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पूर्वोत्तर की 24 सीटों के लिए घमासान

२ अप्रैल २०१४

धनी सांस्कृतिक विरासत और प्राकृतिक सौंदर्य से भरपूर होने के बावजूद पूर्वोत्तर भारत के सात राज्यों को अक्सर गलत वजहों से ही सुर्खियां मिलती रही हैं. अभी चुनाव के दौरान भी उनकी कोई खास चर्चा नहीं हो रही है.

तस्वीर: STR/AFP/Getty Images

देश के बाकी हिस्सों के साथ पूर्वोत्तर में भी तमाम छोटे-बड़े राष्ट्रीय और क्षेत्रीय राजनीतिक दल कमर कस कर चुनावी अखाड़े में कूद चुके हैं. लेकिन राष्ट्रीय मीडिया में इनके बारे में कोई खास खबर नहीं है. शायद इसकी एक वजह यह है कि इन सात राज्यों को मिला कर लोकसभा की कुल 24 सीटें ही हैं और राष्ट्रीय राजनीति में इनकी कभी कोई निर्णायक भूमिका नहीं रही.

कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी इलाके से अधिक से अधिक सीटें जीत कर दिल्ली की गद्दी की दावेदारी को मजबूत करने के लिए मैदान में उतरी हैं. अरुणाचल प्रदेश, मिजोरम और मेघालय में नौ अप्रैल को मतदान होगा जबकि मणिपुर में दो चरणों में नौ और 17 अप्रैल को वोट पड़ेंगे. असम में मतदान की प्रक्रिया तीन चरणों में 24 अप्रैल को पूरी होगी. त्रिपुरा और नगालैंड को छोड़ कर इलाके के बाकी राज्यों में कांग्रेस की ही सरकार है. भाजपा ने अबकी कांग्रेस के इस गढ़ में सेंध लगाने की तैयारी कर ली है. यही वजह है कि प्रधानमंत्री पद के उसके उम्मीदवार नरेंद्र मोदी दो-दो बार इलाके का दौरा कर वहां कोई आधा दर्जन चुनावी रैलियों को संबोधित कर चुके हैं. कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी भी इलाके के चार राज्यों का दौरा कर चुके हैं.

असम

पूर्वोत्तर का प्रवेशद्वार कहे जाने वाले असम में लोकसभा की सबसे ज्यादा 14 सीटें हैं. यही वजह है कि दिल्ली के सत्ता के दोनों प्रमुख दावेदारों की निगाहें इसी पर टिकी हैं. लेकिन सिर मुंडाते ही ओले पड़ने की तर्ज पर पूर्व मुख्यमंत्री प्रफुल्ल कुमार महंत की अगुवाई वाली असम गण परिषद (अगप) के साथ आखिरी मौके पर चुनावी तालमेल नहीं हो पाने की वजह से भाजपा को शुरूआत में ही झटका लगा है. पिछले चुनाव में दोनों के बीच तालमेल था. भाजपा ने तब असम से पहली बार सबसे ज्यादा चार सीटें जीती थीं. भाजपा से नाता टूटने के बाद अगप ने तेरह सीटों पर उम्मीदवार उतार दिए हैं.

पूर्वोत्तर की खूबसूरत वादियांतस्वीर: DW

उधर, सत्तारुढ़ कांग्रेस का बोड़ो पीपुल्स फ्रंट के साथ तालमेल जस का तस है. राज्य की कम से चार सीटों पर अल्पसंख्यक वोट निर्णायक हैं. राज्य की कम से कम एक-तिहाई आबादी अल्पसंख्यक है. बाकी सीटों पर भी अपने अलग-अलग जातीय समीकरण हैं. पिछले पांच वर्षों के दौरान असम जातीय हिंसा और अलग राज्य की मांग में होने वाले हिंसक आंदलनों से जूझता रहा है. विपक्ष ने इसे ही अपना प्रमुख मुद्दा बनाया है. असम भाजपा के प्रवक्ता प्रद्युत बोरा कहते हैं, "लोग तरुण गोगोई की अगुवाई वाली कांग्रेस सरकार की नाकामी से आजिज आ चुके हैं. इसलिए अबकी वह बदलाव के लिए यहां भाजपा को वोट देगे."

बाकी राज्य

इलाके में अरुणाचल प्रदेश, मिजोरम और मेघालय तो काफी हद तक शांत हैं. मेघालय में तूरा सीट पर पूर्व लोकसभा अध्यक्ष पी.ए.संगमा के मैदान में उतरने से मुकाबला दिलचस्प हो गया है. दूसरी ओर, नगालैंड में इकलौती सीट पर नगालैंड पीपुल्स फ्रंट (एनपीएफ) के नेता और मुख्यमंत्री नेफ्यू रिओ ही सांसद बनने के लिए मैदान में हैं. मिजोरम की इकलौती सीट पर तिकोना मुकाबला है. लेकिन बाकी राज्यों में उग्रवाद की समस्या सिर उठाए खड़ी है. उग्रवाद का आलम यह है कि मणिपुर की दो सीटों के लिए दो चरणों में वोट पड़ेंगे. इन राज्यों में लगभग हर चुनाव में उग्रवादी भी अपनी मौजूदगी दर्ज कराते रहे हैं.

तमाम राज्यों में कुछ स्थानीय मुद्दे हैं. उनके अलावा ज्यादातर राज्य दशकों से उग्रवाद की चपेट में हैं. ऐसे में आम जनजीवन तो प्रभावित हुआ ही है, यह इलाका देश के दूसरे हिस्सों के मुकाबले विकास की होड़ में काफी पीछे छूट गया है. अब तक इलाके में हर चुनावों में उग्रवाद ही प्रमुख मुद्दा रहा है. अबकी पहली बार यहां लोकसभा चुनाव विकास के मुद्दे पर लड़ा जा रहा है. अरुणाचल प्रदेश में ब्रह्मपुत्र पर बनने वाले बड़े बांध और उससे होने वाला विस्थापन भी प्रमुख मुद्दे के तौर पर उभरा है.

रिपोर्ट: प्रभाकर, कोलकाता

संपादन: महेश झा

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