पूर्वोत्तर के विभिन्न संगठनों ने अपनी मांगों के समर्थन में असम को मणिपुर से जोड़ने वाले नेशनल हाइवे की बेमियादी नाकेबंदी का एलान किया है. इससे मणिपुर के साथ ही नगालैंड के लोगों को भारी समस्याओं का सामना करना पड़ेगा.
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नाकेबंदी से इलाके के लोगों के जनजीवन पर भारी असर पड़ेगा क्योंकि देश के बाकी हिस्सों से नगालैंड को यही सड़क जोड़ती है. यह नाकेबंदी इलाके में आंदोलन करने वाले संगठनों का सबसे अहम हथियार बन गई है. मुद्दा चाहे जो भी हो, उसकी मार इलाके की जीवन रेखा कही जाने वाली इस सड़क पर ही पड़ती है. असम से यह सड़क नगालैंड होकर ही मणिपुर तक पहुंचती है. ऐसे में नगालैंड में होने वाली किसी भी नाकेबंदी का असर मणिपुर पर पड़ना लाजिमी है. अबकी दोनों राज्यों में एक साथ नाकेबंदी से आम लोगों का जीवन दूभर होने का अंदेशा है.
ताजामामला
ताजा मामले में मणिपुर के दो संगठनों ने अलग-अलग मांगों के समर्थन में इस सड़क की नाकेबंदी की अपील की है. मणिपुर विश्वविद्यालय ने केंद्रीय विश्वविद्यालय का दर्जा मिलने के बाद विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) के निर्देश पर आदिवासी छात्रों के लिए आरक्षण का कोटा 31 से घटा कर 7.5 फीसदी कर दिया है. इसके विरोध में नगा व कूकी छात्र संगठनों ने राज्य के पांच जिलों में बेमियादी नाकेबंदी शुरू की है. वह आरक्षण का कोटा बहाल करने की मांग कर रहे हैं. दूसरी ओर, नगालैंड में रोंगमेई नगा युवा मोर्चा नामक संगठन ने हाइवे की बदहाली के विरोध में इसकी बेमियादी नाकेबंदी का एलान किया है.
विरोध संस्कृति के सितारे
विरोध की संस्कृति की सबसे ताजा मिसाल अमेरिका में पुलिस हिंसा का प्रतिरोध करती एक महिला की तस्वीर है. ये तस्वीर सोशल मीडिया पर जंगल की आग की तरह फैल गई. बार बार ऐसी तस्वीरें समूचे आंदोलन का प्रतीक बन जाती है.
तस्वीर: Getty Images/R. Stothard
गोलियाथ के खिलाफ डेविड
जुलाई 2016: मोमबत्ती की तरह सीधी और मूर्ति की तरह शांत. ये तस्वीर है न्यू यॉर्क की ईशिया इवांस की जो दंगा विरोधी पुलिस की एक कतार के सामने अडिग होकर खड़ी है. यह तस्वीर लुइजियाना के बैटन रूज में ब्लैक लाइव्स मैटर्स विरोध प्रदर्शन के दौरान खींची गई है. क्या यह तस्वीर अमेरिका में पुलिस की नस्ली हिंसा का विरोध करने वाले आंदोलन का प्रतीक बनेगी?
तस्वीर: Reuters/J. Bachman
नागरिक सवज्ञा
दिसंबर 1955: पब्लिक ट्रांसपोर्ट की एक बस में सांवले रंग वाली रोजा पार्क को एक सफेद चमड़ी वाले पैसेंजर के लिए सीट छोड़ने को कहा गया. विरोध करने पर उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और 10 डॉलर का जुर्माना किया गया. मार्टिन लुथर किंग के नागरिक अधिकार आंदोलन ने एक साल तक बसों का बहिष्कार किया. बाद में सुप्रीम कोर्ट ने नस्ली भेदभाव को असंवैधानिक घोषित कर दिया.
तस्वीर: picture alliance/AP Images
फूल सी बच्ची
अक्टूबर 1967: 17 वर्षीया जेन रोज कासमीर ने वाशिंगटन में वियतनाम युद्ध के खिलाफ एक प्रदर्शन के दौरान पुलिस की तनी हुई बंदूकों के सामने हाथों में गुलदावदी का फूल थाम रखा है. कई साल बाद युद्ध विरोधी कासमीर ने कहा था, "वे नौजवान ही तो थे. वे मेरे दोस्त या मेरे भाई हो सकते थे. और वे पूरे मामले में पीड़ित ही थे."
तस्वीर: Marc Riboud/Magnum Photos
युद्ध के बदले प्यार
मार्च 1969: हिप्पी आंदोलन के सितारे जॉन लेनन और योको ओनो एक बिस्तर में. एक नवविवाहित जोड़े के लिए इसमें कुछ भी खास नहीं है. लेकिन दोनों ने एम्सटरडम के एक लक्जरी होटल में प्रेस को बेड इन के लिए बुलाया और संदेश दिया, मेक लव नॉट वार. ये पीआर एक्शन इतना कामयाब हुआ कि इसे दो महीने बाद मॉन्ट्रियाल में फिर से दोहराया गया.
तस्वीर: picture alliance/AP Images
अनजाना विद्रोही
जून 1989: खरीदारी का झोले लिए यह व्यक्ति चीनी सेना के टैंक के सामने उसे रोक कर खड़ा हो गया. एक दिन पहले ही साम्यवादी सरकार ने राजधानी बीजिंग में लोकतांत्रिक आंदोलन को कुचल दिया था. कितने लोग मारे गए किसी को पता नहीं. बहुत से फोटोग्राफरों ने ये तस्वीर खींची लेकिन टैंक को रोके खड़े शांतिपूर्ण विद्रोही का नाम कोई नहीं खोज पाया है.
तस्वीर: picture alliance/AP/J. Widener
वायरल वीडियो
नवंबर 2011: एक वीडियो ऑकुपाई आंदोलन का प्रतीक बन गया. कैलिफोर्निया यूनिवर्सिटी के डेविस कैंपस में फीस बढ़ाने के खिलाफ प्रदर्शन कर रहे छात्रों ने जब धरने से हटने से मना कर दिया तो एक पुलिस वाले ने उन्हें तितर बितर करने लिए उन पर पेपर स्प्रे करना शुरू कर दिया. वीडियो वाइरल हो गया और पुलिस के बल प्रयोग पर बहस छिड़ गई.
तस्वीर: picture alliance/AP Images/W. Tilcock
लाल परी
मई 2013: सेइदा सुंगर अपने लाल लिबास में इस्तांबुल के गेजी आंदोलन का प्रतीक बन गई. गेजी पार्क को खत्म कर वहां इमारतें बनाने वाले प्रोजेक्ट के खिलाफ प्रदर्शन करने वाले हजारों लोगों में वे भी शामिल थीं. यह राष्ट्रपति रेचप तय्यप एर्दोवान की सरकार के खिलाफ छह महीने तक चले विरोध प्रदर्शनों की शुरुआत थी जिसमें 8 लोग मारे गए.
तस्वीर: Reuters
आस्था में भरोसा
जनवरी 2014: यूक्रेन की राजधानी कीएव में मैदान आंदोलन के दौरान धूल का गुबार. रूस समर्थक सरकार की दंगा विरोधी पुलिस और पश्चिम समर्थक आंदोलनकारियों के बीच खड़ा एक ऑर्थोडॉक्स पादरी. उसे आसपास के हंगामे की कोई चिंता नही. वह आराम से प्रार्थना कर रहा है और ईश्वर को याद कर रहा है.
तस्वीर: Getty Images/R. Stothard
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नगा युवा मोर्चा की इस अपील का हाइवे पर वाहन चलाने वाले ड्राइवरों ने भी समर्थन किया है. उन ट्रक चालकों ने अपने संसाधनों से इस सड़क की मरम्मत की भी बात कही है. इसके साथ ही नगालैंड में पेट्रोल व डीजल में बड़े पैमाने पर होने वाली मिलावट के विरोध में 21 संगठनों को लेकर गठित समन्वय समिति ने भी 17 अक्तूबर से आंदोलन का एलान किया है. समिति का आरोप है कि राज्य सरकार ने इस घोटाले की जांच सीबीआई को सौंपने से इंकार कर दिया है. ऐसे में उनके समक्ष आंदोलन के अलावा कोई विकल्प नहीं है. इस मिलावटी ईंधन का 80 फीसदी हिस्सा पड़ोसी मणिपुर में बेचा जाता है. विभिन्न संगठनों की नाकेबंदी की अपील को ध्यान में रखते हुए नगालैंड के पीडब्ल्यूडी मंत्री के. बीरेन ने इंजीनियरों के साथ राजधानी कोहिमा में आपात बैठक की थी. लेकिन उसका कोई ठोस नतीजा नहीं निकला है.
नईनहींहैनाकेबंदी
पर्वतीय राज्य मणिपुर को देश के बाकी हिस्सों से जोड़ने वाली सड़क को राज्य की जीवनरेखा कहा जाता है. खाने-पीने से लेकर रोजमर्रा की जरूरत की तमाम वस्तुएं इन सड़कों के जरिए ही राज्य में पहुंचती हैं. लेकिन अक्सर होने वाली नाकेबंदी के दबाव में यह जीवनरेखा लगातार कमजोर होती जा रही है, आंदोलनकारियों का सबसे आसान हथियार समझी जाने वाली यह सड़क अक्सर उनके निशाने पर रही हैं. मुद्दा चाहे कोई भी हो, तमाम संगठन अक्सर नाकेबंदी के नाम पर इन सड़कों पर वाहनों की आवाजाही रोक कर उसे ठप कर देते हैं. बीते दिनों इनर लाइन परमिट समेत बीते साल विधानसभा में पारित तीन कथित आदिवासी-विरोधी विधेयकों के विरोध में पूर्वोत्तर राज्य मणिपुर में 10 दिनों की आर्थिक नाकेबंदी की वजह से राज्य में आम जनजीवन ठप हो गया था.
मशीनों पर हमले से न्यूनतम वेतन तक
मजदूर आंदोलनों और उनके संगठनों ने पिछले 150 साल में बहुत कुछ हालिस किया. उनकी जड़ें औद्योगिक काल के उन आंदोलनों में है जब मजदूरों ने कारखानों के मालिकों के शोषण के खिलाफ विद्रोह किया था.
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फायदे और नुकसान
18वीं सदी में ब्रिटेन में शुरू हुई औद्योगिक क्रांति दुनिया के लिए तकनीकी प्रगति लेकर आई लेकिन साथ सामाजिक समस्याएं भी. मजदूर औद्योगिक उत्पादन की रीढ़ थे, लेकिन वे मालिकों के शोषण का विरोध कर रहे थे. ब्रिटेन में उन्होंने रोजगार खाते मशीनों को तोड़ना शुरू कर दिया.
तस्वीर: imago/Horst Rudel
कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो
उद्योगों में काम करने वाले लोगों की भी हालत खराब थी. उन्हें घंटों काम करना पड़ता, बहुत कम तनख्वाह मिलती और शायद ही अधिकार थे. उन्होंने संगठित होना शुरू किया. कार्ल मार्क्स और फ्रीडरिष एंगेल्स ने शोषित वर्ग को एक कार्यक्रम दिया और एकजुट होने की अपील की.
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राजनीतिक हुआ मजदूर आंदोलन
मजदूरों के कई संगठनों ने मिल कर 1864 में फर्स्ट इंटरनेशनल बनाया. साथ ही विल्हेल्म लीबक्नेष्ट और ऑगुस्ट वेबेल के नेतृत्व में जर्मन लेबर ऑर्गेनाइजेशन और सोशल डेमोक्रैटिक लेबर पार्टी जैसे दलों का गठन हुआ. इन दोनों पार्टियों से आज की सोशल डेमोक्रैटिक पार्टी बनी.
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सोशल डेमोक्रैट बनाम कम्युनिस्ट
जर्मन सोशल डेमोक्रैटिक पार्टी दूसरे देशों के लिए आदर्श बनी. मजदूरों के लिए उसका संघर्ष विचारधारा से प्रेरित था. पहले विश्व युद्ध के बाद बहुत से यूरोपीय देशों में मजदूर आंदोलन सोशल डेमोक्रैटों और कम्युनिस्टों में बंट गया. लेनिन ने कम्युनिस्ट क्रांति के बाद सोवियत संघ का गठन किया.
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नाजियों ने लगाया प्रतिबंध
विभाजन के बावजूद 1920 के दशक में मजदूर आंदोलन चरम पर था. ट्रेड यूनियनों में सदस्यों का रिकॉर्ड बन गया. जर्मनी में नाजियों के सत्ता में आने पर इस पर रोक लग गई. आजाद ट्रेड यूनियनों को भंग कर दिया गया, नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया और कुछ को फांसी दे दी गई.
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जीडीआर में विद्रोह
दूसरे विश्व युद्ध के बाद मित्र देशों की निगरानी में ट्रेड यूनियनों को फिर से जायज करार दिया गया. जीडीआर में ट्रेड यूनियन महासंघ बना. 17 जून 1953 को लाखों कामगारों ने राजनीतिक नेतृत्व के खिलाफ विद्रोह किया. सोवियत सैनिकों ने विद्रोह को कुचल दिया. ट्रेड यूनियन सरकार के साथ रहा.
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मजदूर बिन मजदूर आंदोलन
लोकतांत्रिक देशों में 1945 के बाद से ट्रेड यूनियनों का महत्व गिरता गया है. कभी मजदूर आंदोलनों की नींव रखने वाले औद्योगिक कामगारों की तादाद लगातार गिरती जा रही है. इसके अलावा 60 और 70 के दशक से महिला और पर्यावरण आंदोलनों ने उसे पीछे धकेल दिया है.
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मजदूर नेता से राष्ट्रपति
राष्ट्रीय सीमाओं से बाहर धूम मचाने वाला एक ट्रेड यूनियन है पोलेंड का सोलिदारनोस्क. 1980 में स्थापना के कुछ ही समय बाद वह जनांदोलन बन गया. उसने 10 साल बाद देश में राजनीतिक बदलाव में अहम भूमिका निभाई. उसके पहले नेता लेख वालेंसा 1990 में राष्ट्रपति बने.
तस्वीर: picture-alliance/dpa
मौजूदा स्थिति
इन दिनों ट्रेड यूनियन और वामपंथी पार्टियां काम और जीवन की परिस्थितियों में बेहतरी के लिए संघर्ष करती हैं. मसलन वेतन की डंपिंग, दफ्तर में भेदभाव की समाप्ति और पर्याप्त पेंशन के लिए.
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राज्य के विभिन्न संगठनों के लिए नाकेबंदी सबसे बड़े हथियार के तौर पर उभरी है. तमाम संगठन अपनी मांगों के समर्थन में नाकेबंदी की अपील कर देते हैं. पिछले कुछ वर्षों से मणिपुर को हर साल सालाना औसतन सौ दिनों से ज्यादा की नाकेबंदी झेलनी पड़ी है. वर्ष 2012 में यह नाकेबंदी सबसे ज्यादा 103 दिनों तक चली थी. इससे पहले वर्ष 2005 में अखिल नगा छात्र संघ ने राज्य में 52 दिनों तक आर्थिक नाकेबंदी की थी. उसके बाद वर्ष 2010 में जब सरकार ने अलगाववादी नगा नेता और नेशनल सोशलिस्ट काउंसिल ऑफ नगालैंड के महासचिव टी.मुइवा के मणिपुर में प्रवेश पर पाबंदी लगाई थी तो नगा संगठनों ने 68 दिनों तक नाकेबंदी की थी.
सरकारउदासीन
मणिपुर सरकार ने पिछली नाकेबंदी के बाद इस पर पाबंदी लगाने के लिए एक कानून बनाने की बात कही थी. लेकिन तमाम दलों के अगले साल होने वाले विधानसभा चुनावों की तैयारियों में व्यस्त हो जाने की वजह से वह मामला भी खटाई में पड़ गया है. प्रमुख नगा संगठन यूनाइटेड नगा काउंसिल के प्रचार सचिव एस. मिलन कहते हैं कि जब तक नगा समस्या का स्थायी हल नहीं होता तब तक मणिपुर में शांति नहीं लौट सकती. इलाके के सामाजिक संगठनों का आरोप है कि राज्य और केंद्र सरकार इन राज्यों की समस्याओं पर कोई ध्यान नहीं देती. केंद्र की निगाह में तो यह इलाका दशकों से उपेक्षा का शिकार है. लेकिन राज्य सरकारें भी किसी तरह अपनी कुर्सी बचाने में जुटी रहती हैं. उनको आम लोगों के हितों का कोई ख्याल नहीं है.
राजनीतिक पर्यवेक्षकों का कहना है कि सरकार की उदासीनता के विरोध में ही कोई भी संगठन कभी भी नाकेबंदी की अपील कर देता है और कोई कार्रवाई करने की बजाय सरकार हाथ पर हाथ धरे बैठी रहती है. ऐसे में आम लोग नाकेबंदी से पैदा होने वाली समस्याओं का सामना करने पर मजबूर हैं.