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पूर्वी जर्मनी का विकास कार्यक्रम

३ अक्टूबर २०१०

तत्कालीन जर्मन चांसलर हेलमूट कोल ने 1990 में जीडीआर के नागरिकों से फलती फूलती धरती का वादा किया था. अब तक पूर्वी हिस्सों के विकास में 130 अरब यूरो खर्च हो चुके हैं. काम अभी पूरा नहीं हुआ है.

तस्वीर: picture-alliance / ZB

जब पश्चिम जर्मन सैलानी देश के पूर्वी हिस्सों में घूमने जाते हैं, वे देखकर चकित रह जाते हैं: कितने करीने से भवनों की मरम्मत हुई है, कितनी चिकनी हैं सड़के और कितनी आधुनिक है संरचनाएं. अक्सर वे पूछा भी करते हैं, अब क्या करना बाकी रह गया है. यह सच है कि एकीकरण के बाद के इन 20 सालों में बहुत कुछ किया गया है. लेकिन बहुत वक्त लग गया इस विकास में. जीडीआर में स्वतंत्र चुनाव में निर्वाचित देश के आखिरी प्रधान मंत्री लोथार दे मेजियेर भी इसे स्वीकार करते हैं. वे कहते हैं, "हमने सोचा था, शायद जल्द ही सारा काम पूरा हो जाएगा. लेकिन अगर आज भी किसी को फलती फूलती धरती नहीं दिखती है, तो या तो वह अंधा है, या फिर सिरफिरा. जब मैं गोएरलित्ज, क्वेडलिनबुर्ग या दूसरे शहरों में जाता हूं, तो तब्दीलियों को देखकर दिल खुश हो उठता है."

जर्मनी का माग्डेबुर्ग शहरतस्वीर: dpa ZB-Fotoreport

जर्मन एकीकरण की प्रक्रिया में अब तक कितना खर्च हुआ है, इसका सिर्फ अनुमान ही लगाया जा सकता है. पूर्वी शहर हाले के आर्थिक शोध प्रतिष्ठान का कहना है कि 1991 से 2009 के बीच 130 अरब यूरो खर्च किए गए हैं. इसका ज्यादातर हिस्सा सीधे पूरब के प्रदेशों के बजट में जाता है. सिर्फ परिवहन मार्गों के निर्माण जैसे क्षेत्रों में प्रत्यक्ष संघीय निवेश होता है.

बेरोजगारी का खर्च

एक पुरानी पड़ गई संरचना में निवेश और उद्यमों की आर्थिक मदद के चलते ही खर्च का हिसाब गड़बड़ नहीं हुआ. जीडीआर की अर्थव्यवस्था पूरी तरह से ध्वस्त हो गई, और पूरब में बेरोजगारी बेहिसाब ढंग से बढ़ती गई, जिसकी वजह से 130 अरब यूरो की मदद का दो-तिहाई हिस्सा सामाजिक अनुदानों के लिए खर्च करना पड़ा. आज भी पूरब में बेरोजगारी पश्चिम से कहीं ज्यादा है.

1 जुलाई 1990 को जब जीडीआर में पश्चिम जर्मन डी-मार्क चालू किया गया था, तो ऐसा नहीं सोचा गया था. जीडीआर के नागरिकों ने दिल खोलकर डी-मार्क का स्वागत किया, लेकिन जीडीआर की अर्थव्यवस्था के लिए वह घातक साबित हुआ. जीडीआर के उद्यमों को अब डी-मार्क में वेतन देने थे, पश्चिम जर्मन अर्थव्यवस्था के साथ प्रतिस्पर्धा में उसकी कमर टूट गई. जीडीआर के नागरिक भी डी-मार्क के बदले पूरब के उत्पाद नहीं खरीदना चाहते थे. चाहे चीनी हो या तंबाकू, घरेलू उपकरण हों या गाड़ी, वे वेस्ट का सामान चाहते थे.

पुरानी मुद्रातस्वीर: picture alliance/dpa

विकल्प नहीं था डी-मार्क का


विशेषज्ञों को पता था कि डी-मार्क के प्रचलन से जीडीआर की अर्थव्यवस्था ध्वस्त हो जाएगी. लेकिन उस समय की याद करते हुए तत्कालीन वित्त मंत्री थेयो वाइगेल आज कहते हैं कि उस समय उन्हें जीडीआर के लोगों के इस नारे का कोई जवाब नहीं दिखा कि अगर डी-मार्क नहीं आता है, तो हम उसके पास जाएंगे. 1989 से 1998 तक वित्तमंत्री रह चुके वाइगेल कहते हैं, वित्त मंत्रालय में हमने विशेषज्ञों के साथ मिलकर हर संभावना पर विचार किया था. कोई योजना काम नहीं आने वाली थी. एक ही रास्ता था कि जर्मनी के बीचोबीच फिर एक दीवार खड़ी कर दी जाए.

एकीकृत जर्मनी में भी आर्थिक क्षमता में विषमता बनी रही. पश्चिम के उद्यम पूरब में अपना सामान बेचते रहे, लेकिन उनका उत्पादन पश्चिम में होता रहा. पूरब के प्रदेशों के उद्योग बेहद धीरे धीरे आगे बढ़े. आज भी पूरब में प्रति व्यक्ति आर्थिक क्षमता पश्चिम के मुकाबले सिर्फ 71 फीसदी है. प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पादन पश्चिम के मुकाबले 66 फीसदी है.

पूर्वी जर्मनी (ट्राबांट) को निगलता पश्चिमी जर्मनी (पश्चिम की कार)तस्वीर: AP

पूरब का विकास एक घाटे का सौदा?


चंद साल पहले एक अमेरिकी उद्यम के मैनेजर ने पूर्व वित्त मंत्री थेयो वाइगेल से पूछा था कि क्या जीडीआर को "खरीदना" घाटे का सौदा था? वे कहते हैं, इस सवाल पर मुझे थोड़ा गुस्सा आया और मैंने कहा, ठीक है, जितनी हमें उम्मीद थी वक्त उससे ज्यादा लगा. लेकिन 1 करोड़ 80 लाख लोग आज एक मुक्त लोकतंत्र में जी रहे हैं. और दस साल में अगर आप इराक में ऐसा नतीजा दिखा सकें, तो आप फिर एकबार यह सवाल पूछ सकते हैं. आज वह मैनेजर काफी खामोश हो चुके हैं. जब भी मुलाकात होती है, वे कहते हैं, थेयो, मैं फिर कभी ऐसा सवाल नहीं पूछूंगा.

थेयो वाइगेल का कहना है कि पूरब का विकास जर्मन धरती पर अब तक का सबसे बड़ा एकजुटता कार्यक्रम है. काफी समय तक यह जारी रहेगा. अभी तक कोई भी पूर्वी प्रदेश वित्तीय रूप से अपने पैरों पर खड़ा नहीं हो सका है. संघीय सरकार की योजनाओं के अनुसार एकजुटता की संधि सन 2019 तक जारी रहेगी, यानी अगले सालों के दौरान भी पश्चिम से पूरब में धनराशि भेजनी पड़ेगी. उसके बाद क्या होगा, देखना पड़ेगा. शायद इस संधि को एक नया नाम देना पड़ेगा, या पश्चिम जर्मनी में प्रचलित नियम के अनुसार पूरब के प्रदेशों की भी मदद की जाएगी. इस नियम का प्रावधान है कि धनवान प्रदेश कमजोर प्रदेशों की मदद करते हैं. यानी कि यह प्रथा पश्चिम में भी है.

रिपोर्ट: सबीने किंकार्र्त्स, उज्ज्वल भट्टाचार्य

संपादन: महेश झा

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