये आबादी वाले इलाके से बहुत दूर हैं. उम्मीद है कि रिसर्च से हिमालय को उसकी चमचमाती काया को लौटाने में मदद मिलेगी.