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पैगंबर मोहम्मद के कार्टून पर तुर्की और फ्रांस क्यों भिड़े

निखिल रंजन
२८ अक्टूबर २०२०

फ्रांस में पैगंबर मोहम्मद का कार्टून दिखाने पर टीचर सामुएल पाटी की हत्या के बाद फ्रांस और तुर्की आमने सामने हैं. फ्रेंच राष्ट्रपति अभिव्यक्ति की आजादी का झंडा बुलंद कर रहे हैं तो तुर्क राष्ट्रपति इस्लाम का.

Gaza Stadt | Protest gegen Emmanuel Macron; Präsident Frankreich
तस्वीर: Adel Hana/AP Photo/picture-alliance

पेरिस के उपनगर में एक स्कूल में सामुएल पाटी ने आठवीं कक्षा के छात्रों को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता वाली क्लास में पैगंबर मोहम्मद का कार्टून दिखाया. बाद में स्कूल से बाहर एक चेचेन शरणार्थी ने सिर काटकर उनकी हत्या कर दी. पुलिस की कार्रवाई में चेचेन शरणार्थी भी मारा गया. पुलिस अभी छानबीन कर रही है लेकिन शुरुआती जांच से जो तस्वीर सामने आई है उससे पता चल रहा है कि टीचर की हत्या कार्टून दिखाने की वजह से की गई.

अभिव्यक्ति की आजादी

इस हत्या पर फ्रांस में जबरदस्त प्रतिक्रिया हुई और बड़ी संख्या में लोगों ने टीचर के समर्थन में प्रदर्शन किया. आनन फानन में टीचर सामुएल पाटी को देश का सबसे बड़ा नागरिक सम्मान भी दिया गया. राष्ट्रपति इमानुएल माक्रों खुद भी इसमें बढ़ चढ़ कर सामने आए और सामुएल पाटी को श्रद्धांजलि देते वक्त यह ऐलान किया कि फ्रांस अपने रुख से पीछे नहीं हटेगा. राष्ट्रपति ने साफ कहा कि उनका देश कार्टून बनाना बंद नहीं करेगा और देश के लिए अभिव्यक्ति की आजादी सर्वोपरि है.

फ्रांस में 2015 में भी शार्ली हेब्दो पत्रिका के दफ्तर पर हमला कर आतंकवादियों ने वहां मौजूद कर्मचारियों की हत्या कर दी थी. पत्रिका ने पैगंबर मोहम्मद का कार्टून छापा था. इसके बाद भी देश में बड़े पैमाने पर प्रदर्शन हुए और यूरोपीय संघ के तमाम बड़े नेताओं ने इन प्रदर्शनों में हिस्सा लिया. इसके पहले स्वीडन में भी इस तरह के कार्टून और उनके लिए हत्या और विरोध प्रदर्शन दुनिया देख चुकी है.

तस्वीर: Suvra Kanti Das/Zumapress/picture alliance

पैगंबर के कार्टूनों पर इस्लामी देशों में विरोध प्रदर्शन और यूरोपीय देशों का अभिव्यक्ति की आजादी के पक्ष में लामबंद होने में नया इस बार यह है कि इस्लामी देशों की तरफ से विरोध की कमान तुर्की ने अपने हाथ में ले ली है तो दूसरी तरफ फ्रांस के राष्ट्रपति अभिव्यक्ति की आजादी को हर तरह से सबसे अहम बताने में जुटे हैं. तुर्की के विरोध करने के बाद शार्ली हेब्दो पत्रिका ने तो तुर्की के राष्ट्रपति का भी एक कार्टून अपने कवर पेज पर छाप दिया. तुर्की ने इस पर आक्रामक रुख दिखाया और इस मामले में कानूनी कार्रवाई करने की बात कही है.

घरेलू राजनीति का असर

फ्रांस के राष्ट्रपति को आने वाले दो सालों में चुनाव का सामना करना है. कोरोना को रोकने में नाकामी और अर्थव्यवस्था को बुरे हाल में जाने से बचाने के लिए बहुत कुछ ना कर पाने की विवशता उन्हें ऐसे मुद्दों को उठाने के लिए उकसा रही है. फ्रांस के लिए अभिव्यक्ति की आजादी ऐसा ही एक मुद्दा है जिस पर देश के लोगों को लामबंद कर कुछ समय के लिए उनका ध्यान भटकाया जा सकता है. 2018 से ही यहां अर्थव्यवस्था और आजादी को लेकर येलो वेस्ट मूवमेंट चल रहा है जिसने देश के नेताओं की नींद उड़ा रखी है. ऐसे में अगर वैचारिक आजादी के मुद्दे ने अपना रंग जमा लिया तो माक्रों के लिए दोबारा चुने जाने की राह आसान हो जाएगी.

दूसरी तरफ तुर्की का भी कुछ यही हाल है. बीते दस सालों से तुर्की को आर्थिक, सामाजिक और अंतरराष्ट्रीय मंच पर मजबूत बनाने की एर्दोवान की कोशिश बहुत रंग नहीं ला सकी है. उल्टे जर्मनी, ग्रीस और दूसरे यूरोपीय देशों के साथ चल रही तनातनी में तुर्की के आगे बढ़ने के मौके सिमटते जा रहे है. यूरोपीय संघ के साथ तुर्की की चल रही खींचतान को भी इस विवाद के उभरने की एक वजह कहा जा रहा है. नाटो में शामिल और यूरोपीय संघ के साथ सहयोग की पींगें बढ़ाता तुर्की एर्दोवान के शासन में हर महीने अलग अलग वजहों से गुत्थमगुत्था हो रहा है. यूरोपीय संघ का प्रमुख देश होने के नाते फ्रांस के मन में भी तुर्की को लेकर कुछ शिकायतें हैं.

तस्वीर: AP Photo/picture-alliance

लंबे समय से देश की सत्ता पर काबिज एर्दोवान के लिए घरेलू मोर्चे पर भी विरोध बढ़ रहा है. अर्थव्यवस्था से लेकर मुद्रा की गिरावट और तमाम दूसरे मोर्चों पर उनके हाथ सिर्फ नाकामी है और उसका जवाब वे धार्मिक और अंतरराष्ट्रीय मामलों में उग्र तेवरों से देना चाहते हैं. दिल्ली में विश्व मामलों की भारतीय परिषद के सीनियर फेलो फज्जुर रहमान कहते हैं, "तुर्की में जो मौजूदा राजनीतिक हालात हैं, अंतरविरोध हैं और इन्हें जो लग रहा था हम एक बड़े सामाजिक और आर्थिक ताकत हैं उसमें बीते 10-12 सालों से बहुत ज्यादा गिरावट आई है. तो उसकी ओर से लोगों का ध्यान हटाने का इससे अच्छा तरीका नहीं हो सकता कि छोटे छोटे आम लोगों को छूने वाले भावनात्मक मुद्दों को उभारा जाए. इसके जरिए एर्दोवान मुसलमानों को यह भी बताना चाहते हैं कि वो ना सिर्फ राजनीतिक बल्कि धार्मिक मुद्दों के भी पैरोकार हैं."

पैगंबर मोहम्मद का ही कार्टून क्यों?

इसी तरह फ्रांस के रुख को भी रहमान घरेलू राजनीति से प्रेरित मानते हैं. उनका कहना है, "इस समय जो चुनाव का बाजार है उसमें धर्म जैसे छोटे समय के लिए लोगों को भावुक बनाने वाले मुद्दे सामने आ रहे हैं. पहले यह तीसरी दुनिया के देशों में होता था अब यूरोपीय देशों में भी हो रहा है. फ्रांस में कोविड को संभालने की नाकामी, घरेलू खींचतान, अर्थव्यवस्था इन सबसे निबटने के लिए राजनीतिक पार्टियां पहले से कहीं ज्यादा दक्षिणपंथी रुख अपना रही हैं."

रहमान तो यहां तक कहते हैं, "इस समय पूरी दुनिया का एजेंडा दक्षिणपंथी पार्टियां तय कर रही हैं और जो कम दक्षिणपंथी हैं उन्हें भी इसी रास्ते पर चलने के लिए मजबूर होना पड़ा है. माक्रों पिछले चुनाव में तो किसी तरह जीत गए लेकिन इस बार उन्हें लग रहा है कि अगर उग्रता नहीं दिखाई गई तो वो हार सकते हैं. इस एजेंडे पर चलना उनकी राजनीतिक मजबूरी है." एर्दोवान और माक्रों दोनों ने इस वक्त यही रास्ता चुना है.

तस्वीर: Bertrand Guay/AFP/Getty Images

अरब जगत कहां है?

कार्टून के मुद्दे पर तुर्की के अलावा प्रमुख रूप से पाकिस्तान और ईरान ने ज्यादा उग्र तेवर दिखाए हैं और फ्रांस के दूतावास अधिकारियों को बुला कर अपना विरोध जताया है. इस मुद्दे पर बांग्लादेश, मालदीव समेत कुछ मुस्लिम देशों में विरोध प्रदर्शन हुए हैं लेकिन अब तक इस्लाम का झंडाबरदार रहे सऊदी अरब और अरब जगत के देशों ने कुछ बहुत खास नहीं किया है. शायद इन देशों को अब समझ आ गया है कि इस्लाम का झंडा उठाने भर से काम नहीं चलेगा.

दूसरी तरफ तुर्की, ईरान और पाकिस्तान आपस में मिलकर मुस्लिम जगत में नेतृत्व की खाली हुई जगह को भरने की फिराक में हैं. तुर्की अपनी ओटोमन विरासत, पाकिस्तान अपनी परमाणु ताकत और ईरान सांस्कृतिक रूप से समृद्धि के दम पर अपनी जगह पक्की कर लेना चाहते हैं. ईरान ने पैंगबर के कार्टून को किसी भी तरह सहन नहीं करने की बात कही तो पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान भी तुर्की के सुर में सुर मिला रहे हैं. इन तीनों को अहसास है कि साथ मिलकर ही कुछ हो सकता है इसलिए आपस में सहयोग की ताकत बढ़ाई जा रही है. रहमान कहते हैं, "आधिकारिक विरोध यही तीनों देश कर रहे हैं और आम लोगों का विरोध जो सड़कों पर है वो इससे बिल्कुल अलग है."

हिमायत नहीं दुष्प्रचार

विरोध की इस अंतरराष्ट्रीय राजनीति में उस टीचर की हत्या कहीं दब गई है जो क्लास में कार्टून दिखाने की वजह से निर्मम हत्या का शिकार हुआ. इस समय इसकी चर्चा कोई नहीं कर रहा कि ऐसे काम के लिए किसी की हत्या कर देना कहां तक जायज है या फिर ऐसी घटना दोबारा ना हो इसके लिए क्या किया जाए. दुनिया के देश राजनीति, धर्म, अंतरराष्ट्रीय संबंध, नस्लवाद, सांस्कृतिक युद्ध, चुनाव और ना जाने किन किन संदर्भों पर बहस कर रहे हैं.

अभिव्यक्ति के लिहाज से एक स्वतंत्र देश में पैदा हुआ टीचर अपनी बंदिशों से मुक्त सोच की वजह से मारा गया और उसकी कहीं कोई बात नहीं कर रहा. अरब जगत में कोई एडिटोरियल इस मुद्दे पर नहीं आया. फज्जुर रहमान के शब्दों में, "वास्तव में इस समय किसी घटना के किसी बिंदु को लेकर कोई हिमायत नहीं हो रही है बल्कि केवल आडंबर और दुष्प्रचार हो रहा है."

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