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पैरालाम्पिक खेलों से समाज में नई जगह

१ फ़रवरी २०११

जर्मनी में विकलांगों को वही हक मिलते हैं जो आम लोगों को. खेलों में भी वे खूब जम कर हिस्सा लेते हैं. पैरालाम्पिक खेलों में जर्मनी की भागीदारी सबसे ज्यादा है. खिलाड़ी ओलम्पिक के स्तर तक पहुंचना चाहते हैं.

तस्वीर: AP

पैरालाम्पिक खेलों यानी विकलांग खिलाड़ियों के लिए होने वाले ओलंपिक में जर्मनी की धाक है. यहां के खिलाड़ी दुनिया के सबसे बेहतरीन खिलाड़ियों में शुमार हैं. जर्मनी में इन खेलों में जुड़े करीब साढ़े पांच लाख खिलाड़ी हैं. इतने खिलाड़ी और किसी देश के पास नहीं हैं. बीते साल वैंकूवर में हुए विंटर पैरालाम्पिक खेलों में जर्मनी ने 13 स्वर्ण, 5 रजत और 6 कांस्य पदक हासिल किए. लेकिन इस सब के बाद भी खिलाड़ियों को लगता है कि उन्हें अब तक वह जगह नहीं मिल पाई है जिसकी वे तलाश में हैं, ना खेलों में और ना ही समाज में.

नजरिया बदलने की जरूरत

जर्मनी के विकलांग खेल संघ के अध्यक्ष फ्रीडहेल्म युलिउस बोएषर मानते हैं कि खेलों में विकलांगों का विकास तभी हो सकता है जब पहले समाज में उनकी सही पहचान बने. वह कहते हैं, "व्हीलचेयर पर बैठे खिलाड़ी भी ज्यादातर सीढ़ियों से ही ऊपर जाते हैं और उन्हें इसमें कोई दिक्कत नहीं आती. दिक्कत आती है लोगों को इसे स्वीकारने में. हमारे प्रोग्राम का नाम ही है 'युवाओं की पैरालाम्पिक ट्रेनिंग'. इसे तो कब का 'युवाओं की ओलम्पिक ट्रेनिंग' हो जाना चाहिए था. पिछले एक दशक में जाने कितने विकलांग बच्चों ने ओलंपिक तक पहुंचने का सपना देखा है."

तस्वीर: picture alliance/dpa

ओलम्पिक खेलों की ही तरह यह खेल भी दो साल में एक बार विंटर और समर पैरालाम्पिक के नाम से आयोजित किए जाते हैं. 1989 में अंतरराष्ट्रीय पैरालाम्पिक कमेटी की स्थापना के बाद से जर्मनी के बॉन शहर में इसका मुख्यालय है. मुख्यालय का जर्मनी में होना यहां के खिलाड़ियों को प्रोत्साहन तो देता ही है, लेकिन खिलाड़ियों की यह शिकायत है कि उनके साथ भेदभाव किया जाता है. पैरालाम्पिक खेलों में कई बार स्वर्ण पदक जीत चुके वॉयटेक शिश का भी यही मानना है, "मुझे इस बात से बहुत बुरा लगता है कि पैरालाम्पिक और ओलम्पिक खेलों में स्वर्ण पदक देने के लिए अलग अलग मापदंड हैं. यह बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है. वैसे तो यहां जर्मनी में विकलांगों को हर लिहाज से आम लोगों जैसा ही बराबर का हक हैं. लेकिन व्यवहार में देखा जाए तो हम बराबरी तक पहुंच ही नहीं पाए हैं."

तस्वीर: picture-alliance/dpa

पैसे की कमी

बोएषर उम्मीद करते हैं कि भविष्य में हालात सुधरेंगे और खिलाड़ियों को उनकी पहचान मिल सकेगी. लेकिन उसके लिए पहले पूरे साधनों का होना जरूरी है. वह कहते हैं, "हम यह तब तक हासिल नहीं कर सकते जब तक हमारे पास इसके लिए पूरे संसाधन न हों. हमें लोगों के साथ की जरूरत है, आपके और मेरे जैसे लोग, और साथ ही ऐसे लोग भी जो आर्थिक तौर पर हमारी मदद कर सकें. इन खेलों को उस तरह से करने के लिए, जैसा इन्हें होना चाहिए था और इन्हें अंतरराष्ट्रीय स्तर तक पहुंचाने के लिए पैसे हैं ही नहीं."

यह टीस विकलांग खिलाड़ियों के दिल में है. भारत में क्रिकेट को छोड़ बाकी खेल आज भी ठीक से पनप नहीं पा रहे हैं. वहां विकलांग से खेलने के हौसला जुटाने की उम्मीद नहीं की जाती, माना जाता है कि विकलांग को बस किसी तरह सरकारी सुविधा मिल जाए, लेकिन दुनिया के दूसरे हिस्सों की कहानी बताती हैं कि लोगों के सहयोग और खुद की हिम्मत कैसे विकलांग खिलाड़ियों के हाथ पांव और इच्छाशक्ति का काम करती है.

रिपोर्टः ईशा भाटिया

संपादनः ओंकार सिंह जनौटी

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