पूर्वोत्तर राज्य मिजोरम में 10 साल तक राज करने वाली कांग्रेस की पराजय के साथ ही इलाके में पार्टी का सूपड़ा साफ हो गया है. आजादी के बाद से बीते सात दशकों में इलाके के ज्यादातर राज्यों में उसकी ही सरकारें थीं.
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इलाके के सात राज्यों में से तीन तो ईसाई-बहुल हैं, लेकिन वहां भी पार्टी की सरकारें रहीं. इस साल की शुरुआत में उसे नागालैंड और मेघालय में सत्ता से हाथ धोना पड़ा था. मिजोरम में कांग्रेस और उसके मुख्यमंत्री ललथनहवला को हैट्रिक की उम्मीद थी. लेकिन वहां उसे अपने पारंपरिक प्रतिद्वंद्वी (एमएनएफ) के हाथों करारी हार का सामना करना पड़ा है. खुद ललथनहवला दोनों सीटों से चुनाव हार गए. वैसे, बीजेपी ने लगभग तीन साल पहले ही पूर्वोत्तर को कांग्रेसमुक्त करने का नारा दिया था. लेकिन मिजोरम में वह कुछ खास नहीं कर सकी.
अंत की शुरुआत
दरअसल, आजादी के बाद से ज्यादातर समय तक सभी सातों राज्यों पर राज करने वाली कांग्रेस के पैरों तले जमीन खिसकने का सिलसिला लगभग एक दशक पहले ही शुरू हो गया था. अरुणाचल प्रदेश और इलाके के कुछ अन्य राज्यों में क्षेत्रीय दलों के बढ़ते वर्चस्व और पूरी सरकार के पाला बदलने (अरुणाचल प्रदेश के मामले में) की वजह से कांग्रेस धीरे-धीरे हाशिए पर जाने लगी थी. बावजूद इसके उसने इलाके के सबसे बड़े राज्य असम के अलावा पड़ोसी मेघालय और नागालैंड पर अपनी पकड़ बनाए रखी थी. लेकिन दो साल पहले हुए विधानसभा चुनावों में पहले असम उसके हाथों से निकला और फिर इस साल मेघालय और नागालैंड.
विरासत की नेतागिरी
बीजेपी और कम्युनिस्ट पार्टियों को छोड़ दें तो भारतीय लोकतंत्र की प्रमुख पार्टियां वंशवाद के सहारे चल रही हैं. एक नजर ऐसी ही पार्टियों और विरासत में नेतागिरी पाने वाले नेताओं पर.
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राहुल गांधी
पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी के बेटे राहुल गांधी ने अपनी मां सोनिया गांधी से पार्टी की बागडोर संभाली. सोनिया ने 19 साल तक पार्टी का नेतृत्व किया. हालांकि बहुत से लोग राहुल की नेतृत्व क्षमता पर सवाल उठाते हैं. पार्टी को लगातार वंशवाद के आरोपों को भी झेलना पड़ता है.
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अखिलेश यादव
मुलायम सिंह यादव के बेटे अखिलेश यादव बेटा होने के कारण पद पर आए. लेकिन मुख्यमंत्री बनने के बाद उन्होंने पिता के तिकड़म के विपरीत स्वच्छ और भविष्योन्मुखी प्रशासन देने की कोशिश की है.
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तेजस्वी यादव
बिहार के मुख्यमंत्री माता-पिता की संतान तेजस्वी यादव बिहार के उप मुख्यमंत्री रह चुके हैं. नीतीश सरकार से अलग होने के बाद बिहार सरकार और बीजेपी पर खूब हमलावर रहते हैं. पिता लालू यादव भ्रष्टाचार के दोषी होने के कारण चुनाव लड़ नहीं सकते.
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महबूबा मुफ्ती
जम्मू-कश्मीर की मौजूदा मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती जम्मू कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री सैयद मुफ्ती की बेटी हैं और पिता द्वारा बनाए गए राजनीतिक साम्राज्य को संभालने और पुख्ता करने की कोशिश में हैं.
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उमर अब्दुल्लाह
उमर अब्दु्ल्लाह दादा शेख अब्दुल्लाह और पिता फारूक अब्दुल्लाह की राजनीतिक विरासत संभाल रहे हैं. वे जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री रहे हैं और पिछला चुनाव हारने के बाद वे प्रांत में विपक्ष के नेता हैं.
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सुप्रिया सूले
सुप्रिया सूले प्रमुख मराठा नेता शरद पवार की बेटी हैं और सांसद हैं. पिछले चुनाव तक पिता स्वयं सक्रिय राजनीति में थे, इसलिए अभी तक सुप्रिया को राजनीतिक प्रशासनिक अनुभव पाने का मौका नहीं मिला है.
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एमके स्टालिन
द्रमुक नेता और तमिलनाडु के कई बार मुख्यमंत्री रहे करुणानिधि ने अपने बेटे स्टालिन को अपना उत्तराधिकारी चुना है. 63 साल के स्टालिन पार्टी की युवा इकाई के प्रमुख हैं और युवा नेता माने जाते हैं.
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अनुराग ठाकुर
अनुराग ठाकुर हिमाचल प्रदेश के हमीरपुर से भारतीय जनता पार्टी के सांसद हैं. उनके पिता प्रेम कुमार धूमल भाजपा के वरिष्ठ नेता हैं और हिमाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री रह चुके हैं. अनुराग ठाकुर बीसीसीआई के प्रमुख भी रह चुके हैं.
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अशोक चव्हाण
अशोक चव्हाण महाराष्ट्र में कांग्रेस के वरिष्ठ नेता हैं और वह राज्य के मुख्यमंत्री रह चुके हैं. उनके पिता शंकर राव चव्हाण ने भी दो बार बतौर मुख्यमंत्री राज्य की बागडोर संभाली थी.
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चिराग पासवान
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार में केंद्रीय मंत्री रामविलास पासवान के बेटे हैं और सांसद हैं. बिहार में रामविलास पासवान की दलित राजनीति को चमकाना और उसे आधुनिक चेहरा देना उनकी जिम्मेदारी है.
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दुष्यंत चौटाला
वे देश के उपप्रधानमंत्री और हरियाणा के मुख्यमंत्री रहे देवी लाल की खानदानी विरासत को आगे बढ़ा रहे हैं. उनके दादा ओमप्रकाश चौटाला भी मुख्यमंत्री थे, लेकिन अब भ्रष्टाचार के लिए जेल काट रहे हैं.
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सुखबीर बादल
पिता प्रकाश सिंह बादल ने खानदानी राजनीति की नींव रखी. पिता बादल की सरकार में उनके बेटे सुखबीर पंजाब के उपमुख्यमंत्री रहे. बादल की राजनीतिक पूंजी को बचाना का भार उन पर है.
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दरअसल इलाके में कांग्रेस के पतन की कई ठोस वजहें हैं और यह कोई एक दिन में नहीं बनीं. लेकिन शीर्ष नेतृत्व और स्थानीय नेता इन वजहों पर ध्यान देकर उनको दूर करने की बजाय अपनी जेबें भरने में ही ज्यादा मशगूल रहे. कांग्रेस के लंबे शासन के दौरान इलाके के ज्यादातर राज्यों में विकास के नाम पर कोई काम नहीं हुआ. न तो आधारभूत ढांचे को मजबूत करने की दिशा में कोई काम हुआ और न ही उग्रवाद पर काबू पाने की दिशा में. इसके अलावा इस दौरान बड़े पैमाने पर भाई-भतीजावाद और भ्रष्टाचार का पनपना भी उसकी लुटिया डुबने की प्रमुख वजह रही. असम समेत तमाम राज्य आजादी के बाद से ही पिछड़ेपन के शिकार रहे हैं.
इन राज्यों के साथ लंबे अरसे तक केंद्र में भी पार्टी की सरकार रहने के बावजूद इस इलाके को हमेशा उपेक्षित ही रखा गया. नतीजतन बेरोजगारी, घुसपैठ और गरीबी बढ़ती रही. नतीजतन युवकों में पनपी हताशा और आक्रोश ने उग्रवाद की शक्ल ले ली. उग्रवाद की वजह से इलाके में अब तक न तो कोई उद्योग-धंधा लगा और न ही विकास परियोजनाओं पर अमल किया गया. उग्रवाद की आड़ में कांग्रेस सरकारों की तमाम नाकामियां छिपती रहीं. मिजोरम में तो लोग दस-दस साल के अंतराल पर कांग्रेस को मौका देते रहे. लेकिन वहां भी विकास के नाम पर कोई काम नहीं हुआ. नतीजा अबकी कांग्रेस की पराजय के तौर पर सामने आया है.
उपेक्षित रहा इलाका
दरअसल, आजादी के बाद से ही पूरा पूर्वोत्तर इलाका उपेक्षित रहा है. कांग्रेस के केंद्रीय नेतृत्व ने भी कभी इलाके के विकास में खास दिलचस्पी नहीं ली थी. राजनीतिक पर्यवेक्षक टीआर साइलो कहते हैं, "केंद्रीय परियोजनाओं के नाम पर आने वाली करोड़ों के रकम भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ती रही. इलाके के दुर्गम होने और विभिन्न एजेंसियों की उपेक्षा के साथ मुख्यधारा की मीडिया की कोई दिलचस्पी नहीं होने की वजह से पूर्वोत्तर में बड़े पैमाने पर होने वाले भ्रष्टाचार की ओर देश के बाकी हिस्से का ध्यान नहीं गया था.” लगातार उपेक्षा, पिछड़ेपन, नौकरी व रोजगार के अवसरों की भारी कमी औऱ अमीरों और गरीबों के बीच बढ़ती खाई की वजह से धीरे-धीरे आम लोगों का इस राष्ट्रीय पार्टी से मोहभंग होने लगा.
चुनाव दर चुनाव लगातार होने वाली दुर्गति के बावजूद केंद्रीय नेतृत्व की नींद नहीं टूटी. इसका नतीजा अब सामने है. साइलो कहते हैं, "केंद्र और राज्य में शासन चलाने वाली कांग्रेस के उपेक्षित रवैये की वजह से पूर्वोत्तर और देश के बाकी हिस्सों के बीच की खाई लगातार बढ़ती रही. देश के दूसरे हिस्सों में पढ़ाई या रोजगार के लिए जाने वाले लोगों के साथ सौतेले व्यवहार ने भी कांग्रेस से आम लोगों को दूर करने में अहम भूमिका निभाई.” वह कहते हैं कि इलाके के लोग खुद को अलग-थलग महसूस करते रहे. लेकिन कांग्रेस ने कभी इस खाई को पाटने का प्रयास नहीं किया.
क्षेत्रीय दलों का उदय
राजनीतिक पर्यवेक्षकों का कहना है कि कांग्रेस के रवैये की वजह से ही इलाके के तमाम राज्यों में क्षेत्रीय पार्टियों का उदय हुआ और वह कांग्रेस को चुनौती देने की स्थिति में पहुंच गए. इन दलों की स्थापना करने वाले नेता वही थे जो पहले कांग्रेस में थे. लेकिन लोगों का मूड भांप कर उन्होंने कांग्रेस से अलग होकर नई पार्टियां बनाई और सत्ता तक पहुंचे.
इस मामले में मेघालय और नागालैंड की मिसाल सामने है. दूसरी ओर, बीजेपी ने भी जनता का मूड भांपते हुए ज्यादातर राज्यों में स्थानीय दलों के साथ हाथ मिलाया और उसका नतीजा सामने है. मेघालय से लेकर अरुणाचल प्रदेश, मणिपुर, असम और त्रिपुरा तक उसके साथ स्थानीय दल भी सरकार में साझीदार हैं.
मिजोरम विश्वविद्यालय के पूर्व वाइस-चांसलर आर.लालथनलुआंगा कहते हैं, "मिजोरम में अपने आखिरी किले के ढहने के बाद पूर्वोत्तर में कांग्रेस अब ऐसी स्थिति में पहुंच गई है जहां से उसके लिए निकट भविष्य में वापसी संभव नहीं है. उसके पास अब पहले की तरह करिश्माई नेता भी नहीं बचे हैं. ऐसे में कांग्रेस अब अपने पुराने दिनों को याद कर ही संतोष कर सकती है.
भारत की कौन सी पार्टी कितनी अमीर है
भारत की सात राष्ट्रीय पार्टियों को 2016-2017 में कुल 1,559 करोड़ रुपये की आमदनी हुई है. 1,034.27 करोड़ रुपये की आमदनी के साथ बीजेपी इनमें सबसे ऊपर है. जानते हैं कि इस बारे में एडीआर की रिपोर्ट और क्या कहती है.
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भारतीय जनता पार्टी
दिल्ली स्थित एक थिंकटैंक एडीआर की रिपोर्ट के मुताबिक भारतीय जनता पार्टी को एक साल के भीतर एक हजार करोड़ रूपये से ज्यादा की आमदनी हुई जबकि इस दौरान उसका खर्च 710 करोड़ रुपये बताया गया है. 2015-16 और 2016-17 के बीच बीजेपी की आदमनी में 81.1 फीसदी का उछाल आया है.
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कांग्रेस
राजनीतिक प्रभाव के साथ साथ आमदनी के मामले भी कांग्रेस बीजेपी से बहुत पीछे है. पार्टी को 2016-17 में 225 करोड़ रुपये की आमदनी हुई जबकि उसने खर्च किए 321 करोड़ रुपये. यानी खर्चा आमदनी से 96 करोड़ रुपये ज्यादा. एक साल पहले के मुकाबले पार्टी की आमदनी 14 फीसदी घटी है.
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बहुजन समाज पार्टी
मायावती की बहुजन समाज पार्टी को एक साल के भीतर 173.58 करोड़ रुपये की आमदनी हुई जबकि उसका खर्चा 51.83 करोड़ रुपये हुआ. 2016-17 के दौरान बीएसपी की आमदनी में 173.58 प्रतिशत की वृद्धि हुई है. पार्टी को हाल के सालों में काफी सियासी नुकसान उठाना पड़ा है, लेकिन उसकी आमदनी बढ़ रही है.
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नेशनलिस्ट कांग्रेस पार्टी
शरद पवार की एनसीपी पार्टी की आमदनी 2016-17 के दौरान 88.63 प्रतिशत बढ़ी. पार्टी को 2015-16 में जहां 9.13 करोड़ की आमदनी हुई, वहीं 2016-17 में यह बढ़ कर 17.23 करोड़ हो गई. एनसीपी मुख्यतः महाराष्ट्र की पार्टी है, लेकिन कई अन्य राज्यों में मौजूदगी के साथ वह राष्ट्रीय पार्टी है.
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तृणमूल कांग्रेस
आंकड़े बताते हैं कि 2015-16 और 2016-17 के बीच ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस की आमदनी में 81.52 प्रतिशत की गिरावट हुई है. पार्टी की आमदनी 6.39 करोड़ और खर्च 24.26 करोड़ रहा. राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा रखने वाली तृणमूल 2011 से पश्चिम बंगाल में सत्ता में है और लोकसभा में उसके 34 सदस्य हैं.
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सीपीएम
सीताराम युचुरी के नेतृत्व वाली सीपीएम की आमदनी में 2015-16 और 2016-17 के बीच 6.72 प्रतिशत की कमी आई. पार्टी को 2016-17 के दौरान 100 करोड़ रुपये की आमदनी हुई जबकि उसने 94 करोड़ रुपये खर्च किए. सीपीएम का राजनीतिक आधार हाल के सालों में काफी सिमटा है.
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सीपीआई
राष्ट्रीय पार्टियों में सबसे कम आमदनी सीपीआई की रही. पार्टी को 2016-17 में 2.079 करोड़ की आमदनी हुई जबकि उसका खर्च 1.4 करोड़ रुपये रहा. लोकसभा और राज्यसभा में पार्टी का एक एक सांसद है जबकि केरल में उसके 19 विधायक और पश्चिम बंगाल में एक विधायक है.
तस्वीर: DW/S.Waheed
समाजवादी पार्टी
2016-17 में 82.76 करोड़ की आमदनी के साथ अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी सबसे अमीर क्षेत्रीय पार्टी है. इस अवधि के दौरान पार्टी के खर्च की बात करें तो वह 147.1 करोड़ के आसपास बैठता है. यानी पार्टी ने अपनी आमदनी से ज्यादा खर्च किया है.
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तेलुगु देशम पार्टी
आंध्र प्रदेश की सत्ताधारी तेलुगुदेशम पार्टी को 2016-17 के दौरान 72.92 करोड़ रुपये की आमदनी हुई जबकि 24.34 करोड़ रुपये खर्च करने पड़े. पार्टी की कमान चंद्रबाबू के हाथ में है जो आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री भी हैं.
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एआईएडीएमके और डीएमके
तमिलनाडु में सत्ताधारी एआईएडीएमके को 2016-17 में 48.88 करोड़ रुपये की आमदनी हुई जबकि उसका खर्च 86.77 करोड़ रुपये रहा. वहीं एआईएडीएमके की प्रतिद्वंद्वी डीएमके ने 2016-17 के बीच सिर्फ 3.78 करोड़ रुपये की आमदनी दिखाई है जबकि खर्च 85.66 करोड़ रुपया बताया है.
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एआईएमआईएम
बचत के हिसाब से देखें तो असदउद्दीन औवेसी की पार्टी एआईएमआईएम सबसे आगे नजर आती है. पार्टी को 2016-17 में 7.42 करोड़ रुपये की आमदनी हुई जबकि उसके खर्च किए सिर्फ 50 लाख. यानी पार्टी ने 93 प्रतिशत आमदनी को हाथ ही नहीं लगाया. (स्रोत: एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म)