पोलो को अमीरों का खेल माना जाता रहा है और अब तक इस खेल में पुरुषों का ही वर्चस्व रहा है. लेकिन अब मणिपुर में लोकप्रिय इस खेल को महिलाएं भी खेलने से नहीं हिचक रही हैं.
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पूर्वोत्तर के मणिपुर राज्य में पुरुष सदियों से पोलो खेलते आ रहे हैं, लेकिन अब स्थिति बदल रही है. महिलाएं भी इस खेल में अपना दबदबा जमा रही हैं. इस प्रदेश की महिलाओं की पांच पेशेवर पोलो टीमें हैं, जिनका मुकाबला दुनिया की सर्वश्रेष्ठ टीमों से है. साधारण पृष्ठभूमि से आने वाली इन मणिपुरी महिलाओं इस धारणा को तोड़ा है कि पोलो सिर्फ पुरुषों का खेल है, साथ ही इन्होंने यह भी दिखा दिया है कि यह केवल अमीरों का खेल नहीं है.
प्रदेश में महिला पोलो को प्रोत्साहन देने वालों में अग्रणी एल. सोमी रॉय इसे आइकॉनिक मणिपुरी घोड़ों के संरक्षण का अभियान भी मानते हैं, जिनकी आबादी साल दर साल घटती जा रही है. वह बताते हैं कि परंपरा के अनुसार, मणिपुरी महिलाएं पोलो नहीं खेलती थीं, क्योंकि यह घुड़सवारी का खेल है. इसकी शुरुआत वैवाहिक परंपरा से हुई है, लेकिन 1980 के दशक में वे अपने पुरुष रिश्तेदारों से प्रेरित हुई.
रॉय ने आईएएनएस को बताया, "ऑल मणिपुर पोलो एसोसिएशन ने उनको प्रोत्साहित किया. दुनियाभर में करीब 40-45 फीसदी पोलो खिलाड़ी महिलाएं हैं. इसलिए हम अभी इस पर पकड़ बना ही रहे हैं. खेल के रूप में यह लिंग-भेद से मुक्त है."
मणिपुर में जहां देश के एक तिहाई पुरुष खिलाड़ी हैं, जबकि महिला खिलाड़ियों की तादाद तीन-चौथाई है. राय ने बताया कि आर्थिक रूप से पिछड़े प्रदेश के इन खिलाड़ियों में से अधिकांश इंडियन पोलो एसोसिएशन के सदस्य नहीं हैं.
मणिपुर में देश का सबसे लंबा पोलो सीजन होता है जो नवंबर से मार्च तक चलता है. इस दौरान दो अंतरराष्ट्रीय और चार राज्य स्तरीय टूर्नामेंट होते हैं, जिनमें मणिपुर स्टेटहुड वुमंस पोलो टूर्नामेंट भी शामिल है. यह देश में पहला ऐसा टूर्नामेंट है, जिसमें अमेरिका, इंग्लैंड, कनाडा, केन्या, ऑस्ट्रेलिया और अर्जेटीना के खिलाड़ी मणिपुरी लड़कियों के साथ स्पर्धा में उतरते हैं. मैच इंफाल के मपल कांगजीबंग स्टेडियम में होते हैं, जो दुनिया को सबसे पुराना पोलो ग्राउंड है.
महिलाओं को रिझाता वुशु
अफगानिस्तान में मार्शल आर्ट पर आधारित वुशु का खेल महिलाओं के बीच दिन-प्रतिदिन लोकप्रिय हो रहा है. इस खेल को कुंगफू भी कहा जाता है, जो दुनिया के तमाम हिस्सों में अलग-अलग रूप में फैला है.
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बर्फ में वुशु करतीं अफगान महिलाएं राजधानी काबुल में दिखने लगी हैं.
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ये महिलाएं काबुल के आधुनिक शाओलिन वुशु क्लब की सदस्य हैं.
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लगभग 20 लड़कियां वुशु सीख रही हैं. ज्यादातर छात्राएं हैं.
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वुशु एक मार्शल आर्ट है जिसकी जड़ें चीन में मिलती हैं.
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हाल के दिनों में अफगान महिलाओं का वुशु की ओर रुझान बढ़ा है.
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वुशु मान्यता प्राप्त खेल है. अंतरराष्ट्रीय वुशु फेडरेशन भी है.
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वुशु में दो चीजें हैं. पहली ताउलो, जो हमले और बचाव के सिद्धांत पर आधारित है.
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दूसरा तत्व है सांडा जहां मुक्केबाजी, कुश्ती और रक्षात्मक तकनीकों के नियम लागू होते हैं.
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फिल्मकार रूपा बरुआ ने 2016 में मणिपुर में महिला पोलो की कहानी पर आलेख बनाना शुरू किया था. वह कहती हैं कि प्रदेश में प्रचलित हो रहे पोलो से लड़कियां करीब आ रही हैं. रूपा ने बताया, "2014-15 में मणिपुर में खेलने के लिए अंतरराष्ट्रीय महिला खिलाड़ियों को लाने का प्रयास किया गया. इस प्रयास का मकसद मणिपुरी घोड़ों का संरक्षण करना था, क्योंकि उनके अस्तित्व को खतरा पैदा हो गया था. मैंने इसमें एक सहजीविता का संबंध पाया और इस कहानी का मैंने चार साल तक अनुसरण किया." बरुआ मानती हैं कि मणिपुरी महिलाएं नैसर्गिक घुड़सवार और बेहतरीन एथलीट हैं."
फिल्म की हिमायती रही 19 साल टन्ना थॉडम 2010 में एक मैच मं कुछ महिला खिलाड़ियों को खेलते देख पोलो खेल के प्रति उत्साहित हुई थीं. उन्होंने 2011 में असम राइफल्स पोलो क्लब ज्वाइन किया और वह 2017 में स्टेटहुड डे वुमंस पोलो टूर्नामेंट के फाइनल में जाने वाली एकमात्र जूनियर थीं. उन्होंने कहा, "यह मेरे जीवन का सबसे सुखद पल था."
जेथोलिया थांगबम ने 2016 में पोलो खेलना शुरू किया. उनका मानना है कि अंतरराष्ट्रीय खिलाड़ियों के साथ खेलने से मणिपुरी खिलाड़ी साल दर साल बेहतर कर रही हैं.
मणिपुर पोलो सोसायटी के सचिव एन. इबुनगोचौबी ने कहा कि मणिपुरवासियों और घोड़ों के बीच खास संबंध है.
लेकिन हाल के दिनों में मणिपुरी घोड़े शहरीकरण के अभिशाप के कारण अपने आवास से वंचित हो गए हैं और उनकी आबादी 2003 में जहां 1,893 थी वह 2014 में घटकर 500 रह गई है.
चपला, चंचला, चोलिता
दक्षिण अमेरिकी देश बोलिविया में महिलाओं की कुश्ती बड़ी मशहूर है. स्कर्ट पहन कर कुश्ती करने वाली 'चोलिता' अपने प्रतिद्वंद्वी को ही नहीं समाज में मौजूद कई तरह के भेदभाव को भी पटखनी दे रही हैं.
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WWE से भी पुरानी
बोलिविया में महिलाओं की इस फ्री स्टाइल रेसलिंग को 'फाइटिंग चोलिताज' कहा जाता है. माना जाता है कि बोलिविया के अल आल्तो इलाके में इसकी शुरुआत 19वीं शताब्दी में हुई.
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परंपरागत पोशाक
कुश्ती के खास कपड़ों के उलट फाइटिंग चोलिता अपनी पारंपरिक पोशाक पहन कर लड़ती हैं. ग्रीक-रोमन शैली की यह कुश्ती लड़ने वाली महिलाएं लात और घूसों से कोई परहेज नहीं करतीं.
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बेदम करने तक
लुचा लिब्रे समुदाय की महिलाओं के बीच होने वाली इस फाइट में प्रतिद्वंद्वी को बेदम करना होता है. मुकाबला चित करने या फिर प्रतिद्वंद्वी के हार मानने पर ही खत्म होता है.
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अखाड़े के बाहर भी अखाड़ा
मुकाबले के दौरान अगर कोई फाइटर अखाड़े से बाहर भी चली जाए तो उसका पीछा किया जाता है और खास सीमा के अंदर उसे पटखनी दी जाती है. अगर कोई मैदान छोड़ दे तो उसे हारा घोषित किया जाता है.
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कहां फंस गया
कभी कभार लड़ाई के दौरान महिलाएं इतनी आक्रामक हो जाती हैं कि वह पुरुष रेफरी को भी नहीं बख्शती हैं. कई लोगों का मानना है कि अमेरिका की WWE रेसलिंग बोलिविया की फाइटिंग चोलिताज की नकल है.
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संडे के संडे
इस फ्री स्टाइल रेसलिंग के लड़ाकों को 'टाइटन्स ऑफ द रिंग' कहा जाता है. इसमें महिला और पुरुषों की अलग अलग श्रेणी होती है. मुकाबले हर इतवार होते हैं.
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जीत की हुंकार
विजयी महिला को करीब 30 डॉलर तक का ईनाम मिलता है. रेसलिंग करने वाली ज्यादातर महिलाएं सोमवार से शनिवार तक दूसरे काम करती हैं.
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दशकों चला अपमान
बोलिविया की मूल निवासी यह महिलाएं अपने लंबी स्कर्ट, खास हैट और बड़े गहनों वाले पहनावे के कारण दूर से पहचान में आ जाती थीं. कई दशकों तक चोलिता को कई सार्वजनिक जगहों पर जाने की मनाही रही.
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पहलवानी से सशक्तिकरण
रेसलिंग के कारण चोलिता को एक नई पहचान मिली. पहले जिन्हें घरेलू हिंसा और दुर्व्यवहार का शिकार बनना पड़ता था, आयमारा और ऐसे मूल समुदायों की महिलाएं रेसलर बन कर अपने को सशक्त बना रही हैं.
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ऐसे पता चली कहानी
फाइटिंग चोलिताज नाम की एक डॉक्यूमेंट्री फिल्म के जरिये बोलिविया की यह कहानी दुनिया के सामने आई. 2006 में बनी उस डॉक्यूमेंट्री फिल्म को सम्मानित भी किया गया.