परिसीमन पर क्यों नाराज हैं पूर्वोत्तर राज्य
२८ अगस्त २०२०नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) को लेकर उपजी अशांति के बाद केंद्र ने पूर्वोत्तर के चार राज्यों में परिसीमन का फैसला किया है. इसके लिए कानून में संशोधन भी किया जा रहा है. लेकिन इलाके में इस कवायद का विरोध करने वालों का सवाल है कि सीएए से उपजे विवाद को सुलझाए बिना परिसीमन की कवायद बेमतलब है. अभी कई चीजें साफ होनी हैं. उन्होंने सीएए और नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटीजंस (एनआरसी) पर उपजे विवाद को सुलझाने के बाद 2021 की जनगणना के आधार पर ही परिसीमन की कवायद शुरू करने की मांग उठाई है.
भारत में लोकसभा और विधानसभा की सामओं को नए सिरे से परिभाषित करने के लिए विभिन्न राज्यों में जनगणना के आंकड़ों के आधार पर परीसमन की कवायद होती रही है. इसका मकसद दस साल के दौरान आबादी के अनुपात में होने वाले बदलावों को प्रतिनिधित्व देना है. इसी लिहाज से चुनाव क्षेत्र की सीमाओं को नए सिरे से तय करने के साथ ही आरक्षित सीटों में भी फेरबदल किया जाता है. इसका प्रमुख मकसद यह सुनिश्चित करना है कि आबादी के अनुपात में बदलाव से कुछ खास राजनीतिक दल को फायदा नहीं मिल सके यानी सबको समान मौके मिलें. अक्सर परिसीमन की वजह से लोकसभा और विधानसभा सीटों की संख्या भी बढ़ जाती है. ताजा परिसीमन में इसकी कोई संभावना नहीं है. इसकी वजह यह है कि परिसीमन कानून में संशोधन के जरिए सीटों की तादाद में वृद्धि पर 2026 तक रोक लगा दी गई है. परिसीमन आयोग के फैसलों को किसी अदालत में चुनौती नहीं दी जा सकती.
परिसीमन की कवायद
देश में परिसीमन की कवायद सबसे पहले 1950-51 में हुई थी. तब चुनाव आयोग की सहायता से ऐसा किया गया था. लेकिन 1952 में परिसीमन आयोग अधिनियम बनने के बाद 1952, 1963, 1973 और 2002 में गठित परिसीमन आयोगों के जरिए यह कवायद की गई. 1981 और 1991 की जनगणना के बाद परिसीमन का काम नहीं किया गया था. इसकी वजह तमाम राज्यों में आबादी और लोकसभा सीटों का अनुपात लगभग समान होना था. अधिनियम में इसका प्रावधान है. लेकिन इसका एक मतलब यह भी हुआ कि आबादी नियंत्रण पर ध्यान नहीं देने वाले राज्यों में लोकसभा की सीटें बढ़ने की संभावना थी.
इसके उलट परिवार नियोजन को बढ़ावा देने वाले दक्षिण भारतीय राज्यों को संसद में कम सीटें मिलतीं. इन चिंताओं को ध्यान में रखते हुए परिसीमन को 2001 तक स्थगित रखने के लिए 1976 में संविधान में संशोधन किया गया था. इसके साथ ही एक अन्य संशोधन के जरिए 2026 तक सीटों की तादाद बढ़ाने पर भी रोक लगा दी गई. उस समय तक देश के तमाम राज्यों में आबादी में वृद्धि दर समान होने का अनुमान लगाया गया था. इसी वजह से आखिरी बार 2001 के जनगणना के आंकड़ों के आधार पर 2002 से 2008 के बीच परिसीमन की कवायद चली थी. उस दौरान चुनाव क्षेत्रों की सीमाएं बदलीं और आरक्षित सीटों में बदलाव किए गए थे.
पूर्वोत्तर राज्य शामिल नहीं
आखिरी बार हुई परिसीमन की कवायद से पूर्वोत्तर के उक्त चारों राज्यों को बाहर रखा गया था. इस कवायद को गुवाहाटी हाईकोर्ट में चुनौती दी गई थी. याचिकाकर्ताओं की दलील थी कि इन राज्यों में 2001 के आंकड़ों के साथ छेड़छाड़ की गई थी. राष्ट्रपित को इन चार राज्यों में परिसीमन अभ्यास स्थगित करने का अधिकार मुहैया कराने के लिए 14 जनवरी, 2008 को परिसीमन अधिनियम 2002 में संशोधन किया गया था. लेकिन मौजूदा राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने इस साल 28 फरवरी को वर्ष 2008 के उस स्थगन आदेश को रद्द कर दिया. इससे इन चार राज्यों में परिसीमन की कवायद शुरू करने का रास्ता साफ हो गया.
इस साल 6 मार्च को केंद्रीय विधि मंत्रालय ने सुप्रीम कोर्ट की पूर्व न्यायाधीश न्यायमूर्ति रंजना प्रकाश देसाई की अध्यक्षता में परिसीमन आयोग के गठन की घोषणा की थी. लेकिन चुनाव आयोग के एक पूर्व कानूनी सलाहकार एसके मेंदिरत्ता जून में तीन चुनाव आयुक्तों को लिखकर कहा कि परिसीमन आयोग के गठन की घोषणा वाली कानून मंत्रालय की अधिसूचना जन प्रतिनिधित्व अधिनियम 1950 का उल्लंघन है. उसके बाद केंद्र सरकार ने कानूनी पेचीदगियों को दूर करने और छह मार्च को गठित परिसीमन आयोग के गठन के फैसले को कानूनी वैधता प्रदान करने के लिए जनप्रतिनिधित्व अधिनियम 1950 में संशोधन का प्रस्ताव पेश किया है.
2002 में गठित परिसीमन आयोग के अध्यक्ष रहे न्यायमूर्ति (सेवानिवृत्त) कुलदीप सिंह बताते हैं कि परिसीमन आयोग के आदेशों को अदालत में चुनौती नहीं दी जा सकती है, शायद इसी वजह से सरकार ने आयोग का रास्ता चुना है. ऐसे मामलों में कई कानूनी पेचीदगियां पैदा हो जाती हैं. परिसीमन आयोग के गठन के लिए केंद्रीय विधि मंत्रालय की तरफ से जारी अधिसूचना आयोग जम्मू-कश्मीर पुनर्गठन कानून के प्रावधानों के तहत जम्मू-कश्मीर में लोकसभा और विधानसभा क्षेत्रों का परिसीमन करेगा जबकि असम, अरुणाचल प्रदेश, मणिपुर और नागालैंड में यह कवायद परिसीमन कानून 2002 के प्रावधानों के अनुरूप की जाएगी.
पूर्वोत्तर में विरोध
कांग्रेस समेत तमाम संगठन 2011 के आंकड़ों के आधार पर इलाके के चारों राज्यों में परिसीमन की कवायद पर सवाल उठाते हुए इसका विरोध कर रहे हैं. असम के दो लोगों ने तो इसके खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में याचिका भी दायर की है. याचिका में 2021 की जनगणना पूरी होने तक परिसीमन की कवायद स्थगित रखने का अनुरोध किया गया है. सुप्रीम कोर्ट ने उस याचिका पर केंद्र और असम सरकार से जवाब मांगा है. याचिका में कहा गया है कि असम में नागरिकता संशोधन अधिनियम (सीएए), 2019 के विरोध और एनआरसी के विरोध की वजह से पैदा होने वाली स्थिति को ध्यान में रखते हुए फिलहाल परिसीमन का कोई मतलब नहीं है. अभी यह साफ नहीं है कि एनआरसी से बाहर रहे लोगों की स्थिति क्या होगी.
दूसरी ओर, असम की बीजेपी सरकार ने दावा किया है कि राज्य के मूल निवासियों के हितों की रक्षा के लिए परिसीमन जरूरी है. असम के वित्त मंत्री हेमंत बिस्वा सरमा कहते हैं, ''परिसीमन होना चाहिए ताकि विधानसबा की 126 में से 110 सीटें राज्य के मूल निवासियों के लिए तय की जा सकें.'' लेकिन प्रबासन विरोधी मंच (पीवीएम) जैसे कई संगठनों ने खारिज कर दिया है. इन संगठनों का गठन राज्य में आने वाले अवैध बांग्लादेशियों से मूल निवासियों के हितों की रक्षा के लिए किया गया था. पीवीएम के संयोजक और सुप्रीम कोर्ट के वकील उपमन्यु हजारिका कहते हैं, "बीजेपी के अगुवाई वाली सरकार को राज्य के मूल निवासियों का वोट अपने हाथ से खिसकने का अंदेशा है. उसे लगता है कि परिसीमन की इस कवायद से उसे उन सीटों की संख्या कम करने में मदद मिलेगी जहां राज्य के मूल निवासी बहुमत में हैं. उसकी निगाहें सीएए के जरिए नागरिकता हासिल करने वाले बांग्लादेशी हिंदुओं पर हैं.”
कांग्रेस का सवाल है कि अगला राष्ट्रीय परिसीमन 2026 में होना है. उसमें ज्यादा समय नहीं बचा है. ऐसे में आखिर सरकार को परिसीमन की हड़बड़ी क्यों है? असम के कांग्रेस सांसद प्रद्योत बोरदोलोई कहते हैं, ''इन चार राज्यों में लंबे समय से परिसीमन नहीं किया गया है. इसलिए अब जनगणना के ताजा आंकड़ों के लिए कुछ इंतजार करने में दिक्कत क्या है?” इसबीच, परिसीमन आयोग ने असम, मणिपुर, नागालैंड, अरुणाचल प्रदेश और जम्मू कश्मीर में नई 'प्रशासनिक इकाइयों' की स्थापना पर रोक लगा दी है. यह रोक इन राज्यों और केंद्र शासित प्रदेश में निर्वाचन क्षेत्रों का पुनर्गठन होने तक जारी रहेगी. किसी प्रशासनिक इकाई में कोई जिला या तहसील शामिल हो सकता है. दरअसल, आयोग परिसीमन को अंतिम रूप दे रहा है और अगर कोई नई प्रशासनिक इकाई बनाई जाती है, तो उसे भी निर्वाचन क्षेत्र का हिस्सा बनाना होगा.
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