8 मार्च 2018 को शुरू हुए 'राष्ट्रीय पोषण मिशन' या पोषण अभियान के तहत अब तक जारी हुई रकम में से भारत के तमाम राज्यों व केंद्र शासित प्रदेशों ने महज 30 फीसदी ही खर्च किया है.
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भारत में खासकर महिलाओं और बच्चों को कुपोषण-मुक्त करने और उनमें एनीमिया यानी खून की कमी की समस्या दूर करने के मकसद से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने आठ मार्च 2018 को महिला दिवस के मौके पर राजस्थान के झुंझुनू में इसकी शुरुआत की थी. योजना का मकसद 10 करोड़ से अधिक लोगों को फायदा पहुंचाना था. लेकिन हुआ ये है कि मिजोरम, लक्षद्वीप, बिहार और हिमाचल प्रदेश के अलावा भारत की कोई भी राज्य सरकार बीतेतीन वित्तीय वर्षों के दौरान जारी रकम का आधा भी खर्च नहीं कर सकी है. लांसेट जर्नल के ताजा अंक में छपी एक रिपोर्ट में कहा गया है कि बीते दो दशकों के दौरान भारत में कुपोषण और मोटापे के मामले तेजी से बढ़े हैं.
योजना का लक्ष्य
सरकार ने हाल में संसद में पोषण अभियान से संबंधित जो आंकड़े पेश किए थे उनसे साफ है कि मिजोरम, लक्षद्वीप, हिमाचल प्रदेश और बिहार के अलावा दूसरे किसी राज्य में इस मद में आवंटित आधी रकम भी खर्च नहीं हो सकी है. महिला व बाल विकास मंत्रालय के इस फ्लैगशिप कार्यक्रम का लक्ष्य वर्ष 2022 तक गर्भवती महिलाओं, माताओं व बच्चों के पोषण की जरूरतों को पूरा करना और बच्चों व महिलाओं में खून की कमी (एनीमिया) को दूर करना भी है.
एक दिसंबर, 2017 को केंद्रीय मंत्रिमंडल की बैठक में मंजूरी के बाद तीन वर्षों के लिए 9,046.17 करोड़ के बजट के साथ इस योजना की शुरुआत हुई थी. इसमें से आधी रकम बजट प्रावधान के जरिए मिलनी थी. उसमें से भी केंद्र और राज्य को क्रमशः 60 और 40 फीसदी रकम देनी थी. पूर्वोत्तर राज्यों के मामले में केंद्र व राज्य सरकारों की भागीदारी क्रमशः 90 और 10 फीसदी है जबकि बिना विधायिका वाले केंद्रशासित प्रदेशों में पूरी रकम केंद्र सरकार के खाते से ही जाएगी.
दुनिया के बच्चों को क्या क्या हक है
दुनिया में हर बच्चे के कुछ अधिकार हैं. संयुक्त राष्ट्र की बाल अधिकार संधि (1989) ने बच्चों के लिए राजनीतिक, आर्थिक, सेहत से जुड़े, सामाजिक और सांस्कृतिक 54 अधिकार तय किए हैं. यहां देखिए इनमें से कुछ प्रमुख अधिकारों को.
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नाम का हक
हर बच्चे का हक है कि उसके जन्म होते ही उसको रजिस्टर किया जाए, नाम और राष्ट्रीयता दी जाए, और अपने माता-पिता को जानने और उनकी परवरिश में रहने का मौका दिया जाए.
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मां बाप का साथ
सरकार की यह जिम्मेदारी है कि कोई भी बच्चा अपने माता-पिता से उसकी मर्जी के खिलाफ अलग ना किया जाए. बच्चे को उसके मां बाप से तभी अलग किया जाए जब उस बच्चे के लिए यह नुकसानदेह हो गया हो.
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अपने हितों पर राय देना
हर बच्चे को हक है कि वो उनसे जुड़ी बातों पर वो अपनी राय जता सकते हैं. इसका मतलब है कि अगर कोई निर्णय कोर्ट कचहरी तक पहुंच जाए, तो उसमें बच्चे का पक्ष सुनना जरूरी है. उनकी राय को कितना महत्व दिया जाएगा यह उम्र और परिपक्वता पर निर्भर करता है.
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जनसंचार तक पहुंच
जनसंचार के माध्यम की भूमिका सभ्य समाज में अविवादित है. देशी और विदेशी संचार माध्यमों तक सभी बच्चों की पहुंच होनी चाहिए.
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हिंसा से बचाव
किसी भी प्रकार की मार पिटाई या उपेक्षा से बच्चों को बचाने की जिम्मेदारी माता-पिता, उनके शिक्षकों या अभिभावकों की है. इसे रोकने के लिए सरकार को कानूनी, प्रशासनिक नियम बनाने चाहिए और लोगों को इस बारे में जागरूक करना चाहिए.
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मुख्यधारा में रहने का अधिकार
दिमाग या शरीर से विकलांग बच्चों की जिंदगी भरपूर और अच्छी होनी चाहिए जिससे कि वो समाज का सक्रिय हिस्सा बन सकें.
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अच्छा स्वास्थ्य और सेवा
सरकार का फर्ज है कि बच्चें सबसे बेहतरीन व्यवस्थाओं में बड़े हों और उनके लिए स्वास्थ सेवा की कमी ना हो.
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शिक्षा का अधिकार
हर बच्चे को पढ़ने लिखने का हक है. इसके लिए प्राथमिक विद्यालयों में कोई फीस नहीं होनी चाहिए. बच्चों की हाजिरी यहां अनिवार्य है.
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सामुदायिक पहचान का हक
अगर कोई बच्चा अल्पसंख्यक या आदिवासी समूह से आता है, तो उसके धर्म, भाषा और संस्कारों का पूरी तरह से सम्मान होना चाहिए.
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खेलकूद और आराम
बच्चों को यह हक है कि उनकी दिनचर्या में आराम, खेल और मौज के लिए पर्याप्त समय और सुविधा हो. जितना संभव है इसके लिए बच्चों को बढ़ावा देना चाहिए.
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उत्पीड़न से सुरक्षा
कोई बच्चा अपहरण, व्यापार और यौन उत्पीड़न का शिकार ना बने यह सुनिश्चित करना सरकार की जिम्मेदारी है. चाहे यह उत्पीड़न मानसिक हो या फिर शारीरिक और भले ही इसमें परिवार के लोग शामिल हों या नहीं.
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मौत की सजा नहीं
अगर बच्चों से बड़ी गलतियां या अपराध हो जाएं तो भी उन्हें मौत की सजा या उम्रकैद नहीं दी जा सकती है.
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इस योजना के तहत बाकी 50 फीसदी रकम विश्व बैंक या दूसरे विकास बैंकों से मिलनी है. नतीजतन केंद्र सरकार का हिस्सा 2,849.54 करोड़ आता है. लेकिन अब इस अभियान के तहत खर्च होने वाली रकम का आंकड़ा सामने आने के बाद तस्वीर बेहतर नहीं नजर आ रही है. केंद्रीय महिला व बाल कल्याण मंत्री स्मृति ईरानी ने संसद के शीतकालीन अधिवेशन के दौरान इस अभियान का जो आंकड़ा पेश किया उसमें कहा गया था कि केंद्र ने अब तक विभिन्न राज्यों व केंद्रशासित प्रदेशों को 4,238 करोड़ की रकम जारी की है. लेकिन इस साल 31 अक्तूबर तक इसमें से महज 1,283.89 करोड़ यानी 29.97 फीसदी रकम ही खर्च हो सकी थी. पोषण अभियान के वित्त वर्ष 2017-18 के आखिर में शुरू होने की वजह से उस साल के आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं.
इस अभियान के तहत जारी रकम को खर्च करने में मिजोरम (65.12 फीसदी) और लक्षद्वीप (61.08 फीसदी) क्रमशः पहले व दूसरे स्थान पर रहे. इस मामले में पंजाब, कर्नाटक, केरल, झारखंड और असम का प्रदर्शन सबसे खराब रहा. वर्ष 2019-20 के दौरान 19 राज्यों को इस मद में रकम जारी की गई. हालांकि इनमें से 12 राज्य पहले दो वित्त वर्ष के दौरान महज एक तिहाई रकम ही खर्च कर सके थे.
कुपोषण की स्थिति
भारत में कुपोषण की तस्वीर बेहद भयावह है. इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च (आईएमआरसी) की एक रिपोर्ट में वर्ष 2017 तक के आंकड़ों के हवाले से कहा गया है कि पांच साल तक के बच्चों में मौत की एक बहुत बड़ी वजह कुपोषण है. अब भी कुपोषण से पांच साल से कम आयु के 68.2 फीसदी बच्चों की मौत हो जाती है. राजस्थान, उत्तर प्रदेश, बिहार और असम के साथ मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, ओडिशा, नागालैंड और त्रिपुरा के बच्चे कुपोषण के सबसे ज्यादा शिकार हैं.
इस बीच, यूनिसेफ की ओर से जारी एक अन्य रिपोर्ट में कहा गया है कि कुपोषण के मामले में दुनिया के बाकी देशों के मुकाबले भारत में हालात बदतर हैं. कुपोषण की वजह से बच्चों को बचपन तो गुम हो ही रहा है उनका भविष्य भी अनिश्चतता का शिकार है. पब्लिक हेल्थ फाउंडेशन आफ इंडिया और नेशनल इंस्टीट्यूट आफ न्यूट्रीशन की ओर से कुपोषण की स्थिति पर हाल में जारी एक रिपोर्ट में कहा गया था कि वर्ष 2017 में देश में कम वजन वाले बच्चों के जन्म की दर 21.4 फीसदी रही. इसके अलावा एनीमिया से पीड़ित और कम वजन वाले बच्चों के जन्म की तादाद भी बढ़ी है.
रिपोर्ट में कहा गया था कि वर्ष 1990 से 2017 के बीच पांच साल से कम उम्र वाले बच्चों के मौत के मामले घटे हैं. लेकिन कुपोषण से होने वाली मौतों की तादाद में कोई खास अंतर नहीं आया है. वर्ष 1990 में यह दर 70.4 फीसदी थी जो वर्ष 2017 में 68.2 फीसदी तक ही पहुंची है. इससे साफ है कि कुपोषण का खतरा कम नहीं हुआ है. ऐसे में पोषण अभियान की अहमियत काफी बढ़ जाती है. लेकिन इसे जमीनी स्तर पर लागू करने में सामने आने वाली खामियों ने स्वास्थ्य विशेषज्ञों की चिंता बढ़ा दी है.
कमियों को कैसे करें दूर
स्वास्थ्य विशेषज्ञ डॉक्टर पुलकेश कुमार गांगुली कहते हैं, "केंद्र सरकार की यह योजना तो ठीक है. लेकिन जमीनी स्तर पर इसे लागू करने के लिए कुशल तंत्र और इच्छाशक्ति जरूरी है. कुपोषण की यह समस्या इतनी गंभीर है कि तमाम गैर-सरकारी संगठनों को भी साथ लेकर काम करना जरूरी है.” गांगुली कहते हैं कि इस योजना को लागू करने के साथ ही आम लोगों में जागरुकता अभियान चलाना भी जरूरी है. इस काम में गैर-सरकारी संगठन अहम भूमिका निभा सकते हैं.
पोषण अभियान की देख-रेख करने वाले नेशनल काउंसिल ऑन इंडिया न्यूट्रीशन चैलेंजेज के सदस्य चंद्रकांत पांडेय कहते हैं, "हम दूसरी खतरनाक बीमारियों की तरह कुपोषण के प्रति उतनी गंभीरता नहीं दिखाते. इसकी वजह यह है कि दूसरी जानलेवा बीमारियां के लक्षण तो सामने आते हैं लेकिन कुपोषण में यह प्रक्रिया बेहद धीमी है और इसके लक्षण शीघ्र नजर नहीं आते. इसलिए लोग इस पर ध्यान नहीं देते.” वह कहते हैं कि पोषण अभियान को कामयाब बनाने के लिए स्वास्थ्य के क्षेत्र में काम करने वाले तमाम हितधारकों को मिल कर काम करना होगा.
खाने में कई चीजें ऐसी हैं जिन्हें हम फायदेमंद समझते हैं लेकिन असल में वे आपको नुकसान पहुंचा रही होती हैं. आपको इनमें से किनके बारे में गलतफहमी है...
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"कॉफी से कैंसर हो सकता है" या "कॉफी तंत्रिकाओं के लिए बुरी है", कॉफी के बारे में ऐसी बातें हम अक्सर सुनते हैं. लेकिन रिसर्चरों का कहना है कॉफी ज्यादा ही बदनाम है. असल में कॉफी कैंसर को दूर रखने में मदद करती है. लेकिन कहते हैं ना किसी भी चीज की अति अच्छी नहीं.
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शराब पीना स्वास्थ्य के लिए अच्छा नहीं. लेकिन रेड वाइन में मौजूद कुछ तत्व आपको फायदा पहुंचा सकते हैं. आंकड़ों के मुताबिक महिलाओं के लिए दिन में एक ड्रिंक और पुरुषों के लिए 2 काफी है. एक अमेरिकी रिसर्च में पाया गया कि जो लोग अल्कोहल का सेवन बिल्कुल नहीं करते वे कम मात्रा में शराब पीने वालों से जल्दी मरते हैं.
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सालों पहले हमें बताया गया था कि मक्खन से बेहतर है कृत्रिम मक्खन या मार्जरीन खाया जाए. इसमें सैचुरेटेड फैटी एसिड की मात्रा कम होती है. लेकिन कई नई रिसर्च मार्जरीन के पक्ष में नहीं क्योंकि असल में यह एक अप्राकृतिक उत्पाद है.
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दिल के दौरे या दूसरी कई बीमारियों के लिए आमतौर पर कोलेस्ट्रॉल को जिम्मेदार ठहराया जाता है. डॉक्टरों के मुताबिक यह रक्त नलिकाओं को ब्लॉक कर देता है इसलिए इससे दूर रहना चाहिए. खासकर अंडे, चीज और मांस जैसे उत्पादों से. लेकिन क्या आप जानते हैं कि शरीर को कोलेस्ट्रॉल की कुछ मात्रा की जरूरत होती है लेकिन बहुत ज्यादा कोलेस्ट्रॉल से बचना चाहिए. शरीर कुछ मात्रा में इसे खुद भी बनाता है.
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कई लोग फ्रोजेन सब्जियों के इस्तेमाल से परहेज करते हैं. वे मानते हैं कि फ्रोजेन सब्जियों में ताजा सब्जियों के मुकाबले विटामिन कम होता है. लेकिन असल में फ्रोजेन सब्जियों में ज्यादा पोषण होता है क्योंकि खेत से ग्राहक के पास पहुंचने तक ये इधर उधर नहीं पड़ी रहतीं बल्कि फ्रीज कर दी जाती हैं.
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एक धारणा यह भी है कि ओमेगा-3 फैटी एसिड कैंसर, हृदय रोग और अवसाद जैसी बीमारियों को दूर भगा सकता है. कई डॉक्टर हमें हर रोज एमेगा-3 के इस्तेमाल की सलाह देते हैं. लेकिन ताजा जानकारियों के मुताबिक फैटी एसिड शरीर में कुछ फायदे तो पहुंचाता है लेकिन हर मर्ज की दवा नहीं.
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विटामिन शरीर में मेटाबॉलिज्म के लिए जरूरी है, तो विटामिन की गोलियां खाने से बेहतर क्या हो सकता है. माना जाता रहा है कि विटामिन सी सभी तरह की बीमारियों से रक्षा करता है. लेकिन कई जानकारों का मानना है कि विटामिन की ज्यादा मात्रा आपको नुकसान पहुंचा सकती है.
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शरीर को जब पानी की जरूरत होती है तो हमें खुद ब खुद प्यास लग जाती है. लेकिन एक धारणा यह भी है कि प्यास लगने से पहले ही पानी पी लेना चाहिए. यह सही नहीं है. आपको शरीर की क्षमता पर विश्वास रखना चाहिए, जब शरीर को पानी की जरूरत होगी वह आपको खुद ही प्यास का एहसास कराएगा.
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दूध में कैल्शियम होता है. यह हड्डियों को मजबूत करता है और शरीर की रोग प्रतिरोधी क्षमता को बढ़ाता है. लेकिन स्वीडन में एक शोध के मुताबिक जो लोग बहुत ज्यादा दूध पीते हैं वे जल्दी मर सकते हैं. दूध पीते रहें, लेकिन बहुत ज्यादा नहीं.
स्वास्थ्य और डायट संबंधी कई वेबसाइटें गेहूं के नुकसान से आगाह कराती हैं. कुछ डॉक्टरों का कहना है कि गेहूं गंजेपन, हैलूसिनेशन और आत्महत्या की प्रवृत्ति को बढ़ावा देता है. हालांकि इसकी पुष्टि नहीं हुई है.