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पैसे वालों की पार्टीः एफ़डीपी

२० सितम्बर २००९

एफ़डीपी ऐसे उदारवादियों की पार्टी है जो मुक्त बाज़ार और सरकार के कम से कम हस्तक्षेप की वकालत करते हैं. कुछ लोग उसे पैसों वाली पार्टी भी कहते हैं. सीडीयू और एसपीडी के मुक़ाबले एफ़डीपी छोटी पार्टी कही जा सकती है.

एफ़डीपी बन सकती है किंगमेकरतस्वीर: AP

लेकिन जर्मनी में वह किंगमेकर की भूमिका निभाती रही है. फ़्री डेमोक्रेटिक पार्टी (एफ़डीपी) की बुनियाद 1948 में पड़ी. 1950 के दशक में इसने छोटे मोटे कारोबारियों और किसानों के बीच अपना आधार मज़बूत किया लेकिन बाद में यह उच्च वर्ग के बीच अपनी जगह बनाने में कामयाब रही. एफ़डीपी खुद को छोटे और मंझोले कारोबारियों की पार्टी बताती रही है लेकिन अकसर उसे अमीरों की पार्टी का तमगा दिया जाता है.

किंग मेकर

यूं तो एफ़डीपी को इतना समर्थन कभी नहीं मिला की वह देश की दो बड़ी पार्टियों सीडीयू और एसपीडी को टक्कर दे सके. लेकिन गठबंधन सरकारों के दौर में वह अकसर किंगमेकर की भूमिका निभाती रही है. वह 1990 के दशक तक लगभग सभी गठबंधन सरकारों का हिस्सा रही है. लेकिन 1990 के दशक के आख़िरी सालों में एफ़डीपी के जनाधार में कमी आई, जिसे पाने के इरादे से 2001 में गुइडो वेस्टरवेले के तौर पर नया और युवा नेता चुना गया. इसके ज़रिए पार्टी को युवाओं की "मौजमस्ती" वाली पार्टी के तौर पर पेश करने की कोशिश हुई. लेकिन इसके अगले ही साल 2002 के आम चुनावों के दौरान एफ़डीपी उस वक़्त विवाद में फंस गई जब पार्टी उपाध्यक्ष युर्गन मोएलमन ने एक ऐसा पर्चा प्रकाशित किया जिसे यहूदी विरोधी और दक्षिणपंथी वोटों को हासिल करने की कोशिश माना गया. मोएलमन को पार्टी छोड़नी पड़ी और मई 2003 में उन्हों आत्महत्या कर ली. तब से एफ़डीपी मुख्य तौर पर आर्थिक सुधारों पर ही ज़्यादा ध्यान केंद्रित किए हुए है. पूरे इतिहास में एफ़डीपी सामाजिक और आर्थिक उदारवाद के बीच झूलती रही है, लेकिन अब उसने अपने आपको आर्थिक उदारवाद के प्रति समर्पित कर लिया है.

अलग अलग पार्टी के नेता जर्मन संसद बुंडेसटाग को संबोधित करते हुएतस्वीर: AP

बढ़ता जनाधार

2002 और 2005 के आम चुनावों में एफ़डीपी का प्रदर्शन कुछ खास नहीं रहा. 2002 के चुनावों में एफ़डीपी ने अपने लिए 18 प्रतिशत वोट हासिल करने का लक्ष्य तय किया था लेकिन सिर्फ 7.4 मतदाताओं ने ही उस पर विश्वास किया. लोगों को लगा कि पार्टी के नए नेता वेस्टरवेले का ध्यान मुख्य मुद्दों पर कम और मौजमस्ती पर ज़्यादा है. 2005 के चुनावों में एफ़डीपी अपने वोटों में 2.5 प्रतिशत का इजाफ़ा करने में कामयाब रही जिससे राष्ट्रीय स्तर पर उसके वोटों का प्रतिशत 9.9 तक जा पहुंचा. इस तरह वह छोटी पार्टियों में सबसे ज्यादा सीटें हासिल करने में कामयाब रही. दो बड़ी पार्टियों सीडीयू और एसपीडी ने गठबंधन सरकार बनाने का फ़ैसला किया तो एफ़डीपी को मुख्य विपक्षी दल की भूमिका मिली और उसके नेता वेस्टरवेले विपक्ष के नेता बने.

इस साल एफ़डीपी की लोकप्रियता में अचानक आई वृद्धि को देखते हुए लगता है कि वह अपने वोटों को 18 प्रतिशत तक ले जा सकती है, जो अकसर 10 प्रतिशत के आसपास रहे हैं. एफ़डीपी चांसलर अंगेला मैर्केल की सीडीयू के साथ गठबंधन कर सकती है. ऐसे में एफ़डीपी और सीडीयू को दमदार बहुमत मिल सकता है जिससे वह टैक्स में कटौती और सामाजिक नीति से जुड़े अपने अपने एजेंडे को लागू कर सकेंगी. सर्वे में इन सभी को कुल मिला कर 49 फ़ीसदी वोट मिलते दिख रहे हैं.

पार्टी की युवा नेता सिल्वाना कॉख़ मेहरिन हनोवर में एफ़डीपी की बैठक के दौरानतस्वीर: AP

सत्ता की सौदागर

एफ़डीपी की लोकप्रियता में हुए इज़ाफ़े से साफ़ है कि दक्षिणपंथी मतदाता सीडीयू और एसपीडी गठबंधन सरकार के दौरान अपनाई गई समझौतेवादी नीतियों से खफ़ा हैं. एफडीपी को एसपीडी के उन वोटरों का भी समर्थन मिल सकता है जो सरकार में साझीदार रहते एसपीडी के प्रदर्शन से खुश नहीं हैं.हालांकि वेस्टरवेले ने अभी तक औपचारिक तौर पर यह एलान नहीं किया है कि वह किसके साथ गठबंधन करेंगे, लेकिन जैसे जैसे चुनाव नज़दीक आ रहे हैं, सीडीयू और एफ़डीपी के बीच गठबंधन को पक्का समझा जा रहा है. हालांकि इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि लगभग 10 सालों से सत्ता से दूर रहने वाली एफ़डीपी आख़िरी वक़्त पर एसपीडी और ग्रीन पार्टी के साथ मिलकर गठबंधन बना सकती है. चांसलर पद के लिए एसपीडी के उम्मीदवार और मौजूदा विदेश मंत्री फ़्रांक वाल्टर श्टाइनमायर भी इस संभावना से इनकार नहीं करते हैं.

नीतियां

नीतियों की जहां तक बात है एफ़डीपी चाहती है कि अभी जो छोटे कारोबारियों को 30 प्रतिशत बिजनेस टैक्स देना पड़ता है, उसे घटाकर 10 से 25 प्रतिशत किया जाना चाहिए. एफ़डीपी टैक्स सिस्टम को आसान बनाने के हक़ में भी है. वह चाहती है कि कामगारों की रक्षा के लिए बने नियमों में ढील दी जाए और सरकार बैंकों में अपनी हिस्सेदारी को बेचे. विदेश नीति के तौर पर अफ़ग़ानिस्तान पर एफ़डीपी का काफ़ी ज़ोर है. वह वहां से जर्मन सैनिकों की वापसी के कार्यक्रम की मांग कर रही है. अफ़ग़ानिस्तान में हाल के राष्ट्रपति चुनावों में हुई हिंसा और जर्मन सैनिकों के लिए वहां पैदा चुनौतीपूर्ण हालात ने इसे चुनावों में अहम मुद्दा बना दिया है. हाल में आतंकवाद के ख़िलाफ़ लड़ाई के सिलसिले में नागरिक स्वतंत्रता को सीमित किए जाने का भी एफ़डीपी विरोध करती है. वह सरकारी अतिक्रमण के ख़िलाफ़ नागरिक अधिकारों को मज़बूत बनाने की पैरवी करती है.

रिपोर्टः अशोक कुमार

संपादनः ए जमाल

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