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पेट्रोल नहीं, तो कचरे से चलाएं कार

२ अप्रैल २०१२

फल, सब्जियों का कचरा या सड़ी हुई सब्जियां हमेशा ही कचरे में फेंकी जाएं ऐसा जरूरी नहीं है, जर्मनी के श्टुटगार्ट शहर में इस कचरे से कार चलाने की कोशिश हो रही है.

तस्वीर: picture-alliance/dpa

जर्मनी जैसे विकसित देशों में ढेर सारा खाना अक्सर कचरे के डिब्बे में जाता है. हाल ही में आए रिसर्च के नतीजे बताते हैं कि जर्मनी के लोग साल भर में 11 मेट्रिक टन खाना कचरे के डब्बे में फेंक देते हैं.

जर्मनी की ऑटोमोबाइल राजधानी श्टुटगार्ट में इन दिनों शोध चल रहा है कि कैसे फलों सब्जियों के कचरे से बायोगैस बनाई जाए. ऐसे सर्विस स्टेशन बनाने पर भी विचार हो रहा है जहां इस गैस को सीधे कार में डाला जा सके. जहां बायो गैस बनेगी वहीं उसे कार में भी डाला जाएगा. पेट्रोल की दिन ब दिन बढ़ती कीमतों के बीच यह खोज फायदे का सौदा साबित हो सकती है.

तस्वीर: picture-alliance/dpa

बाजार से टैंक तक

श्टुटगार्ट का थोक बाजार जर्मनी का तीसरा सबसे बड़ा बाजार है. यहां की कंपनी टाइटस श्टाइगर फल और सब्जियों का व्यापार करती है. यहां ऐसी कई सौ कंपनियां हैं. हरी सब्जियों का जल्दी यानी तीन दिन के अंदर बिकना जरूरी है. श्टाइगर ने डॉयचे वेले से बातचीत में बताया, "फिर हमें इन्हें फेंक देना पड़ता है. हरी सब्जियों के साथ हमारे पास दो ही दिन होते हैं."

श्टुटगार्ट के बाजार में हर साल दो हजार किलोग्राम ग्रीन कचरा पैदा या फिर कहें कि जैविक कचरा पैदा होता है. फिलहाल इसे नगर निगम ले जाता है और इसका खाद तैयार करता है. जर्मनी के कई राज्यों में बायोगैस के जरिए घर को गर्म रखने का सिस्टम चलाया जाता है या फिर बिजली बनाई जाती है.

श्टुटगार्ट में चल रहे नए प्रोजेक्ट में फ्राउएनहोफर संस्थान का इंटरफेशियल इंजीनियरिंग और बायोटेक्नोलॉजी का विभाग मदद कर रहा है. वे दिखाना चाहते हैं कि जैविक कचरे से भी कारें चल सकती हैं. यह प्रयोग एटामैक्स प्रोजेक्ट का एक हिस्सा है जिसे जर्मनी के शोध मंत्रालय से 60 लाख यूरो की राशि मिली है.

तस्वीर: Fraunhofer IGB

श्टुटगार्ट में बायोगैस फैक्ट्री

इस पायलट प्रोजेक्ट के तहत पास के बाजार और कैफे से जैविक कचरा इकट्ठा किया जाएगा और इसे सड़ा कर मीथेन गैस बनाई जाएगी. कई दिन चलने वाली दो स्तर की प्रक्रिया में कई जीवाणु कचरे को पचाएंगे, जिससे मीथेन गैस बनेगी. इसे गाड़ी में ईंधन के तौर पर इस्तेमाल किया जा सकेगा. यह उन कारों में इस्तेमाल की जा सकेगी जो सीएनजी गैस से चल रही हैं.

फ्राउएनहोफर संस्थान में रिसर्च करने वाली उर्सुला श्लीसमान कहती हैं, "जैविक कचरे में पानी बहुत होता है और लिग्निन, लिगनोसेल्यूलोज कम होता है इससे वह आसानी से अपघटित हो जाता है." वहीं कार्ल क्यूबर दूसरी मुश्किल की ओर इसारा करती हैं वह कहती हैं कि मौसम के हिसाब से सब्जियों फलों का कचरा भी तेजी से बदला है. "अगर खरबूजे या तरबूज का मौसम है और अचानक ठंड पड़ जाए तो कोई इन्हें नहीं खरीदता फिर बड़ी संख्या में इन्हें फेंकना पड़ता है. हर दिन कचरा भी अलग अलग होता है. कभी तो पत्तियां ज्यादा होती हैं तो कभी संतरे मौसम्मी जैसे फल जिनमें साइट्रिक एसिड होता है."

इसका मतलब है कि वैज्ञानिकों को ईंधन बनाते समय पीएच फैक्टर का ध्यान रखना पडेगा. इसके लिए जैविक कचरे को अलग अलग रखा जाएगा. श्लीसमान कहते हैं, "हमें एक ऐसा सिस्टम बनाना होगा कि किस प्रकार के कचरे को कितना लिया जाए और फिर उसमें जीवाणु डाले जाएं. यह संतुलन बना कर रखना होगा ताकि माइक्रोऑर्गेनिज्म काम कर सकें."

कचरे का कचरा नहीं

बायोगैस बन जाने के बाद जो बच जाता है और जिसे सड़ाया नहीं जा सकता उसका कहीं और इस्तेमाल किया जाता है. सड़े हुए कचरे से निकले पानी में नाइट्रोजन और फॉस्फोरस होती है इसे काई की पैदावार बढ़ाने में इस्तेमाल किया जा सकता है. काई से डीजल इंजिन के लिए ऑयल बन सकता है. कुल मिला कर कचरे का कचरा बिलकुल नहीं बचता.

कार में कैसे

चूंकि यह ईंधन कचरे से बनेगा इसलिए इसका खाद्य उत्पादन पर कोई असर नहीं पड़ेगा. अभी बनने वाले बायो फ्यूल इथेनॉल में मक्का या दूसरी फसलें इस्तेमाल की जाती हैं जो इसमें नहीं होगा. इथेनॉल की काफी आलोतना हुई क्योंकि इससे न केवल फसल बर्बाद होती बल्कि जमीन का भी कोई उपयोग नहीं हो पा रहा था.

लेकिन जैविक कचरा तो वैसे ही फेंका हुआ है. अभी इनसे खाद बनती है. जर्मनी के राज्य बाडेन व्युर्टेम्बर्ग में यह नया प्लांट लगा है. वहां फ्रेंड्स ऑफ अर्थ जर्मनी(बुंड) के अध्यक्ष बेर्टोल्ड फ्रीस कहते हैं कि इस तरह की तकनीक से कचरे की मांग कृत्रिम रूप से नहीं बढ़ाई जानी चाहिए. वे कहते हैं पहले ही दुनिया में आधा खाना फेंका जाता है. इसलिए इस तरह की तकनीक से लोगों की फेंकने की प्रवृति नहीं बढ़नी चाहिए. वे हल्की और ज्यादा सक्षम कारों की पैरवी करते हैं साथ ही सार्वजनिक यातायात के साधन बढ़ाने की भी.

उधर श्लीसमान को उम्मीद है कि छोटे बायोगैस प्लांट्स किसी भी शहर में बनाए जा सकते हैं और बिजली और ऊर्जा के उत्पादन में अहम भूमिका निभा सकते हैं. इस तरह की तकनीक का फायदा यह है कि इसे शहर के बीचों बीच भी बनाया जा सकता है क्योंकि बंद मशीनों में बदबू आने का भी सवाल नहीं.

अप्रैल के अंत में यह प्लांट काम करना सुरू कर देगा. तब जर्मनी की डाइमलर कार कंपनी टेस्ट कारों पर परीक्षण करेगी. इन कारों में मीथेन गैस के अलग अलग मिश्रण भरे जाएंगे और देखा जाएगा कि कौन सा मिश्रण सही काम कर रहा है.

रिपोर्टः इरीने क्वाइले, केट हेरसिने, आभा एम

संपादनः एन रंजन

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