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पेट की खातिर एक मासूम बनता है लड़की

१३ जुलाई २०१२

जिन मासूमों के हाथ में कलम-किताब होनी चाहिए उनके हाथ में भीख का कटोरा है. जिन कदमों को स्कूल की डगर पर चलना चाहिए वो सड़क किनारे थिरक कर लोगों का मनोरंजन करते हैं और परिवार का पेट पालते हें.

तस्वीर: DW

ये दर्दनाक सचाई है हिंदुस्तान की.

जयपुर की सिन्धी कॉलनी में तेज़ आवाज़ में हिंदी फिल्म का एक गाना बज रहा है जिस के बोल हैं 'पल्लू के नीचे छिपा कर रखा है, उठा दूं तो हंगामा हो'. इस पर ठुमके लगा रही है एक सजी- संवरी चार साल की प्यारी सी बच्ची. आंखों में कजरा, माथे पर छोटी सी बिंदिया, सिर पर रंगीन चश्मा और बालों को हेयर बैंड में गूंधे वो बिना शब्दों का अर्थ समझते हुए अपनी ही धुन में नाचती चली जा रही है. सड़क पर चल रहा ट्रैफिक रुक सा गया है और आने जाने वाले भी हैरत भरी निगाहों से उसे देखने लगे हैं. और वो है कि बस, बल खाई कमर पर प्रयोग ही करती ही चली जा रही है.

लड़की के साथ अट्ठारह - उन्नीस बरस की दो युवतियां भी है जिन में से एक सड़क पर हथौड़े मार कर दो बांस लगाने में प्रयासरत है जबकि दूसरी तीन माह की रोती हुई अपनी बच्ची को चुप करने की असफल कोशिश कर रही है. गाना बदल गया है और लडकी की अदाएं भी अब बदल गई है. हथौड़े की आवाज़ रुक गयी है और सड़क की एक तरफ दो बांसों पर एक रस्सी बंध गयी है. लड़की ने नाचना छोड़ सड़क के बीचों बीच कलाबाजियां खाना शुरू कर दिया है. आधे घंटे तक वह अपने करतब दिखाती रही.

पैसा कमाने की कवायद

गाना फिर एक बार बदला और सारा माहौल ही जैसे बदल गया. 'गरीबों की सुनो वो तुम्हारी सुनेगा.. तुम एक पैसा दोगे वो दस लाख देगा.' लडकी और उस के साथ की दोनों युवतियों ने सब के सामने भीख मांगना शुरू कर दिया. तमाशा देखने में मशगूल भीड़ एक मिनिट में ही तितर-बितर हो जाती है. आधे घंटे की कुल कमाई बस बीस रुपये.

तस्वीर: DW

"बाबू जी, मेरा नाम मधु है और यह मेरा बेटा है अर्जुन जो पूरे नौ जनों का परिवार चलाता है. यह मेरी बड़ी बहिन कांता है जिस की गोद में छोटी बच्ची है. हम लोग बिलासपुर, छतीसगढ़ के रहने वाले हैं और यहां जयपुर में छ: सौ किलोमीटर दूर सिर्फ खेल दिखाने आए हैं. मेरे पति नशे के कारण चल बसे जबकि बहन के पति नशीली दवाओं की आदत के चलते घर पर ही रहते हैं. हमारे सास-ससुर बीमार रहते है और मां बाप भी वृद्ध होने के कारण हमारे ही साथ रहते हैं "

और तभी बीच में कांता भी बोल पड़ी बाबू पेट की आग सबसे बड़ी है, भूख सब कुछ करवाती है. अर्जुन को लड़की इस लिए बनाते हैं कि देखने वाले भी तो मिलें. लड़के को नाचते कौन देखेगा. तमाशा नहीं तो नाच तो लोग देखने आएंगे ही." यह पूछने पर अर्जुन को पढाते क्यों नहीं हो, तो दोनों बहनें नाराज हो जाती हैं. "पढ़ लिख कर नौकरी तुम लगवाओगे ? हम भी यही काम करती थी और हमारे मां- बाप भी. और कौन सरकार कहती है कि बच्चे घर के काम में हाथ नहीं बटाएंगे. हमारे पास कौन सी घर-जायदाद या खेत है जो गुजर बसर कर सकते हैं. पुश्तैनी काम है, सो कर रहे हैं."

बढ़ते ही जा रहे हैं बाल मजदूर

अर्जुन की दास्तां एक विकासशील देश की अंदरूनी हालात की परतें उधेड़ रहीं हैं. देश भर में अर्जुन जैसे छह करोड़ बच्चे काम करने पर मजबूर है. विश्व भर में सबसे ज्यादा बाल श्रमिक भारत में है जहां पांच से चौदह साल के सवा करोड़ से ज्यादा बच्चे अपने परिवारों के गुजर बसर के लिए नौकरी करते हैं. राजस्थान के उप श्रम आयुक्त जीवराज सिंह बताते हैं कि समस्या वहां और भी विकट हैं जहां बच्चे आतिशबाजी, गलीचा निर्माण, नगीने तराशने और बीड़ी बनाने जैसे खतरनाक काम करते हैं. शिक्षा का अधिकार यदि सख्ती से लागू किया जाये तो इस समस्या से निजात पाई जा सकती है. सिंह बताते हैं,''कानून के अनुसार बाल श्रमिकों का पुनर्वास भी किया जाता है और जहां कोई बाल श्रमिक रख रहा है, तो उसके खिलाफ पुलिस कार्रवाई भी की जाती है. पर जहां खुद मां-बाप ही बच्चे से काम ले रहे हैं वहां सख्ती नहीं दिखाई जा रही है.''

संविधान के अनुसार चौदह साल से कम उम्र के बच्चे को किसी भी तरह का रोजगार नहीं दिया जा सकता. छह से चौदह साल तक के बच्चे को मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा देना संवैधानिक बाध्यता है पर इस के बावजूद अर्जुन जैसे बच्चे आज भी शिक्षा से मरहूम है. 1986 से देश में बाल श्रम के खिलाफ कानून लागू है जबकि 1987 में बाल श्रम के खिलाफ राष्ट्रीय नीति और 1988 में राष्ट्रीय बाल श्रम परियोजना भी बनाई जा चुकी है.

2006 में चौदह साल से कम आयु के बच्चों को रोजगार देने पर भी कानूनी प्रतिबंध लगाया गया जिस के बाद श्रम विभाग ने बारह हजार से भी ज्यादा मामलों में कानूनी कार्रवाई भी की. पर इन में से मात्र 211 मामलों के अभियुक्तों को सजा दिलवाने में कामयाबी मिली है. घर, ढाबे, दुकान और खतरनाक व्यवसायों में ज्यादा बच्चे काम करते नजर आने लगे हैं. कानून असरदार नहीं है, लोगों में जागरूकता नहीं है.

रिपोर्ट: जसविंदर सहगल, जयपुर

संपादन: महेश झा

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