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पेटेंट बड़ा कि पेशेंट

२० अगस्त २०१२

कैंसर की दवा बनाने वाली कंपनी नोवार्टिस दवा का फॉर्मूला सार्वजनिक नहीं करना चाहती. सुप्रीम कोर्ट का फैसला यह तय करेगा कि भारत किसका पक्ष लेगा, गरीबों के लिए दवा या मुनाफा कमा रहीं कंपनियों का.

तस्वीर: AP

भारत की सर्वोच्च अदालत कैंसर की दवा के मामले में नोवार्टिस की अंतिम दलीलें सुनने जा रही है. दवा का पेटेंट अगर आम कंपनियों को दे दिया जाता है तो भारत में कैंसर ही नहीं, बाकी मर्जों की दवा बनाने वाली सैंकड़ों कंपनियों पर भी सुप्रीम कोर्ट के फैसले का असर पडे़गा. लेकिन नोवार्टिस का कहना है कि कैंसर की दवा के लिए उसके पेटेंट को वह सौंपना नहीं चाहता, क्योंकि यह पुरानी दवा के आधार पर ही बनाया गया है. अगर नोवार्टिस पेटेंट अपना पास रखता है तो उसे दवा की बिक्री से बहुत फायदा होगा और साथ ही उन भारतीय कंपनियों को भी रोका जा सकेगा जो सस्ते में दवा बनाना चाहती हैं.

इससे पहले सुप्रीम कोर्ट ने जर्मन कंपनी बायर की कैंसर दवा पर भी एक फैसला सुनाया था. नेक्सावार नाम की दवा कैंसर के मरीजों को बचा तो रही थी, लेकिन इसके ऊंचे दामों की वजह से कई मरीज इसे खरीद नहीं पा रहे थे.

तस्वीर: picture alliance/dpa/lsw

बाजार या मरीज?

नोवार्टिस की सुनवाई बुधवार को शुरू होने वाली है और मामला कई हफ्तों तक चल सकता है. पश्चिमी कंपनियां इस बात से खुश हैं कि भारत में दवा बाजार बढ़ रहा है, लेकिन भारत में दवाओं के पेटंट को लेकर कानून कुछ ढीले हैं. इन कंपनियों का कहना है कि भारत दवा क्षेत्र में खोज और आविष्कार को बढ़ावा नहीं देता.

उधर कंपनियों के आलोचकों का कहना है कि नोवार्टिस के मामला जीतने से भारत और विकासशील देशों में लाखों लोगों को नुकसान होगा क्योंकि भारत दुनियाभर में सस्ती दवाएं मुहैया कराता है. डॉक्टर्स विदाउड बॉर्डर्स की नई दिल्ली में मैनेजर लीना मेघानी कहती हैं कि इस फैसले पर बहुत कुछ टिका हुआ है. उनकी संस्था भारत से खरीदे दवाओं का इस्तेमाल अफ्रीका और कई दूसरे गरीब देशों में करती है.

2001 में अमेरिका ने नोवार्टिस की दवा को मंजूरी दी और इसे ग्लिवेक नाम दिया गया. कैंसर मरीज इसके लिए हर साल 70,000 डॉलर तक खर्च करते हैं. रोजाना इसकी एक या दो खुराक लेनी पड़ती है. भारतीय दवाओं के लिए मरीज सालाना केवल 2,500 डॉलर खर्च करते हैं. बड़ी कंपनियों का कहना है कि भारतीय कंपनियां सस्ते में दवा बना सकती हैं क्योंकि वे शोध और आविष्कार में कम पैसे लगाती हैं.

तस्वीर: CC-BY-SA-3.0 LegalEagle

घाटा नहीं होगा

डॉक्टर्स विदाउट बॉर्डर्स की मेंघानी का कहना है कि अगर भारतीय अदालत नोवार्टिस को पेटंट रखने की इजाजत देती है, तो भारत विकासशील देशों को दवा उपलब्ध नहीं करा पाएगा. नोवार्टिस का कहना है कि डरने की कोई बात नहीं, गरीब देशों को दवा पहुंचाने के और भी कई कानूनी तरीके हैं. अगर नोवार्टिस केस हार जाता है तो भी उसे घाटा नहीं होगा. विश्व भर में ग्लिवेक की बिक्री सालाना 4.7 अरब डॉलर है, भारतीय कंपनियों का मुनाफा इसके मुकाबले ना के बराबर होगा.

दूसरी तरफ, यह तय हो जाएगा कि भारत में पेटेंट मिलना मुश्किल काम है. भारतीय पेटेंट कानून की धारा 3 डी के तहत एक दवा के लिए एक से ज्यादा पेटेंट वर्जित है. साथ ही दवा बनाने वाले को साबित करना होगा कि दवा विकसित करने में उसने बड़ी सफलता हासिल की है. 1993 में ग्लिवेक को कुछ बाजारों में पेटंट दिया गया था और भारतीय अदालत अब इसी को आधार बना सकती है.

मेघानी कहती हैं, मामला पेटंट वर्सेस पेशंट का है. "आप भारत में आसानी से अगर पेटंट दर्ज करा सकें, तो आम दवाओं को बनाने में दिक्कत आएगी. नोवार्टिस ज्यादा पेटंट चाहता है. भारत चाहता है कि पेंटट केवल तब दिए जाएं, जब दवा तकनीक में बहुत बड़ा बदलाव लाया गया हो."

एमजी/एनआर(रॉयटर्स)

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